शायद हमने ऐसे झगड़ों में अपना समय और ऊर्जा ख़र्च की जो नासमझी और दम्भ से उपजे थे और सचाई से उनका अधिक संबंध नहीं था
अशोक वाजपेयी | 27 फरवरी 2022
गद्य कविता
इधर एक अमरीका-बसे भारतीय कवि ने 2021 में प्रकाशित कई अल्पज्ञात कवियों की एक सूची जारी की जिसमें उनमें से कुछ के अंग्रेज़ी अनुवाद में प्रकाशित पुस्तकों की सिफ़ारिश की गयी. कोविड-19 की तरह-तरह की बंदिशों के कारण लगभग तीन सालों से विदेश यात्रा संभव नहीं हुई है जिसके दौरान पहले मैं कविता की नयी पुस्तकें खोजता-खरीदता रहता था. सो इस बार इस सूची के दसेक कवियों की पुस्तकें अमेज़न से मंगायीं. कवि चिली, अर्जेंटीना, दक्षिण कोरिया, पेरू, चीन आदि देशों से हैं और उनमें से अधिकांश ने गद्यकविता लिखी है. थोड़े दिनों पहले पेंगुइन ने गद्यकविता का एक विश्व-संचयन प्रकाशित किया था जिससे शायद पहली बार व्यापक स्तर पर यह पहचाना गया था कि गद्यकविता की एक विश्व-बिरादरी है और उसका प्रयोग बड़े पैमाने पर विश्व की अधिकांश भाषाओं में होता और हो रहा है.
हिन्दी में गद्य कविता को कविता की एक प्रामाणिक विधा मानने में बड़ा संकोच है. सचाई तो यह है कि तथाकथित मुक्त छन्द की कविता का एक बड़ा हिस्सा गद्यकविता ही है, भले उसे सीधे लगातार वाक्यों में लिखने के बजाय तोड़-मरोड़कर पंक्तियों में लिख दिया गया हो. यों हमारे कई मान्य कवियों ने जब-तब गद्यकविता लिखी है, कुछ ऐसे भी हैं जो सिर्फ़ गद्यकविता लिखते हैं. गद्य की भी लय होती है और अच्छी कविता में उसे साफ़ पहचाना जा सकता है. इसलिए यह कहना अनुचित है कि गद्यकविता में लय नहीं होती जिसे अकसर कविता का सबसे परिभाषक तत्व माना जाता है. सच तो यह है कि आधुनिकता में साहित्य ने जो मुक्ति अर्जित की उसने अनेक पारंपरिक बन्धनों से उसे मुक्त किया, निर्भीक प्रयोगशीलता दी और बड़ी संख्या में नये रूप और विधियां विकसित कीं. गद्यकविता, बहुत हद तक, इनमें से एक है. अगर वह विश्वव्यापी है जैसा कि पर्याप्त साक्ष्य से प्रगट होता है तो उसे कविकौशल या छन्दक्षमता या धैर्य आदि के अभाव के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता. गद्यकविता लिखने के लिए अलग क़िस्म के, सतर्क और सावधान, कौशल और कल्पना की दरकार होती है. वहां इस सावधानी की ज़रूरत होती है कि अनावश्यक विस्तार न हो जाये और कविता की सघनता और उत्कटता बनी रहे.
आधुनिकता का एक और पक्ष इस मुक़ाम पर प्रासंगिक हो जाता है. कविता और गद्य के बीच आवाजाही इधर बढ़ती गयी है. अगर ऐसा गद्य होता है जो कविता जैसा लगता है तो ऐसी कविता भी होती है जो गद्य जैसी लगती है. दोनों ही प्रसंगों में एक विधा दूसरी विधा से अपनी दूरी कम करती या निकटता बढ़ाती है. कई बार कहा जाता है कि गद्य का स्वप्न कविता हो जाना है तो कविता का स्वप्न गद्य हो जाने से उजर क्यों?
