समाज | कभी-कभार

मनुष्य की क्रूरता पाशविक क्रूरता से कहीं अधिक व्यापक और गहरी है

सब आंकड़े और अनुमान यही साबित करते हैं कि मनुष्य ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है और मनुष्य ही मनुष्य पर सबसे अधिक हिंसा करता है

अशोक वाजपेयी | 15 मई 2022

आर्मिनियाई जनसंहार

आज से 107 बरस पहले तुर्कियों ने पंद्रह लाख आर्मिनियाई नागरिकों का जनसंहार किया था. अभी तक कुल 34 देशों ने इसे स्वीकार किया है और, दुर्भाग्य से, भारत इन देशों की सूची में नहीं है. इस जनसंहार से संबंधित दस्तावेज़, प्रामाणिक वृत्तान्त, साहित्य आदि को सुमन केशरी और माने मर्क्तच्यान ने एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है. उसके लोकार्पण के अवसर मुझे याद आया कि मृतकों की संख्या तय करने, उनकी गणना करने में हमेशा चूक होती रही है. यह नयी बात नहीं है: महाभारत से लेकर सभी बड़े युद्धों में मृतकों की गणना को लेकर ऐसी चूक होती रही है. यह तब जब पहले के मुक़ाबले अब हमारे पास गणना के अधिक प्रभावी साधन मौजूद हैं. कोविड 19 के प्रकोप में कितने भारतीय मरे इसकी संख्या को लेकर विवाद है: सरकारी आंकड़े 4 लाख से कुछ अधिक की संख्या बताते हैं जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की गणना-पद्धति के अनुसार यह आंकड़ा 40 लाख के क़रीब होना चाहिये.

बीसवीं शताब्दी अनेक जनसंहारों की शताब्दी रही है: दूसरे महायुद्ध में कम से कम 60 लाख यहूदी मारे गये. स्टालिन के राज्य में इससे कहीं अधिक रूसियों और अन्य देशों के लोगों के मारे जाने का अनुमान है. चीन में माओ त्से तुंग की सांस्कृतिक क्रांति में कितने मारे गये इसका ठीक से पता नहीं. भारत के बंटवारे के समय कम से कम 15 लाख लोग मारे गये और 30 लाख शरणार्थी होने पर विवश हुए. अमरीकी आक्रमणों में कोरिया, वियेतनाम और ईराक में कितने मरे इसकी संख्या का पता नहीं.

ये सब आंकड़े और अनुमान यही साबित करते हैं कि मनुष्य ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है. मनुष्य ही मनुष्य पर सबसे अधिक हिंसा करता है. मनुष्य की क्रूरता पाशविक क्रूरता से कहीं अधिक व्यापक और गहरी है. वाल्टर बेन्यामिन ने ठीक कहा था कि सभ्यता का इतिहास बर्बरता का भी इतिहास है. सत्ताओं की झूठ में आलिप्ति और सच को छुपाने की कोशिशें बेहद व्यापक हैं और यह तानाशाही और लोकतांत्रिक व्यवस्था दोनों में समान हैं. हमारी एक और विडम्बना यह है कि हमारे पास सच जानने के अत्यन्त सक्षम साधन हैं पर उतने ही सक्षम साधन झूठ गढ़ने और फैलाने के भी हैं. तकनालजी का इस्तेमाल अगर भीषण जनसंहारों के लिए होता है तो सच को सिरे से ग़ायब कर देने के लिए भी.

जिस पुस्तक का जिक्र ऊपर हे उसमें कुछ आर्मेनियाई कविताएं भी अनुवाद में संकलित हैं. उनमें से कुछ अंश उस साक्ष्य के लिए देखिये जिसे वे पूरी मार्मिकता के साथ दर्ज़ करती हैं:

यहां देखो, पड़ी है हाथ की एक हड्डी
शरीर से विलग ख़ामोश
थोड़ी दूर पर पांव की हड्डी,
उससे कुछ दूर- दांत छितरे हुए
और उधर चट्टान की चोटी पर
भूल गया है कोई एक पुराना बन्दूक
(योग़िशे छारेंत्स)

तुम्हें नहीं मिलता है, न करुणा मनुष्य की और न ही रोटी
हे अनाथ, एक तिनका भी
है नहीं पक्षी की चोंच में
बूढ़े भूख से मर रहे हैं पल-दर-पल
-रक्त चबा रहा हूं मैं
(रूबेन सेवाक)

जांते से पिसे अन्न को लेकर
चला बैलगाड़ी पर बेचारा किसान
गाड़ी थी कि ताबूत था वह
आटा था जो बना क़फन
(कोमितास)

