इम्तियाज अली

समाज | जन्मदिन

इम्तियाज अली: एक अनूठा निर्देशक जो सिनेमाई कविता के बहाने जीवन की कहानियां कहता है

कमर्शियल सिनेमा के निर्देशक होने के बावजूद इम्तियाज अली उस खाली जगह को अपनी फिल्मों से भरने की कोशिश करते दिखते हैं जहां एक फिल्मकार की जिद और दर्शकों की रुचि मिलकर दोस्ती कर लेती है

शुभम उपाध्याय | 16 जून 2020 | फोटो: स्क्रीनशॉट

इम्तियाज अली में एक जिद है, जो उनके चेहरे पर दिखाई नहीं देती. अपने मन की कहानी अपने मिजाज से कहने की जिद. भले ही उनकी फिल्में सुपरस्टारों से सुसज्जित और बड़े-बड़े धन्नासेठों से युक्त फिल्मी स्टूडियोज की चमक लिए होती हैं, लेकिन घनघोर दबावों में उस तरह टूटती नहीं जिस तरह ‘बॉम्बे वेलवेट’ टूटी थी. तमाम दबावों के बीच इम्तियाज अली किसी शांत-चित सूफी स्टोरीटेलर की तरह अपनी हर फिल्म में अपने मन का ही मनका फेरते हैं, और हर दफा साबित कर देते हैं कि वो उस रास्ते का रहस्य जानते हैं जहां पर एक फिल्मकार की जिद और दर्शकों की पसंद एक-दूसरे से मिलती है.

बावजूद अपने मिजाज की फिल्में बनाने की इस हठधर्मिता के, इम्तियाज अली का व्यक्तित्व जिद्दी होकर आत्ममुग्धता में सन चुके फिल्मकारों जैसा नहीं है. उनका बात करने का सहज-सुलझा अंदाज, उनकी शालीनता, दूसरों की बतकही को गंभीरता से सुनने की ईमानदारी और उनके चेहरे के हाव-भाव उन प्रगतिशील फिल्मकारों से बहुत अलग हैं जो चेहरे पर ही अपनी जिद का नक्शा चस्पा कर चलते हैं. उनके अंदर एक आग है जो जलती है, लेकिन सिर्फ सिनेमा के परदे पर ही दिखती है.

दिल्ली में कई साल पहले आयोजित हुए ओसियान फिल्म फेस्टिवल में नायाब फिल्में देखने के साथ ही सिनेप्रेमियों को प्रख्यात और उभरते निर्देशकों को वातानुकूलित बैठकों में सुनने का मौका भी मिला था. जैसा कि फिल्म फेस्टिवल में होता है, दर्शकों के साथ निर्देशकों के सवाल-जवाब हुए और कई बार माहौल गर्म भी हुआ. सिनेमा से प्यार करने वालों के लिए ये बैठकें यादगार रहीं क्योंकि अनुराग कश्यप से लेकर मणि कौल तक हर उपस्थित फिल्मकार विलक्षण था और हर एक के पास हिंदी सिनेमा की गहराई से पड़ताल करती आलोचनाएं और सिनेमा के प्रेम में डूबी यथार्थ कथाएं थीं.

इन स्थापित फिल्मकारों के बीच ही चुपचाप आकर सभी से घुलमिल गए शांत-चित और ‘हिट’ निर्देशक इम्तियाज अली भी थे, जो उन्हीं दिनों अपनी फिल्म ‘लव आज कल’ की सफलता में नहा कर वहां आए थे. उनकी उपस्थिति उस दिन खासतौर पर यादगार बनी जब बारी आने पर अली ने सवाल-जवाब की अपनी बैठक में स्थापित फिल्मकार का वो रूप दर्शकों की नजर किया जिसके दर्शक अभी तक आदी नहीं थे. उन्होंने दिखाया कि जब एक अच्छा निर्देशक एक अच्छा श्रोता, अच्छा लिसनर होता है तो वो कैसा होता है.

जहां हर फिल्मकार बस अपनी ही बात कहना चाहते थे और कभी-कभी खुद को सही साबित करने के लिए आत्ममुग्धता की चौखट पर अकड़ कर खड़े हो जाते थे, वहीं इम्तियाज एक ऐसे फिल्मकार के तौर पर सामने आए जो आमजन की बातों को बेहद दिलचस्पी लेकर सुनने को तैयार थे. अपने काम की आलोचनाओं को भी उन्होंने मुस्कुराकर उसी तरह स्वीकार किया जिस तरह अपनी नायिकाओं की तारीफ को. हमारे फिल्मकारों में यह गुण आपको कम ही मिलेगा. अपनी दुनिया में रहते-रहते, अपनी बात ही कहते-कहते, वो दूसरों का वह नजरिया जो उनके मिजाज का नहीं है, अकसर सुनना-समझना छोड़ देते हैं.

