- सत्याग्रह/Satyagrah - https://www.satyagrah.com -

नेहरू अगर बड़े हो सके तो इसलिए भी कि वे अपने गुरु से अपनी असहमति बेझिझक और निरंतर व्यक्त कर सके

‘भारत वही होगा जो हम हैं. हमारे विचार और कार्य ही उसे आकार देंगे…हम उसके बच्चे हैं, आज के भारत के नन्हें टुकड़े, लेकिन हम कल के भारत के जनक भी हैं. अगर हम बड़े हैं तो भारत भी बड़ा होगा, अगर हम क्षुद्र मस्तिष्क और संकीर्ण नज़रिए वाले हुए तो भारत भी वैसा ही होगा. अतीत में हमारी परेशानियों की वजह यही संकरी निगाह और तुच्छ कार्य रहे, जो भारत की महान सांस्कृतिक विरासत से इतना बेमेल था.’

जवाहरलाल नेहरू आज़ादी मिलने के साल भर बाद स्वतंत्रता दिवस पर भारत के अपने लोगों को याद दिला रहे थे कि भारतीय होने का अर्थ अगर कुछ हो सकता है तो वह है क्षुद्रता, संकीर्णता और फूहड़पन से संघर्ष. इसी के आस पास भारत की औद्योगिक नीति के बारे में बात करते हुए उन्होंने समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता की ओर इशारा किया और कहा कि अब यह फूहड़पन की हद तक बढ़ गई है.

आर्थिक या सामाजिक गैर बराबरी इसलिए बुरी है कि वह फूहड़ है, यह अब हम शायद ही किसी को कहते हुए सुनें. लेकिन नेहरू के लिए किसी भी नीति या क्रिया की कसौटी यही थी कि क्या वह हमारे अपने संकीर्ण स्वार्थ से प्रेरित है या वह किसी अधिक बड़े उद्देश्य को हासिल करने में कारगर है. क्या वह हमें जाती ज़िंदगी में और सामाजिक रूप से भी उदात्त के निकट ले जाती है या अपने ही छोटे दायरे में और भी अधिक कैद कर देती है?

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने, जो गांधी के निकटस्थ मित्रों में थे और एक समय उनके उत्तराधिकारी माने जाते थे और अपने समय के सबसे कुशाग्र मेधा के धनी भी, नेहरू की मृत्यु के बाद कहा कि हमारे बीच का आख़िरी सभ्य व्यक्ति नहीं रहा.

सभ्य और सुसंस्कृत बनना हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, कि आर्थिक सम्पन्नता और शक्ति और उसके लिए दो शर्तें हैं : निर्भय होना और साधन और साध्य में एकता रखना. गांधी की याद अगर नेहरू अपने देशवासियों को बार-बार दिलाते थे तो मुख्यतः इसीलिए कि उन्होंने निर्भयता और साधन और साध्य की एकता की अनिवार्यता का मंत्र अपने देशवासियों, बल्कि पूरे विश्व को दिया था.

निर्भयता के बिना महानता संभव नहीं. इस निर्भयता का अर्थ यह है कि हम अपने निर्णयों और कार्यों की जिम्मेदारी लेने से न कतराएं. स्वाधीनता आन्दोलन की विशेषता यही थी और गांधी ने यही सिखाया था कि तुम्हारे किसी भी कार्य में गोपनीयता और षड्यंत्र की बू नहीं आनी चाहिए. इसीलिए वे अपने हर अभियान का नोटिस उसे भी देते थे जिसके विरुद्ध वह शुरू किया जाने वाला था. चंपारण में निलहे साहबों को, अंग्रेज़ सरकार के हर महकमे को उन्होंने बताया कि वे क्या करने जा रहे हैं. सशस्त्र क्रांतिकारियों की वीरता में कोई संदेह न था, लेकिन वह गोपनीयता और षड्यंत्र के बिना संभव न थी.

नेहरू गांधी के शिष्य की तरह ही निष्कवच और उत्तरदायित्वपूर्ण निर्भयता के हामी थे. इसलिए उनमें से किसी ने वे जो कर रहे थे, उसके परिणाम से, जो कि प्रायः दीर्घ कारावास था और वह भी उसका सिलसिला, बचने की कोई कोशिश न की.

नेहरू जैसा व्यक्तित्व अकेलेपन में भी समझा जा सकता है, लेकिन ऐसी शख्सियत शायद अपने जैसी ही और शख्सियतों के संसर्ग के बिना बन नहीं सकती. और नेहरू का वक्त कितना निराला और भव्य है: तिलक और गोखले से लेकर, जिन्हें गांधी ने हिमालय और प्रशांत सागर की उपमा दी, गांधी, वल्लभ भाई पटेल, सरोजिनी नायडू, मौलाना आज़ाद, अली बंधु, सुभाषचंद्र बोस, अम्बेडकर या राजगोपालाचारी इनमें से कुछ नाम हैं. आप रवीन्द्रनाथ टैगोर और इकबाल को न भूलें या प्रेमचंद, भारती, निराला और प्रसाद जैसे नामों को भी. यह महानता का युग था और इनमें से हर कोई एक दूसरे से रौशन भी हो रहा था. हर कोई दूसरे की कीमत जानता था और इस तरह उसकी अपरिहार्यता भी.

