असहमति

समाज | कभी-कभार

असहमति के विरुद्ध अब कई लोगों की सहमति है

इधर असहमति के विरुद्ध जो व्यापक माहौल बना है उसमें सत्ता के अलावा समाज के कई सक्रिय और प्रभावशाली हलके भी शामिल हैं

अशोक वाजपेयी | 28 मार्च 2021 | फोटो: सिनर्जी फाउंडेशन

सिकुड़ी जगह

किसी भी समय लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति की स्थिति कुछ नाजुक बनी रहती है. लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गयी सत्ताएं भी कई बार असहमति को लेकर असहज होती रही हैं. पर इस समय भारत में असहमति को दबाने, कुचलने और दंडित करने का जो अभियान सा चल रहा है, वह आपातकाल को छोड़कर, भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में अभूतपूर्व है. आपातकाल में असहमतों पर ज़्यादतियों की गयी थीं पर अवधि थोड़ी ही थी. इधर असहमति के विरुद्ध जो व्यापक माहौल बना है उसमें सत्ता के अलावा समाज के कई सक्रिय और प्रभावशाली हलके, बाजा़र के कई खिलाड़ी, आवारा पूंजी के मालिक, मीडिया, धर्म आदि अनेक शक्तियां शामिल हो गयी हैं. असहमत होना इतना ख़तरनाक पहले कभी नहीं हुआ.

ताज़ा उदाहरण अशोक विश्वविद्यालय से दो प्रखर बुद्धिजीवियों राजनीतिशास्त्री प्रताप भानु मेहता और अर्थशास्त्री अरविन्द सुब्रमण्यम के इस्तीफ़े हैं. इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है कि इस विश्वविद्यालय के प्रशासन पर सत्ता से दबाव आया है क्योंकि दोनों ही अन्तरराष्ट्रीय ख्याति और प्रतिष्ठा के विद्वान वर्तमान सत्ता के मुखर, तर्क-तथ्य संगत आलोचक रहे हैं. संसार के अनेक बुद्धिजीवियों और विद्वानों ने इस घटना पर अपना गहरा क्षोभ बताया है. अशोक विश्वविद्यालय की जो फ़जीहत हुई है सो अलग. लेकिन जिस बेशर्मी से असहमति को लगभग असम्भव और हर हालत में अमान्य करने की मुहीम चल रही है, उस पर कोई असर इससे पड़ता नहीं दीखता है. इस सन्दर्भ में समय कठिन से कठिनतर होने के सभी लक्षण नज़र आ रहे हैं जिनमें सत्ता की अडियल ज़िद भी साफ़ है.

मीडिया के एक बड़े हिस्से में, जो वैसे ही गोद में पालतू होकर मुदित मन बैठा हुआ है, इस बढ़ती ज़्यादती के विरुद्ध कोई प्रभावशाली आवाज़ नहीं उठ रही है. भारत में स्वतंत्रता की स्थिति का आकलन करने वाले एक अमरीकी थिंक टैंक ने भारत को ‘अंशतः स्वतंत्र’ की श्रेणी में अनवत किया है. कल तक इसी अमरीका की दूसरी संस्थाओं से अपनी वैधता का प्रमाणपत्र पाकर नाचने वाले अब इस आकलन की वैधता को खारिज़ कर रहे हैं. सच तो यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अल्पसंख्यकों के साथ न्याय, आर्थिक विकास, सामाजिक समरसता आदि सभी क्षेत्रों में भारत का ग्राफ़ लगातार नीचे गिर रहा है.

सवाल यह है कि जो बुद्धि का खाते हैं, उसी से अपनी जीविका कमाते हैं, वे अपनी बौद्धिक और सर्जनात्मक स्वतंत्रता में कटौती को किस तरह ले रहे हैं. अगर इस मामले में मीडिया की भूमिका निन्दनीय  है तो बुद्धि जगत् की चुप्पी और उदासीनता कम निन्दनीय नहीं है.

