यही नहीं राष्ट्र का अर्थ अब तेज़ी से हिन्दू राष्ट्र होने लगा है और संविधान की शुरूआती प्रतिज्ञा ‘हम भारत के लोग’ अब 'हम भारत के हिन्दू लोग’ में बदल रही है
अशोक वाजपेयी | 04 अप्रैल 2021 | फोटो: स्क्रीनशॉट
अपदस्थ अर्थ
साहित्य का एक काम यह माना जाता रहा है कि उसमें कई शब्द या अवधारणाएं, भाव या उक्तियां अपने रूढ़ हो गये निश्चित अर्थों से अपदस्थ हो जाते हैं और उनका स्थान नये अर्थ और अभिप्राय ले लेते हैं. यह पहचान पाना और उसका आस्वाद लेना सबके बस का नहीं होता. उसके लिए सजग, संवेदनशील और भाषा के प्रति जागरूक रसिक-पाठक की दरकार होती है. कई बार मर्मस्पर्शी तीक्ष्ण आलोचना यह कर पाती है.
पर इधर साहित्य से अलग व्यापक सामाजिक जीवन में बहुत सारे शब्दों और अभिप्रायों के पारंपरिक या अब तक चले आ रहे लोकप्रिय अर्थ पूरी तरह से अपदस्थ हो गये हैं. अर्थ का यह क्षरण और अपदस्थता मुख्यतः सत्तामूलक राजनीति, अध्यात्मशून्य धर्म, मूल्यहीन बाज़ार और साहस-च्युत मीडिया की संयुक्त कार्रवाई से हुआ है. लोकतंत्र का अर्थ अब बहुसंख्यकवाद हो गया है जिसमें अल्पसंख्यकों की अपेक्षा और दमन शामिल है. आर्थिकी का अर्थ अर्थव्यवस्था न होकर कुछ चुने हुए पूंजीपतियों को और मालामाल करना है. जनहित का अर्थ कुछ चुने हुए लोगों और वर्गों का हित हो गया है. संसद का अर्थ वह मंच नहीं रह गया है जहां मुद्दों पर बहस होती हो. वह एक मंच है जहां बहुमत से कोई भी क़ानून बिना किसी बहस के पास कराया जा सकता है. न्यायालय का अर्थ वह संस्था नहीं रह गया है जो निर्भीक होकर वस्तुनिष्ठ ढंग से न्याय करती है बल्कि ऐसी संस्था जो सत्ता के अनुकूल आचरण को ही न्याय मानती-बरतती है.
राष्ट्र का अर्थ अब धीरे-धीरे नहीं ख़ासी तेज़ी से हिन्दू राष्ट्र होने लगा है. हिन्दुओं से अलग जो समुदाय इस राष्ट्र में होंगे वे हिन्दुओं की कृपा पर होंगे. संविधान की शुरूआती प्रतिज्ञा ‘हम भारत के लोग’ का अर्थ हम भारत के हिन्दू लोग होता जा रहा है. सार्वजनिक उद्यम का अर्थ बदलकर ऐसे उद्यम को गया है जिन्हें सरकार देर-सबेर किसी पूंजीपति को बेचने योग्य मानती है. मीडिया का अर्थ हो गया है वह व्यवस्था जो अपने बड़े हिस्से में सरकार का सूचना-तंत्र पर है और जहां सरकार पर प्रश्न उठाने की जगह ख़त्म कर दी गयी है. सच का अर्थ वह झूठ हो गया है जो मीडिया तेज़ी से, बिना किसी संकोच के, इतना फैलाने की जुगत हरदम करता रहता है कि सारे लोग उसे सच मानने लगते हैं.
आचार संहिता का अर्थ हो गया है ऐसी संहिता जिसका सत्ताधारी जमकर खुलेआम लगातार उल्लंघन करते रहते हैं और उनका बाल भी बांका नहीं होता. स्वयं राजनीति का अर्थ राज चलाने की नीति याने एक नैतिक आचार न होकर सब कुछ को राज द्वारा भकोसने का माध्यम भर हो गया है. समाज का अर्थ अब बाज़ार हो गया है जिसमें सब लोग बिकाऊ हैं और कुछ लोग ख़रीदार हैं. दलों में होड़ है कि बाज़ार को क्या सुविधाएं दी जा सकती हैं.
विशेषण
आधुनिक कविता की शुरूआत में उसके एक पुरोधा ने कवियों को सलाह दी थी कि वे विशेषण का उपयोग करने से परहेज करें. उसका तात्कालिक सन्दर्भ पहले की कविता थी जिसमें विशेषण से सुमघुर आलंकारिकता लायी जाती थी और जो नयी कविता के लिए त्याज्य मानी जा रही थी. कुछ ऐसी ही सलाह अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने तब दी थी जब वे विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप से अख़बारी रिपोर्ट भेज रहे थे और उन्हें संज्ञा और क्रिया से संपन्न सम्प्रेषणीयता अधिक स्पष्ट और मार्मिक लगती थी. यह कहा जा सकता है कि आधुनिकता के आरंभिक दौर से ही विशेषण संदेह के घेरे में आ गया. इधर न्यू लेफ़्ट रिव्यू में प्रकाशित एक निबन्ध में विशेषण की स्थिति पर दिलचस्प विचार किया गया है. विश्लेषण कर यह बताया गया है कि अनेक प्रसिद्ध उपन्यासकारों के कुछ प्रसंगों में विशेषण के इस्तेमाल ने उनके बखान को अधिक मार्मिक और सम्प्रेषणीय बनाया है. अगर विशेषण न होते तो वे बखान गंजे और अन्तर्ध्वनिहीन होते.