साहित्य परिक्रमा

इण्डिया आर्ट फ़ेयर के दौरान मुम्बई, चैन्नई, दिल्ली आदि के कुछ कला-संग्राहकों और कलाप्रेमियों का एक दल रज़ा फ़ाउण्डेशन आया रज़ा का अन्तिम स्टूडियो और रज़ा अभिलेखागार देखने जिसमें रज़ा ने चालीस हज़ार से अधिक पत्रकार, कैटलाग, तस्वीरें आदि व्यवस्थित ढंग से एकत्र हैं. रज़ा के क़िस्से और इस संग्रह के बारे में विशद जानकारी लेते हुए इस दल ने लगभग दो घण्टे बिताये. वे फ़ेयर देखकर लंच के बाद सीधे हमारे यहां पहुंचे थे. सभी इस पर एकमत थे कि भारत में किसी कलाकार का इतना बड़़ा और सुव्यवस्थित अभिलेखागार दूसरा नहीं है. इसी संग्रह से कुछ दस्तावेज़ किरण नाडार म्यूज़ियम द्वारा आयोजित बीकानेर हाउस में रज़ा प्रदर्शनी में दिखाये जा रहे हैं. जुलाई में रज़ा के कविता से संबंध को लेकर इसी संग्रह से एक चयन मुम्बई में दिखाया जाने वाला है.

मुझे यह ख़याल आता है कि हिंदी क्षेत्र में बहुत कम लेखकों की सामग्री व्यवस्थित रूप से संग्रहीत और एकत्र की गयी है. जिन मकानों में रहकर हमारे कई मूर्धन्यों ने महत्वपूर्ण साहित्य रचना की, उनमें से अधिकांश या तो ध्वस्त हो गये हैं या जिनकी कोई देखभाल करनेवाला कोई नहीं हैं हिंदी समाज में अपने बड़े लेखकों की भी कितनी क़द्र है यह उसका एक दुखद उदाहरण है. पर क्या साहित्य-समाज, जिसमें लेखकों और पाठकों के अलावा बड़ी संख्या में हिन्दी के अध्यापक हैं कुछ नहीं कर सकते?

मूर्धन्य लेखकों के घर-रहवास जिन शहरों में हैं उनमें स्थित विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों के हिंदी विभाग उनकी पहचान कर उनके संरक्षण के लिए कुछ प्रयत्न कर सकते हैं. कम से कम इस आशय की नामपट्टी लगायी जा सकती है कि अमुक लेखक का यह आवास था. ये विभाग उन लेखकों की निजी सामग्री का एक संग्रह अपने यहां बना सकते हैं. साल में एक बार ऐसा आयोजन किया जा सकता है जहां वह शहर, मुहल्ला और विभाग उस लेखक को सामूहिक रूप से याद करे. इस काम के लिए अच्छा वेतन पा रहे अध्यापकों को निजी स्रोतों से ही धनराशि एकत्र करना चाहिये, सरकार या किसी संस्थान का मुंह नहीं जोहना चाहिये. यह आत्मनिर्भर होने का एक तरीका है. कुछ शहरों में, जैसे बनारस, इलाहाबाद आदि, एकाधिक मूर्धन्य उनके सौभाग्य से वहां रहे होंगे. वहां विश्वविद्यालय और महाविद्यालय उन्हें आपस में बांट सकते हैं. अगर एकाध वर्ष में यह काम पूरा हो जाये तो फिर इन साहित्य-तीर्थों की लेखक-पाठक-अध्यापक-छात्र-शोधकर्ता आदि नियमित परिक्रमा आयोजित कर सकते हैं. चूंकि कुछ संवेदनशील अध्यापक वहां हैं, पहल बनारस और इलाहाबाद से होना चाहिये.

उन जगहों में प्रसाद गोष्ठी, निराला गोष्ठी, महादेवी गोष्ठी या रेणु गोष्ठी आदि हो सकती है जिसमें अभी लिखी जा रही रचनाओं, आलोचना आदि का पाठ और बहस हो ओर इस बहाने अपने एक बड़े पुरखे का नियमित स्मरण भी. ऐसी गोष्ठी में हर बार उस पुरखे की एक रचना का पाठ हो. ये तो कुछ झटपटिया सुझाव हैं. स्थानीय स्तर पर और भी बहुत सारे सुझाव होंगे जिन्हें विचार और अमल में ले सकना चाहिये.

जुमला पुछल्ला

दिल्ली की एक अदालत में प्रधानमंत्री के संदर्भ में एक अभियुक्त द्वारा ‘जुमले’ शब्द के इस्तेमाल को अपनी टिप्पणी में अनुपयुक्त ठहराया है. दैनिक इण्डियन एक्सप्रेस ने अपने एक संपादकीय में कहा है कि प्रधान मंत्री को किस शब्द से क्षोभ होता या नहीं होता है यह तय करना अदालत का काम नहीं है. याद आता है कि प्रधान मंत्री के 2014 के चुनाव में हरेक के खाते में 15 लाख रुपये आने के वायदे के बारे में पूछने पर उनके गृह मंत्री ही ने उसे ‘चुनावी जुमला’ कहा था. उसे लेकर प्रधानमंत्री नाराज़ हुए हों, यह किसी सार्वजनिक रिकार्ड में नहीं है.

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