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क्या इस दौर की अकारण, अमानवीय, अभद्र और गैरकानूनी हिंसा का स्रोत कहीं हमारे साहित्य में है?

‘दोषी कोई नहीं है

‘… क्योंकि बमों और टैंकों के लिए रास्ता हमेशा पुस्तकें पक्का करती हैं और अब हम सीधे प्रत्यक्षधर्मी गवाह हैं कि कैसे लाखों का भाग्य हमारे पढ़ने के चुनाव से तय होता है. यह समय है जब हमें अपने पुस्तकों-शैल्फ़ों को गहरी और सख़्त नज़र से देखना-चाहिये.’ इन पंक्तियों से यूक्रेनी कवि-उपन्यासकार ओकसाना ज़ाबूझको ने हाल ही में टाइम्स लिटेरेरी सप्लीमेण्ट में ‘दुनिया में दोषी लोग कोई नहीं है?’ लेख का समापन किया है.

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रूस जिस बर्बरता से यूक्रेन पर बीते कई महीनों से आक्रमण किये जा रहा है और इस युद्ध के दौरान हज़ारों नागरिकों की मौत हुई है, उससे सारी दुनिया में क्षोभ है. लेकिन पश्चिम में बुराई याने ईविल के लिए तर्क खोजने की वृत्ति है और तरह-तरह से यह समझाया जा रहा है कि युद्ध अनुचित है पर उसके पीछे कारण हैं. ओकसाना ने इस निबंध में यह दिखाने की कोशिश की है कि रूसी सभ्यता में ही एक तरह के अनिवार्य सर्वसत्तावाद के बीज हैं. उनके अनुसार महान् रूसी लेखक ताल्स्ताय और दोस्तोवस्की के साहित्य में ही यह बात निहित है कि बुराई के लिए अंततः कोई दोषी नहीं है: रूसी साहित्य की परम्परा बुराई के साधारणीकरण की है. दूसरे महायुद्ध और सोवियत संघ के पतन के बाद रूस में, अपनी परम्परा के अनुरूप, फिर सर्वसत्तावाद विकसित होता रहा है और इस वृत्ति की पश्चिम ने अनदेखी की है. दो सौ वर्षों से रूस में यह धारणा व्याप्त और सशक्त होती गयी है कि अपराधी को सज़ा नहीं, दया देना चाहिये. रूसी सैनिक यूक्रनियनों से कह रहे हैं कि तुम्हें हमसे बेहतर रहने का हक़ नहीं हो सकता. लेखिका यह भी कहती हैं रूसी राज्य और रूसी साहित्य में कोई द्वैत या दूरी नहीं है. रूसी बर्बरता में नागरिकों को दीक्षित उसके साहित्य ने किया है. कम से कम हज़ार साल पुरानी यूक्रेनियन संस्कृति के साथ रूस का व्यवहार यह है कि जो उससे चुरा सकते हो, चुरा लो, जो नहीं चुरा सकते उसे नष्ट कर दो.

ये तथ्य और धारणाएं विचलित करनेवाली हैं. युद्ध और साहित्य के संबंध में हमने अपने यहां अधिक विचार नहीं किया है. आज जो हिन्दुत्व से प्रेरित गुण्डों और लफंगों के दल निरपराधों पर हिंसा कर रहे हैं, अल्पसंख्यकों को अपमानित और उनकी हत्या तक कर अपनी वीरगाथा लिख रहे हैं, वे क्या किसी तरह की पढ़ाई और संस्कार से इतनी हिंस्र प्रवृत्तियों को पोस-बढ़ा रहे हैं? क्या इस अकारण और अमानवीय, अभद्र और ग़ैरक़ानूनी हिंसा का स्रोत कहीं हमारे साहित्य में है? हम जिस सर्वसमावेशी सहिष्णु उदार चरित्र को अपने साहित्य का मूल मानते आये हैं, उसमें कहीं कोई दुराच-छिपाव है? क्या हमें इस परंपरा का कुछ निमर्मता से पुनराकलन करना चाहिये? सत्ता जिनको दोषी नहीं मानती या हेर-फेर से दोषमुक्त करा लेती है, क्या समाज भी उन्हें दोषी मानने से हिचक या इनकार कर रहा है?

भाषा की किरचें

इधर यूरोपीय कविता के एक संचयन में एक और यूक्रेकियन कवयित्री कैटेरीन कैलिट्को की एक कविता ‘यह अकेलापन’ पर नज़र गयी. उसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है:

इस अकेलेपन का कोई नाम हो सकता था, एक ईस्थर या एक मिरियम
रेज़ीमेण्टें ज़मींदोज़ होती है एक बच्चे की चीख़ से
शब्द मुश्किल से अंटते हैं पानी और नमक के बीच
अधझुके झण्डे के नीचे, सैकड़ों भर्रायी आवाज़ें
हंसती हैं भाषा की किरचों से बिंधी हुई.
यह अकेलापन विस्तीर्ण है, तलहीन और इतना भुतहा
कि एक अजनबी तक भाग जाता है. बेचैन बच्चे भटकते हैं
स्कूल से बाहर, समुद्र के किनारे खड़े, जैसे किसी ट्रिव्यूनल के सामने.
सूखी पत्तियां खड़खड़ाती हैं हवा में जैसे ट्रांसमीटर
कोई पुकारता रहता है शहर का नाम जो राख हो चुका है
इस अकेलेनपन को सेवगिल या सलीमा नाम दिया जा सकता है
परित्यक्त लोगों के नाम नमकीन और अबोध्य होते हैं.
वह बाहर आती है, अपने काले स्कार्फ़ की गांठ टटोलती है,
उसके ओंठ पीले हैं. कौन है वहां, वह कहती है, जो मुझे पढ़ता है
कोई हमें सुनता है?
एक पल पहले किसी ने हमारे नाम पुकारे थे.
क्या तुम मुझे पढ़ते हो, बेटे, कोशिश करो, मुझे सुनो
वे सब तट छोड़कर चले गये हैं, उन्हें समुद्र में खोजो.

अयोग्य-अनैतिक

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को, उनकी सरकार द्वारा स्थापित और पोषित एक संस्थान बांग्ला अकादेमी द्वारा, उनके कविता संग्रह पर दिया गया पुरस्कार कई दृष्टियों से अनुचित हैं. निरी कविता लिखने से कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अन्यथा कितना ही बलशाली या समृद्ध क्यों न हो, महत्वपूर्ण कवि नहीं हो जाता है. हमारे तो दो प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी साधारण कोटि के कवि रहे हैं पर उन्हें साहित्य अकादेमी ने कोई पुरस्कार तो कभी नहीं दिया और न ही उन्होंने लिया. ऐसे पुरस्कार देना और लेना दोनों ही ग़लत हैं.

इन दिनों एक मूर्धन्य कलाकार सोमनाथ होर की जन्मशती चल रही है. 1991 में हम लोगों को भारत भवन से हटाने के बाद भाजपा सरकार ने उन्हें कालिदास सम्मान दिया था. पर उन्होंने उसे लेने से इनकार कर दिया था. बंगाल के ही एक और कलाकार शिशिर कुमार भादुड़ी ने पहले पद्मश्री लेने से इनकार कर दिया था. बंगाल की इस परम्परा को ममता बनर्जी को याद रखने की ज़रूरत है. ये तो योग्य लोगों द्वारा पुरस्कार न लेने के उदाहरण है.- ममता जी का मामला तो अयोग्यता और अनैतिकता दोनों का है. कई बांग्ला लेखकों ने विरोध-स्वरूप अपने पुरस्कार लौटा दिये हैं.