जिद्दू कृष्णमूर्ति

समाज | जन्मदिन

जिद्दू कृष्णमूर्ति क्यों मानते थे कि राष्ट्रवाद और धर्म मनुष्यता के लिए खतरा हैं?

राष्ट्रवाद या संगठित धर्म जैसे विषय ही नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर भी जिद्दू कृष्णमूर्ति के विचार उन्हें बीती सदी का सबसे महान दार्शनिक बनाते हैं

अनुराग भारद्वाज | 11 मई 2021

अंग्रेजी के मशहूर साहित्यकार टीएस इलियट ने भारतीय दार्शनिकों के बारे में कहा था, ‘महान भारतीय दार्शनिकों के सामने पश्चिम के दार्शनिक किसी स्कूल के बच्चों की मानिंद नज़र आते हैं.’ यह बात अगर बीती सदी पर लागू करें तो जिद्दू कृष्णमूर्ति बिलकुल इसी कड़ी का हिस्सा लगते हैं. हां, यह अलग बात है कि वे ‘राष्ट्रीय पहचान’ को नकारते थे! कृष्णमूर्ति ने जिस तरह स्थापित परंपराओं को किनारे कर लोगों को आत्मसाक्षात्कार की तरफ प्रेरित करने का काम किया था, वह उन्हें बीती सदी का दुनिया का सबसे बड़ा दार्शनिक भी बनाता है.

अलहदा बचपन

जिद्दू का जन्म तमिलनाडु के एक गरीब ब्राह्मण परिवार में 1895 में हुआ था. इनके पिता का नाम था जिद्दू नारायणिया. माता-पिता की आठवीं संतान होने के नाते कृष्ण की तर्ज पर इनका नाम कृष्णमूर्ति रखा गया. जिद्दू नारायणिया थियोसॉफ़िकल सोसाइटी से जुड़े हुए थे. उस दौर में यह एक ऐसा संगठन था जिसकी सबसे बड़ी मान्यता थी कि दुनिया में जल्द ही एक विश्वगुरू आने वाला है.

इस धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन के एक शीर्ष पदाधिकारी चार्ल्स वेब्सटर लीडबीटर ने ही भविष्य के उस धर्मगुरू की छवि कृष्णमूर्ति में देखी थी. यह 1909 की बात है जब लीडबीटर तत्कालीन मद्रास के अड्यार तट पर टहल रहे थे और उन्हें मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए, अपने में ही गुम एक 13 वर्षीय कृशकाय बालक दिखा. किशोरवय में कदम रख चुके कृष्णमूर्ति में लीडबीटर को कुछ ऐसा अनोखा भी दिखा जिसे वे अब तक खोजते रहे थे. कुल मिलाकर लीडबीटर ने कृष्णमूर्ति को पाकर समझ लिया था कि उनके संगठन की तलाश पूरी हो चुकी है. इसके बाद वे इस किशोर को संगठन में ले आए और फिर एक तरह से कृष्णमूर्ति थियोसॉफिकल सोसायटी का केंद्र बन गए.

बाद में इस संगठन की सर्वेसर्वा मिस एनी बेसेंट ने जिद्दू को शिक्षा-दीक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया. यहां से 1921 में जब वे लौटकर आए तो उन्हें बेसेंट ने ‘विश्व गुरू’ घोषित कर दिया.

लेकिन कृष्णमूर्ति ‘गुरु-शिष्य’ परंपरा के पूरी तरह खिलाफ थे

लेकिन जिद्दू कृष्णमूर्ति ने बतौर दार्शनिक खुद की खोज में सबसे पहले गुरुवाद पर ही चोट की. 1929 में उन्होंने थियोसॉफ़िकल सोसाइटी द्वारा उन्हें दिया गया ‘आर्डर ऑफ़ दी ईस्ट’ का ख़िताब लौटाकर उस संस्था से संबंध तोड़ लिया था. इसके साथ ही उन्होंने घोषणा कर दी कि न तो वे कोई विश्व गुरु हैं और न ही उनका कोई अनुयायी है. गुरुवाद को लेकर उनका मानना था कि गुरु एक सत्ता होती है और किसी भी प्रकार की सत्ता का अनुयायी कभी-भी अपने चेतन-अचेतन को उसके वास्तविक स्वरूप में नहीं समझ सकता.