बावजूद
प्रेम कुमार मणि द्वारा संपादित नयी पत्रिका ‘मगध’ में बहुत दिनों बाद आलोकधन्वा की नयी कविताएं पढ़ने को मिलीं. एक कविता का अन्त होता है इन पंक्तियों से: ‘हम से भूल कहां हुई/जो हम इस तरह हारे/इतनी ईमानदारी/इतने शौर्य/और इतनी गरिमा के बावजूद’. यह ऐसी चिन्ता है जो आज उनके सबके मन में है जिन्होंने एक समावेशी, समतामूलक, स्वतंत्र और न्यायसम्मत भारतीय समाज का सपना देखा था. आज समाज के बदले राज और बाज़ार, धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता से ग्रस्त, विषमता और बेरोज़गार की बढ़त में संलग्न धनबल-बाहुबल की राजनीति की चपेट में हैं. बहुत से पहले ऐसे थे जिन्होंने एक बेहतर समाज के लिए ईमानदारी-शौर्य-गरिमा के साथ निजी और सामाजिक स्तर पर संघर्ष किया था और आज भी जो हार के बावजूद सपना देखना बन्द नहीं कर रहे हैं. जिन्हें अब भी उम्मीद है, सारे प्रतिकूल साक्ष्य के बावजूद, कि यह सपना व्यर्थ नहीं हुआ है और उसके सच होने की संभावना इतिहास के कूड़ेदान में नहीं फेंकी गयी या जा सकती है. क्या यह स्वप्नशीलता एक आदत जैसी है जिससे छुटकारा नहीं मिल सकता या कि उसमें अब भी कुछ तात्विकता है जिसे नज़रन्दाज़ नहीं करना चाहिये?
जैसे और लोग वैसे ही मैं भी पिछले लगभग दो दशकों से उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच झूलता रहा हूं. अपनी कई भूलें याद आती हैं जैसे एक यही कि शायद हमने ऐसे झगड़ों में अपना समय और ऊर्जा ख़र्च की जो झगड़े नासमझी और हमारे दम्भ से उपजे थे और सचाई से उनका अधिक संबंध नहीं था. संघर्ष का भी दम्भ होता है, भले वह कई बार विनय की मुद्रा अपनाता है. हम दूसरों को जगह देने से इनकार करते हैं क्योंकि हम इस अतर्कित आत्मविश्वास में रहते हैं कि संघर्ष की ज़मीन तो हमारी है और उसमें कौन दाखि़ल हो हम तय करेंगे क्योंकि हमारे पास विचारधारा, संगठन आदि के उपकरण हैं. हमने दूसरों के संघर्ष की निजता को निरर्थक माना. कई बार लगता है कि हम इस खेल में लगे रहे कि हम तय करें कौन हमारे साथ है, किसका साथ हमें नहीं चाहिये या कौन हमारे बीच घुसपैठिया है. संघर्ष की गरिमा को संघर्ष की संकीर्णता से बारहा अतिक्रमित किया. अपने समाज की हमारी समझ कितनी नाकाफ़ी थी यह तो सब पूरी तरह से ज़ाहिर-साबित हो चुका है. साहित्य में जो समाज आता रहा उसका असली समाज से सादृश्य अब बेहद संदिग्ध हो चला है.
आज जो शक्तियां भारतीय समाज को प्रभावित-परिचालित कर रही हैं उन्हें धर्म और मीडिया, जातिवाद, बाज़ारवाद आदि का अपार समर्थन मिल रहा है. हिंसा-आक्रामकता आदि अब सामाजिक व्यवहार की लगभग वैध शैलियां बन चुकी हैं. साहित्य की आवाज़ भयानक शोर-गुल में खो गयी या पूरी तरह से अनसुनी होती लगती है. यह चिन्ता शायद काफ़ी नहीं है कि इस आवाज़ की, इसकी ईमानदारी-शौर्य-गरिमा की जगह होना चाहिये. उसके लिए कुछ निजी और सामूहिक प्रयत्न आवश्यक हैं और अनिवार्य है निर्मम आत्मालोचना. हम हार भले गये हों, थके नहीं हैं: साहित्य को इस अभागे समय में मनुष्य का सहचर, अपने को होम कर भी, बने रहना चाहिये. नाउम्मीदी की आज लिखी जा रही पूरी पोथी में उम्मीद की यह इबारत फिर भी होना चाहिये.