हरे-भरे इलाके में आयोजित उस फिल्म फेस्टिवल में इम्तियाज अली ने मासूम दर्शकों द्वारा पूछे सिनेमा से जुड़े उन सवालों के जवाब भी बेहद गंभीरता से दिए जिनके बचकाने होने पर बाकी दर्शक हंसने लगते थे. कई बैठकों में खुद फिल्मकार भी ऐसे सवालों का मजाक उड़ा चुके थे लेकिन इम्तियाज अपनी फिल्मों के अलावा अपने व्यवहार से भी लोगों का दिल जीत रहे थे. कई दर्शकों ने इम्तियाज की फिल्ममेकिंग विधा की आलोचना की, उनकी कहानियों में नुक्स निकाले और सदैव प्रेम पर ही कहानी कहने को बतौर निर्देशक उनकी सबसे बड़ी कमी कहा. इम्तियाज ने हर सवाल का जवाब ईमानदारी से सोचकर दिया, कहीं भी हाजिरजवाबी का सहारा लेकर खुद को बचाने की कोशिश नहीं की और जब कहने वाले की बात में दम लगा तो खुद पर संदेह भी किया और दूसरों के संदेहों को नकारा भी नहीं. किसी फिल्म फेस्टिवल में पहली बार यह अलहदा अनुभव हुआ कि प्राइवेट बैठक में होने वाली बातें कोई फिल्मकार पब्लिक के साथ बैठकर कर रहा है, बिना किसी झिझक और अहंकार के. यूट्यूब पर ढूंढ़िए, आपको इम्तियाज के साथ ऐसी कई ‘क्यू एंड ए’ बैठकों का आनंद मिलेगा.

15 साल के अपने फिल्मी करियर में इम्तियाज अली अब तक आठ फिल्में बना चुके हैं जिनमें से चार ऐसी भी हैं जो न सिर्फ उनके सिनेमा में मील के चार पत्थर की तरह हैं बल्कि इन्हीं फिल्मों के सहारे आप उनका फिल्मी करियर परिभाषित करने की कोशिश भी कर सकते हैं. अगर सबसे मनोरंजक फिल्म होने का रुतबा ‘जब वी मेट’ के पास है तो इम्तियाज अली नाम के स्टोरीटेलर का शुद्ध-सच्चा रूप ‘सोचा न था’ में नजर आता है. प्रेम की प्रताड़ना का महाकाव्य ‘रॉकस्टार’ अगर उनकी सबसे पर्सनल फिल्म बन जाती है तो ‘हाईवे’ बिना शक इम्तियाज अली की अब तक की सबसे मेच्योर फिल्म होने का खिताब पाती है.

किसने सोचा था कि जब एक नौजवान निर्देशक तीन साल में बनकर तैयार हुई ‘सोचा न था’ लेकर दर्शकों के सम्मुख पहली बार 2005 में आएगा तब वो प्रेम-कहानी के जॉनर में नया मुहावरा गढ़ना चाह रहा होगा. महानगरीय प्रेम के आसपास रची-बसी इस कहानी की सतह पर वो सारे क्लीशे मौजूद थे जो बॉलीवुडीय प्रेम-कहानियों में हमेशा रहा करते हैं. गुनगुनाया जा सकने वाला मेलोडी आधारित गीत-संगीत, प्यार पर दो रईस परिवारों की टकराहट, मासूम सी नायिका, खिलंदड़ अंदाज का नायक, और बिछड़कर फिर मिलने वाली वही सदियों पुरानी प्रेम कहानी. लेकिन इस सबके बावजूद ‘सोचा न था’ अपने समय की सबसे अलग, फ्रेश और अनोखे अंदाज में कही प्रेम कथा बनी. न सिर्फ संवादों में अलग तरह का रियलिज्म था, किरदार रियलिस्टिक थे, बल्कि कहानी की ताजगी भी तपाक से दिल्ली से मुक्तेश्वर पहुंचने पर महसूस होने वाली हैरत के स्तर का एक नया अनुभव था!

इंसानी रिश्ते हमेशा से अली की फिल्मों की मुख्य थीम रहे हैं, लेकिन इसकी बुनियाद उनकी शुरुआती फिल्मों से काफी पहले पड़ चुकी थी. तब जब 22 साल के अली ने ‘पुरुषक्षेत्र’ नामक टॉक शो के 200 एपीसोड 1995 में जी टीवी के लिए निर्देशित किए थे. अपने जमाने में बोल्ड माने गए इस नॉन-फिक्शन शो में समाज के विभिन्न वर्गों से आए स्त्री और पुरुष अपने निजी जीवन पर चर्चा करते थे और एपीसोड्स की थीम एचआईवी से लेकर समलैंगिकता और स्त्री-पुरुष के आपसी रिश्तों तक की गहरे उतरकर पड़ताल करती थी. आदमी और औरत के बीच के संबंधों को समझने की जो ललक बाद में इम्तियाज की फिल्मों में हमेशा नजर आती है, यह टॉक शो उसी जिज्ञासा का शुरुआती उदाहरण था.