नेहरू अगर बड़े हो सके तो इसका कारण यह भी है कि वे अपने गुरु से अपनी असहमति बिना झिझक और भय के निरंतर व्यक्त कर सके. उन्होंने स्पष्ट ढंग से गांधी को एकाधिक बार कहा कि वे ज़मींदारों के प्रति उनकी सहानुभूति को नहीं समझ पाते और भारतीय गांवों के प्रति उनके अतिरिक्त मोह को भी नहीं.

उसी तरह धर्म के मामलों में गांधी से नाइत्तफाकी नेहरू ने कई बार जाहिर की. इनमें से एक प्रसंग दिलचस्प है. गांधी हिंदू धर्मावलंबियों को उदारता और सहिष्णुता की याद दिला रहे थे, जो उनके मुताबिक़ हिंदू धर्म की आतंरिक विशेषता थी. इनमें सबसे कठिन जीव वे थे जो खुद को सनातनी मानते थे. 1933 के एक ख़त में गांधी ने लिखा कि सनातनियों से उनका संघर्ष अधिक से अधिक दिलचस्प और कठिन होता जाता है. गांधी की समझ थी कि उनकी सफलता यह है कि ये सनातनी अपनी दीर्घ निद्रा और आलस्य से जाग रहे हैं. उनका विश्वास था कि अभी भले ही वे गांधी को गालियां दे रहे हों, लेकिन उनके अहिंसा के लेप से यह तूफ़ान शांत हो जाएगा…लेकिन ‘मैं जितना ही गालियों को नज़रअंदाज करता जाता हूं, वे उग्र होती जाती हैं. लेकिन यह शमा के इर्ग गिर्द नाचने वाले फतिंगों का मृत्यु नृत्य ही है.’

नेहरू गांधी के सनातनियों से इस संघर्ष में उनके इस विश्वास से सहमत न थे. उन्होंने ‘हरिजन’ का अंक मिलने के बाद एक पत्र में उन्हें लिखा, ‘मुझे बेचारे सनातनियों पर दया आती है. उनके क्रोध, गालियों और उग्र शाप को देखते हुए मुझे लगता है कि वे इस सूक्ष्म आक्रमण के योग्य नहीं. मूर्खता, कट्टरता और विशेषाधिकार की ताकत हैरतअंगेज़ है. इस मेल को महात्मा और संत भी नहीं उलट सकते जब तक कि हालात इसके लिए ज़मीन तैयार न कर दें.’

नेहरू ने लिखा कि ‘हरिजन’ एक भी कट्टर सनातनी का हृदय परिवर्तन न कर पाएगा लेकिन जिन अनेकानेक लोगों ने सामाजिक बुराइयों की ओर से आंखें मूंद रखी हैं, उनपर यह ज़रूर कुछ असर डाल सकेगा.

नेहरू का यह पत्र उस दौर के नेताओं में परस्पर आलोचना की संस्कृति का अच्छा उदाहरण है. इसका कि आपको विश्वास है कि आपकी आलोचना सुनी जाएगी, इसलिए इसमें कटुता नहीं, सद्भाव की सुगंध है. इस पत्र में आखिर में वे उस लिफ़ाफ़े पर टिप्पणी करते हैं जिसमें पत्र भेजा गया था: ‘आपका पत्र लिफ़ाफ़े के नाम पर जिस चीज़ में लपेट कर भेजा गया, उसपर मुझे ऐतराज करना ही होगा. अगर वल्लभभाई इसके लिए जिम्मेदार हैं, तो उनके प्रति अपनी सारी मुहब्बत के बावजूद मुझे कहना होगा कि लिफाफा बनाना उनके बस का नहीं.’

आगे वे लिखते हैं और यह दिलचस्प है, ‘मेरे इस सतहीपन के लिए माफ़ करेंगे. लेकिन मुझे अपने हीरे तराशे हुए और चिकने अच्छे लगते हैं. आपने हमें जिंदगी को शानदार तरीके से जीने की कला और शैली सिखाई है. वही असल बात है, लेकिन हम जीवन की छोटी छोटी चीज़ों में अंदाज और कलात्मकता को क्यों नज़रअंदाज करें? हममें से ज़्यादातर लोग हिममंडित ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच सकते. क्या आप हमें घाटियों के फूलों से भी वंचित रखेंगे?’

नेहरू की ज़िंदगी घाटियों के फूलों की खुशबू और हिमाच्छादित ऊंचाइयों की पुकार का जवाब थी. अपने मित्र गुरु की तरह ही, अधूरी, लेकिन ईमानदार.