सत्ता के दूसरे महीन स्वरूपों का जिक्र करते हुए जिद्दू का मानना था, ‘किसी भी धर्म, दर्शन-विचार या सम्प्रदाय के मार्ग पर चलकर सत्य को हासिल नहीं किया सकता.’ उन्होंने सत्य को ‘मार्ग रहित भूमि’ मानते हुए कहा, ‘सत्य की खोज में मनुष्य का सभी बंधनों से मुक्त होना ज़रूरी है.’

राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद अज्ञानता की निशानी है

जिद्दू ने तकरीबन हर आम और ख़ास मसलों पर राय दी है. उन्होंने एक परिचर्चा में उपस्थित लोगों से पूछा था, ‘राष्ट्रीयता के जाने पर क्या आता है?’ जैसा कि उनकी परिचर्चा में होता था, जिद्दू ने खुद अपने सवाल का जवाब कुछ यूं दिया, ‘राष्ट्रीयता के जाने पर बुद्धिमत्ता आती है. लोग एक धर्म त्यागकर दूसरा अपना लेते हैं, एक राजनैतिक पार्टी छोड़कर दूसरी पकड़ लेते हैं, यह सतत बदलाव उस अवस्था को दर्शाता है जिसमें बुद्धिमता नहीं है.’

जिद्दू का मानना था कि राष्ट्रीयता-राष्ट्रवाद के मायने और निहितार्थ जानकर, इसकी बाह्य और आंतरिक महत्ता समझकर ही इससे छुटकारा पाया जा सकता है. उनके मुताबिक़ बाह्य मायनों से टकराव पैदा होता है जिससे समाज विभाजन की ओर बढ़ता है. दूसरी तरफ अंदरूनी मायनों में राष्ट्रवाद मानसिक तौर पर स्वयं, यानी व्यक्ति के अहंकार को बढ़ावा देता है.

जिद्दू उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि अगर कोई व्यक्ति किसी छोटे गांव या बड़े शहर में रहता है तो उसकी कोई पहचान नहीं है. पर अगर वह ख़ुद को एक बड़े समूह या देश, या स्वयं को हिंदू कहता है तो इससे उसका अहम् संतुष्ट होता है और उसमें एक सुरक्षा का बोध आता है, लेकिन सुरक्षा का यह बोध अंतत: भ्रम है. तो राष्ट्रवाद एक ओर कलह और टकराव को जन्म देता है, दूसरी ओर वही राष्ट्रवाद लोगों में भ्रम पैदा करता है. लेकिन जब कोई इसके पूरे मायने समझ लेता है तो राष्ट्रवाद ख़त्म होने लगता है.

ईश्वर के अस्तित्व पर जिद्दू क्या कहते थे

जिद्दू कृष्णमूर्ति मानते थे कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया, बल्कि ईश्वर का जन्मदाता तो खुद मनुष्य है. मनुष्य ने ईश्वर का आविष्कार अपने फ़ायदे के लिए किया है. ईश्वर उन्हें एक विचार से ज़्यादा कुछ नज़र नहीं आया जो देश, काल और समय के साथ बदलता है. यानी, मनुष्य की जैसी अवधारणा है, उसका भगवान वैसा ही है. इसीलिए हर मज़हब का भगवान अलग है. कृष्णमूर्ति के मुताबिक अगर ईश्वर है भी तो उसके होने से किसी समस्या का हल नहीं हो सकता.