फिल्में बनाने की शुरुआत करने के नौ साल बाद इम्तियाज ने ‘रॉकस्टार’ बनाई और इसी फिल्म के बाद उनका प्रेम-आधारित और सफर-आधारित सिनेमा हमेशा के लिए बदला. अब इम्तियाज भले ही इश्क पर ही फिल्में बनाते हैं लेकिन उनकी फिल्में जिंदगी पर कविता ज्यादा उम्दा कहती हैं. ‘रॉकस्टार’ के मुख्य किरदार जार्डन की पीड़ादायक जीवन-यात्रा हो या फिर ‘हाईवे’ में उलझी जिंदगियां जी रहे महावीर व वीरा, या ‘तमाशा’ में कॉर्पोरेट स्लेवरी और प्यार के बीच में फंसा वेद, उनके सभी मुख्य किरदार जीवन की त्रासदियों की कथा कहने में कुछ ज्यादा ही माहिर हो चले हैं. यह एक ऐसा सिनेमा है जो इश्क और सफर की टेक लेकर अब जीवन-दर्शन को दर्शाने लगा है और प्रेम तो बस एक अंतरा है, असल में इम्तियाज का सिनेमा अब जिंदगी का गीत गाने लगा है.

जमशेदपुर में पैदा हुए इम्तियाज की परवरिश शायरी और क्रांति की बातों के बीच हुई. नाना कम्युनिस्ट थे और घर में कव्वाली और शायरी का माहौल था. हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी का साहित्य खूब पढ़ा जाता था और बात-बेबात उम्दा शायरों के शेर भी सुनाए जाते थे. बचपन से मिले साहित्य और शायरी का यह साथ इम्तियाज की बाद वाली फिल्मों में धीरे-धीरे ही सही दिखने भी लगा. अगर ‘सोचा न था’ और ‘जब वी मेट’ खुद को बतौर कमर्शियल निर्देशक सफल बनाने और इंडस्ट्री में अपनी जगह तलाशने की कोशिशें थीं तो ‘लव आज कल’, ‘रॉकस्टार’, ‘हाईवे’ और ‘तमाशा’ खुद के अंदर के उस स्टोरीटेलर को मुख्यधारा में लाने की जिद जो साहित्य को भी उतना ही सम्मान देता है जितना लोक गीतों और गजलों-नज्मों को.

अली उर्दू शायरी और सूफी कल्चर पर भी घंटों बात कर सकते हैं. यह अपनत्व उनकी फिल्मों में भी दिखता है और बैठकों-साक्षात्कारों में भी मीर तकी मीर से लेकर फैज अहमद फैज तक का प्रभाव उनपर साफ झलकता है. आज जब लोग अपने व्यावसायिक फायदों के लिए फैज की किसी पुरानी नज्म पर नया संगीत चढ़ाकर खुद को कूल (शॉपिंग वेबसाइट जबॉन्ग का नया विज्ञापन) दिखाना चाहते हैं, इम्तियाज की फिल्में उसी सेंसेबिलिटी के आसपास नयी गीत-रचना में विश्वास रखती हैं. इसके लिए उनके पास इरशाद कामिल होते हैं, जो प्रेम गीत भी इन्हीं शायरों की परंपरा के लिखते हैं और हक की बात करने वाले जोशीले गीत लिखते वक्त भी फैज की नज्मों के स्तर का ध्यान रखते हैं.

इरशाद कामिल और इम्तियाज अली की साझा यात्रा राजकपूर-शैलेंद्र की निर्देशक-गीतकार वाली अनोखी जोड़ी की भी याद दिलाती है. आज के समय में कम ही निर्देशक और गीतकार ऐसे हैं जो इतने एक-से हैं कि संगीत रचते वक्त एक-दूसरे के पूरक हो जाते हैं. यह बात तब ज्यादा बेहतर समझ आती है जब आप उन फिल्मों का संगीत सुनते हैं जिसमें गीत लेखन तो इरशाद कामिल करते हैं लेकिन निर्देशक इम्तियाज अली नहीं होते. वह जीवन-दर्शन जो इम्तियाज की फिल्मों में इरशाद लिख पाते हैं, बाकी फिल्मों के संगीत में वह खाली जगह इरशाद चाहकर भी नहीं भर पाते.

आज अपना जन्मदिन मना रहे इम्तियाज अली शायद इसीलिए हिंदी फिल्मों के लिए इतने जरूरी हैं. वे कमर्शियल सिनेमा के निर्देशक होने के बावजूद उस खाली जगह को अपनी फिल्मों से भरने की कोशिश करते नजर आते हैं, जिसे कई दशकों से हिंदी फिल्मों का कोई भी निर्देशक भर नहीं पाया है. वह जगह जहां एक फिल्मकार की जिद और दर्शकों की रुचि मिलकर दोस्ती कर लेती है. वैसे भी, प्रेम पर सिनेमाई कविता कहने के बहाने जीवन पर सच्ची कविताएं कहने वाला अनूठा निर्देशक आखिर किस समाज को नहीं चाहिए होता है?

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