भीड़ नहीं भविष्य
नयी पत्रिका ‘मगध’ के प्रवेशांक में उसके संपादक प्रेम कुमार मणि के संक्षिप्त संपादकीय में ध्यान देने योग्य वैचारिक स्पष्टता है. उसमें कहा गया है ‘… साहित्य को विचार और राजनीति के कोष्ठक में समेटने की संभव कोशिशें हुई. इससे साहित्य का स्वाभाविक विकास तो कुंठित हुआ ही, विचार और राजनीति के क्षेत्र में भी निराशा ही प्रकट हुई. साहित्य अपने वास्तविक अर्थ में मनुष्य की गरिमा का परिचायक होता है. वह मनुष्य को आज़ाद करता है, मुक्त करता है. यहां एक ही साथ विचार, दर्शन, जीवन, इतिहास और राजनीति आदि मानवीय संवेदना के साथ अन्तर्गुम्फित होते हैं. साहित्य की स्वयात्तता और स्वतंत्रता का यही अर्थ होता है कि वह राजनीति और विचार का अनुगामी नहीं हो. साहित्य स्वयं में एक विचार है और दूसरे सभी विचारों में इसलिए अग्रणी है कि यहां संवेदना प्रभावी होती है. विचारों की एक सीमा हो सकती है. वह मनुष्य निरपेक्ष भी हो सकता. लेकिन साहित्य किसी भी स्थिति में मनुष्य निरपेक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि उसे संवेदना अथवा करुणा का संबल होता है. विचार के बिना साहित्य की संभावना हो सकती है, संवेदना के बिना नहीं. मनुष्य की संवेदना सभी विचारों की जननी भी है और उसका इष्ट भी.’
मणि जी आगे कहते हैं: ‘… हम सबने अनुभव किया है कि हमारे समय में मनुष्य जीवन में राजनीतिक हस्तक्षेप निरंतर गहराता जा रहा है. स्थिति यह है कि राजनीति तेज़ी से विचार-केन्द्रित की जगह धर्म-केन्द्रित होती जा रही है. संस्थागत धर्मों ने स्वयं को मनुष्य-सापेक्ष होने के बजाय लोगों को ही धर्म-सापेक्ष बनाने की संभव कोशिशें की हैं. मनुष्य धर्म के लिए है, लेकिन क्या धर्म भी मनुष्य के लिए है? ऐसा यक़ीनी तौर पर नहीं कह सकते. ऐसे में धर्म और राजनीति के बीच एक ऐसा गठजोड़ प्रकट हुआ है, जो मनुष्य और उसके समस्त सरोकारों के विरूद्ध मोर्चा बनाकर खड़ा है. ऐसे में मनुष्य को अलग-थलग और अकेला अनुभव कर रहा है. ज़ाहिर है कि साहित्य के अलावा आज कुछ भी मनुष्य के पक्ष में नहीं है. न ईश्वर, न धर्म, न राजनीति ही. मनुष्य आज सबसे बड़ा विचार है. हम अनुभव करते हैं कि इसका भविष्य केवल और केवल साहित्य के साथ ही संभव है.’
आज जब उदात्त हर जगह से अपदस्थ किया जा रहा है, साहित्य की उदात्त भूमिका का यह उद्घोष साहित्य से नयी मानवीय अपेक्षाएँं जगाने का भी आह्वान है.
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