कृष्णमूर्ति की सेक्स के विषय में भी अपनी एक सुलझी हुई राय थी. उनका कहना था कि सेक्स करना कोई समस्या नहीं है, लेकिन उसके बारे में हरदम सोचते रहना एक समस्या है जिससे ज्यादातर लोग पीड़ित हैं. उनके मुताबिक सेक्स की क्रिया यानी संभोग कुछ पलों के लिए ही सही लेकिन इंसान के अहम को पूरी तरह गायब कर देती है. इस तरह वह इन पलों में खुद को और अपनी तमाम समस्याओं को भुला देता है और फिर बार-बार यह स्थिति पाने की कोशिश करता है. यहीं से सेक्स एक समस्या बन जाती है.

जिद्दू सेक्स को लेकर इस प्रबल आकर्षण के पीछे लोगों के अकेलेपन को जिम्मेदार ठहराते हैं. यहां अकेलेपन का मतलब यह नहीं है कि कोई इंसान अकेला रह रहा है. अकेलापन यानी किसी इंसान का इतना स्वकेंद्रित हो जाना कि वह हर किसी से अपना फायदा निकालने के बारे में ही सोचे और समाज के साथ अपने सहज और सच्चे संबंध कायम न रख पाए. उनका मानना था कि जब तक लोग इस अकेलेपन के कारणों को नहीं समझेंगे उनके लिए सेक्स का अतिविचार एक समस्या बनी रहेगी.

जिद्दू के दर्शन का सार

बीती सदी के जो भी महान लोग जिद्दू कृष्णमूर्ति के समकालीन रहे, जैसे जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, हेनरी मिलर, एल्डस हक्सले (सभी साहित्यकार) या डेविड बोम (अलबर्ट आइंस्टीन के उत्तराधिकारी कहे जाने वाले वैज्ञानिक), ये सभी उनके करीबी दोस्त थे. इन लोगों के अलावा धर्म-अध्यात्म और मनोविज्ञान से लेकर चिकित्सा जगत तक के दिग्गज उनसे विचार-विमर्श के लिए आते रहते थे. इन सब लोगों के साथ उनकी जो भी बातचीत रही उसका सार निकालें तो वह यही बनता है कि बुनियादी इकाई के रूप में व्यक्ति ही पूरे समाज में आमूल-चूल परिवर्तन लाने का साधन है.

कृष्णमूर्ति कहा करते थे कि जब तक लोग संगठित धर्म और राष्ट्रीयता-राष्ट्रवाद जैसी विभाजनकारी ताक़तों को समझकर इनके प्रभाव से मुक्त नहीं होंगे, तब तक वे अपनी चेतना में बदलाव नहीं ला पाएंगे. और तब तक समाज भी नहीं बदलेगा.

इसके साथ ही जिद्दू के विचार आज के मठाधीशों और स्वघोषित गुरुओं के अस्तित्व को चुनौती भी देते हैं. अगर आज वैज्ञानिक युग में भी ऐसे ढोंगियों की फ़सल लहलहा रही है तो इसका कारण हम ही हैं. क्यूंकि न हम सत्य को जानते हैं, न ही जानना चाहते हैं और न ही लीक से हटकर उस ‘मार्गरहित ज़मीन’ को तलाशना चाहते हैं जिसकी बात जिद्दू करते थे. हमें स्वर्ग तो चाहिए पर उसके लिए मरना नहीं चाहते, ईश्वर तो ढूंढ़ते हैं पर किसी और की उंगली पकड़कर. हम नाव में बैठे हुए वो मुसाफ़िर हैं जो नाख़ुदा को ख़ुदा समझने की भूल करते हैं और जब नैया डोलती है तो ख़ुदा-ख़ुदा करते हैं.

ज़्यादा हो गया, जाने दीजिए. वो कहते हैं; ‘फ़लसफ़ी में बैठकर ख़ुदा मिलता नहीं, डोर सुलझाने चला है सिरा मिलता नहीं.’

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