ऐसा माना जाता रहा है कि पश्चिम की भाषाएं जैसे अंग्रेज़ी, अल्पकथन की भाषाएं हैं जबकि भारतीय भाषाएं अतिकथन की. इसलिए हमारे यहां संज्ञा और क्रिया मात्र से काम नहीं चलता, विशेषण अनिवार्य है और उनके बिना कविता में कथन अकसर पूरा नहीं होता. इस पर विवाद की गुंजाइश है. फिर भी कुछ कविताएं ध्यान में आती हैं. राग धनाश्री में निबद्ध सूरदास के ‘भ्रमरगीतसार’ में एक पद यों शुरू होता है:
ऊधो! हम अति निपट अनाथ.
जैसे मधु तोरे की माखी, त्यों हम बिन ब्रजनाथ…
अपनी मनस्थिति का सही बखान गोपियां ‘अति निपट अनाथ’ के बिना कर ही नहीं सकतीं.
ग़ालिब का एक शेर है:
निकाला चाहता है काम क्या, तानों से तू ग़ालिब
तेरे बेमेह्र कहने से, वो तुझ पर मेहरबां क्यों हो
अब बेमेह्र विशेषण के इस्तेमाल के बिना शेर हो ही नहीं सकता.
और पास आयें, अज्ञेय के यहां. उनकी प्रसिद्ध कविता है ‘सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान’. उसके इस अंश में विशेषणों की झड़ी लगी है:
जो कली खिलेगी जहां, खिली,
जो फूल जहां है,
जो भी सुख
जिस भी डाली पर
हुआ पल्लवित, पुलकित,
मैं उसे वहीं पर
अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,
अर्पित करती हूं तुझे.
जो कास्मिक बिम्ब कवि रच रहा है वह उन छः विशेषणों के बिना सम्भव नहीं है और कविता का मर्म जितना संज्ञाओं में गुंथा है उतना ही विशेषणों में भी.
लालित्य
इधर साहित्य और कलाओं में लालित्य की बात कोई नहीं करता, अकसर तो वे भी नहीं जिनके साहित्य या कला में लालित्य है. लालित्य का संबंध प्रियता, लावण्य, सौंदर्य, आकर्षण, माधुर्य से होता है. प्रीति से भी. दण्डी ने पदलालित्य की चर्चा की है. ये सभी तत्व कमोबेश हर जीवन में होते-आते हैं. साहित्य चूंकि जीवन को ही भाषा में सहेजते और चरितार्थ करता है उसमें ये तत्व आते रहते हैं. कुछ लेखक उन्हें जतन और कौशल से, कल्पनाशीलता से संयोजित और विन्यस्त करते हैं, बाक़ी उन्हें, एक तरह से, अपने हाल पर छोड़ देते हैं.
हमारे समय में साहित्य में सौंदर्य की चर्चा नहीं होती, संघर्ष की होती है. यह मानने का कोई ठोस और सैद्धान्तिक आधार नहीं है कि हमारे पूर्वज कवि, जो लालित्य को अपने साहित्य में साधते थे, अपने जीवन या सृजनशीलता में कम संघर्षशील थे. सिवाय इसके कि संघर्षरत रहकर भी वे सौंदर्य की साधना करते थे. सही है कि धीरे-धीरे सभी सभ्यताओं में संघर्ष अधिक तीख़ा, व्यापक और गहरा होता गया है. लेकिन उतना ही सही यह भी है कि सौंदर्य मनुष्य का एक स्थायी सरोकार बना रहा है. अगर दोनों अभिप्रायों को हम जोड़कर देखें तो कह सकते हैं कि अज्ञेय के यहां दोनों के बीच उनकी कविता संयमित है जबकि शमशेर के यहां संघर्ष अकसर सौंदर्य को बचाने का है. मुक्तिबोध एक धु्रवानत पर हैं जहां संघर्ष सौंदर्य को पूरी तरह से अपदस्थ कर देता है. बाद के कवियों में, उदाहरण के लिए रघुवीर सहाय और श्रीकान्त वर्मा में संघर्ष और सौंदर्य समकक्षी सहचर हैं. रघुवीर सहाय लालित्य से होते हुए संघर्ष पर पहुँचते हैं और श्रीकान्त वर्मा संघर्ष में भी ललित को नहीं भूलते. जो भी हो, इन सभी में पदलालित्य देखा-पाया जा सकता है.
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