एकवचन-बहुवचन

जीवन और व्याकरण में हर व्यक्ति एकवचन होता है. पर यह एकवचनता अपार बहुवचनात्मकता से घिरी होती है और अक्सर उससे पोषण पाती है. व्यक्ति और आत्म जिस समय, समाज और सचाई में रहते-विचरते, कुछ करते हैं वे सभी उसका अनिवार्य बहुवचन होते हैं. इस संबंध में संवाद, सामंजस्य, विवाद, द्वन्द्व, संघर्ष आदि होते रहते हैं. यह भी एक विडम्बना है कि कोई एकवचन इतना प्रबल या शक्तिशाली हो जाता है या अपने को वैसा समझने लगता है कि वह बहुवचन को रौंद डालने, उसे एकवचन में परिणत करने का प्रयत्न करता है: यह भी यदा-कदा होता है कि बहुवचन एकवचन को ध्वस्त कर देना चाहता है और उसे अपना अनुचर बनाना चाहता है. हममें से अधिकांश अपने जीवनकाल में दोनों प्रवृत्तियों को उभरते, सक्रिय होकर शिथिल पड़ते देख पाते हैं. एकवचन की तानाशाही या बहुवचन की तानाशाही सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक रूपों में अहितकर होती हैं. सौभाग्य से, वे देर-सबेर ध्वस्त हो जाती हैं.

एकवचन-बहुवचन का सर्जनात्मक संवाद सबसे अधिक साहित्य में सम्भव होता है. यह याद करने की ज़रूरत है कि साहित्य लिखने का काम एकवचन याने कोई व्यक्ति ही करता है पर जिस भाषा में यह साहित्य रचा जाता है वह अपने मूल और प्रकृति दोनों में ही बहुवचन होती है. एकवचन इसलिए बिना बहुवचन के सृजन कर ही नहीं सकता. फिर, जो भी रचा जाता है वह बहुवचन का हिस्सा हो जाता है. आदर्श स्थिति वह होती है जब भाषा-समय-समाज सभी व्यक्ति को रचने की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं और व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारी पर, अपनी प्रतिभा-संवेदना-कल्पना और समझ से जो रचता है उसे अपना हिस्सा बनाते हुए भी बहुवचन एकवचन की इयत्ता और अद्वितीयता को क़ायम रखता है. इस आदर्श स्थिति से विचलन लगातार होते रहते हैं और आलोचना का एक काम इसकी चौकसी करना होता है. खुली बहस, वस्तुनिष्ठ आकलन और विवेचन, कृति को उसकी सामान्यता में घटाने के बजाय उसकी अद्वितीयता में देखने-समझने की कठिन पर ज़रूरी चेष्टा आदि वे तत्व हैं जो इस चौकसी का हिस्सा होते हैं.

लेखक और साहित्य की सामाजिक ज़िम्मेदारी हमारे समय का सबसे टिकाऊ क्‍लीशे है. अपनी समझ दूसरों पर थोपने की हरकत रोज़ ही दिखायी देती है. उसके आधार पर किसी कृति पर फैसला देने की अधीरता भी बारहा नज़र आती है. सच तो यह कि किसी कृति में एकवचन-बहुवचन का संबंध-संवाद-द्वन्द्व अनेक स्तरों पर होता और आकार पाता है जिन्हें समझने के लिए ज़िम्मेदारी निर्धारित करने के भोंथरे पड़ गये औज़ार किसी काम के नहीं होते. अगर फिर भी हम ज़्यादातर इन्हीं औज़ारों से काम लेते रहते हैं तो यह बौद्धिक आलस्य और अलस पड़ गयी बौद्धिक वफ़ादारी का ही साक्ष्य है. सामान्य पाठक की प्रतिक्रिया, कई बार, तथाकथित आलोचकों से (जो कि मूलतः मुखर पाठक ही होते हैं) अधिक सीधी, ईमानदार और किसी हद तक निश्छल होती है. वह बेहतर देख-समझ पाता है कि एकवचन और बहुवचन कैसे साथ और कैसे अलग हैं.

विचार की जीवनी

लेखक या जीवनीकार के रूप में मैंने सारा बेकवैल का नाम पहले नहीं सुना था. लगभग एक बरस बाद हाल ही में अरविन्द मार्केट में स्थित अपनी प्रिय पुस्तक की दूकान मिडलैण्‍ड जाने का सुयोग हुआ तो उनकी लिखी और विण्टेज़ द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘एट द एग्ज़िसटैंशलिस्ट कैफ़े’ की एक प्रति हाथ में लग गयी. इन दिनों पढ़ रहा हूं. यह अस्तित्वाद नामक विचार की एक बहुत पठनीय ढंग से लिखी गयी जीवनी है. उसके चरित्र हैं ज़्यां-पाल सार्त्र, सिमों द बुवा, आल्बेयर कामू, मार्टिन हाइडेगर, एडमण्ड हसेर्ल, कार्ल यास्पर्स आदि विचार-जगत् की अनेक हस्तियां. इस पुस्तक की विस्तृत चर्चा फिर कभी.

मुझे लगा कि दर्शन, विचार और साहित्य के बीच इतना गहरा साहचर्य, संवाद और द्वन्द्व हिन्दी में शायद ही कभी हुआ हो. हमारे साहित्य की वैचारिक क्षीणता और शिथिलता का शायद एक कारण यह अभाव है. लेकिन ऐसे कई केन्द्र रहे हैं जहां लम्बे और सघन विवाद और संवाद रहे हैं. इलाहाबाद, बनारस, पटना, भोपाल सहज ही, इस सिलसिले में, याद आते हैं. क्या ऐसे युवा लेखक हो सकते हैं जो इन शहरों की, उस काल विशेष को लेकर जब वे अपनी साहित्यिक कीर्ति और प्रासंगिकता के शिखर पर थे, जीवनी लिखें! जिस व्यापक स्मृतिक्षरण के समय में हम रह रहे हैं उसमें हमारी, साहित्य में क्या संघर्ष और विवाद-संवाद हुए, इसकी भी स्मृति नहीं रही है. अगर ऐसी जीवनियां लिखी जायें तो किसी हद तक स्मृति का पुनर्वास हो सकता है.

1950 से 1980 का इलाहाबाद याद करिये. उस दौरान हिन्दी के सबसे अधिक और कई पीढ़ियों के लेखक वहां थे. निराला, महादेवी, पन्‍त से लेकर फिराक, बच्‍चन, अज्ञेय, शमशेर, साही, धर्मवीर भारती, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, अमरकान्त, शेखर जोशी, भैरव प्रसाद गुप्त, अमृतराय, श्रीपत राय, उपेन्द्रनाथ अश्क, इलाचन्द्र जोशी. इलाहाबाद से इस दौरान ‘कहानी’, ‘हंस’, ‘प्रतीक’, ‘नयी कविता’, ‘निकष’, ‘क ख ग’, ‘उपन्यास’, ‘उर्दू साहित्य’, ‘शबखून’, ‘संकेत’, ‘सृजन’ आदि पत्रिकाएं निकलीं. ‘परिमल’ ओर ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ सक्रिय रहे. इप्‍टा का महाधिवेशन और साहित्यकार सम्मेलन आयोजित हुए. प्रयाग संगीत समिति शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में अपनी सक्रियता के लिए विख्यात थी. नये रंगमंच की सुगबुगाहट हुई. लगभग हर हिन्दी लेखक की आकांक्षा इलाहाबाद में अपना सिक्का जमाने की होती थी.

इसी तरह की गहमागहमी अन्य केन्द्रों में तभी या कुछ बाद में देखी-पहचानी जा सकती है. महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में मेरे आग्रह पर कवि नीलाभ ने हिन्दी साहित्य के मौखिक इतिहास योजना के अन्तर्गत कुछ शहरों के लेखकों से बातचीत कर वहां हुए विवादों का लेखा-जोखा तैयार किया था जो विश्वविद्यालय ने बाद में कई जिल्दों में पुस्तकाकार प्रकाशित किया था. उसमें बहुत सारी जानकारी और वक्तव्य आदि शामिल हैं. इस सबका उपयोग कर शहरों की साहित्यिक जीवनियां लिखी जा सकती हैं.

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