भारत एक बहुवचन देश है और रहेगा जिसे एकात्म करने के राजनैतिक प्रयत्न अंत में विफल होने के लिए अभिशप्त हैं
अशोक वाजपेयी | 26 सितंबर 2021
संस्कृति विमर्श
इस समय संस्कृति के बारे में कुछ कहने से जो कुछ छवियां उभरती हैं, वे उसके नाम पर किये गये और किए जा रहे बड़े तमाशों और उनकी चकाचौंध की हैं. ये छवियां हर स्तर पर, कम से कम सत्ताओं में कुरुचि और मीडियोक्रिटी के अबाध विस्तार की है. इनसे एक क़िस्म की आक्रामक सामुदायिकता विकसित और सक्रिय हो गयी है और निजता का लगभग कोई मोल और पूछ नहीं रह गये हैं. जो दृश्य है, वह बेहद भौंडा-भदेस है और जो दृष्टि-सम्पन्न और अभिव्यक्ति के भूगोल का विस्तार कर रहा है, वह अदृश्य है. कुछ अनुष्ठान, कुछ तमाशे अब संस्कृति की पहचान बन रहे हैं. संस्कृति की गहराई और समावेशी निरंतरता का कोई बोध सक्रिय नहीं है, दृश्य मंचों पर.
ऐसे मुक़ाम पर यह याद करना ज़रूरी है कि भारत एक बड़ी सभ्यता है जो हज़ारों वर्षों से निरंतर सक्रिय-सजीव-परिवर्तन शील है. हम संसार की गिनी-चुनी सभ्यताओं में से एक हैं जिसमें धर्म, भाषा, भोजन, पहरावे, रिवाज़ों की अपार अदम्य बहुलता है और प्रायः कुछ भी भारत में एकवचन नहीं है. भारत एक बहुवचन देश है और रहेगा. उसे एकात्म करने के राजनैतिक प्रयत्न अंत में विफल होने के लिए अभिशप्त हैं. 4600 से अधिक समुदायों, 700 के लगभग भाषाओं और बोलियों, 8 धर्मों का देश बहुवचन ही हो सकता है और बहुवचन रहकर ही बच सकता है. बहुधार्मिकता का सम्मान कर, सर्वधर्मसमभाव से ही, उसका समाज समरस हो सकता है.
भारतीय संस्कृति में सृजन और कल्पना की ऊंची उड़ान है तो साथ-साथ विचार और आलोचना की भी जगह है. यह कोशिश करना चाहिये कि भारतीय सभ्यता के वैचारिक, प्रश्नवाचक, असहमत और मुक्तिदायी तत्वों की लगातार पहचान होती रहे जो लोकतंत्र को पुष्ट करते हैं. इस समझ को भी बढ़ावा मिलना चाहिये कि साहित्य और कलाएं भी ज्ञान देती हैं और उनसे विवेक भी मिलता है.
भारतीय सभ्यता और उसमें सक्रिय संस्कृतियां ज्ञान, विवेक, विचार, आलोचनात्मक चिंतन, कल्पनाशील रचनाओं, भाषा के बारे में चिंतन, अर्थ, यौनिकता, नाटक, संगीत, नृत्य, साहित्य, आध्यात्मिक मुक्ति, आचरण, नियति, दर्शन, तर्क, वादविवादों, असहमतियों, संवादों, रोज़मर्रा के जीवन के विवेक का एक अक्षय कोष हैं. उसमें जाति-प्रथा जैसे विकृत तत्व भी हैं जिन्हें खारिज किया जाना चाहिये. इस सभ्यता में स्त्रियों की भूमिका निर्णायक रही है और इधर उनमें सर्जनात्मकता और अधिकार-चेतना बढ़ी है जिसे ठोस प्रोत्साहन देना चाहिये.
इस समय लागू, हालांकि लगभग हर दिन संकटग्रस्त, भारतीय संविधान के बुनियादी मूल्यों स्वतंत्रता-समता-न्याय की बहुविध अभिव्यक्ति हो रही है. उसे बढ़ाने और सशक्त करने का सांस्कृतिक प्रयत्न आवश्यक है.
संरचना
अगर हम इधर हो रहे परिवर्तनों और अपेक्षाओं को ध्यान में रखें तो लगता है कि कई नये संस्थागत प्रयत्न किये जाने चाहिये. अपने अनुभव और जानकारी के आधार पर नीचे लिखे प्रयत्न प्रस्तावित हैं:
ग्राम पंचायतों को उनके क्षेत्र में आनेवाले असंरक्षित पुरातात्विक जगहों की देखभाल और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिये. इसके लिए उन्हें अनुदान, देखभाल की विधियों और सावधानियों की पुस्तिकाएं दी जानी चाहिए. अध्यापकों और छात्रों दोनों ही स्तरों पर हर स्कूल को स्थानीय कथाओं-गीतों-कहावतों-बोलियों-हस्तशिल्प, स्थानीय ज्ञान, स्मृतियों आदि के संग्रह के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करना चाहिये. हर स्कूल को हर वर्ष कम से कम एक बार मातृभाषा उत्सव मनाना चाहिये. महत्वपूर्ण दिवंगत साहित्यकारों, कलाकारों, अध्यापकों, बौद्धिकों, विद्वानों के आवासों को चिह्नित करना और स्थानीय समाज द्वारा उनकी देखभाल करने के लिए प्रेरित करना चाहिये.
केंद्रीय स्तर पर कुछ नये संग्रहालयों और संस्थानों की स्थापना होना चाहिये : भारतीय शास्त्रीय भाषा संस्थान, भारतीय धर्म अध्ययन संस्थान, भारतीय भाषाओं और साहित्य का राष्ट्रीय संग्रहालय, राष्ट्रीय भारतीय भाषा आयोग, राष्ट्रीय लेखक-कलाकार कल्याण कोष, विश्वविद्यालयों, आईआईटी में लेखकों, कलाकारों आदि के लिए सृजनपीठ, गुरु शिष्य परंपरा पुनर्जीवन का एक राष्ट्रीय उपक्रम, भक्ति काव्य पर केंद्रित सर्जनात्मक और बौद्धिक उत्सवों की अखिल भारतीय श्रृंखला, संग्रहालयों, अकादेमियों आदि में प्रोफ़ेशनल नियुक्त करने के लिए विशद प्रशिक्षण कार्यक्रम, राष्ट्रीय लोक आदिवासी-कला सर्वेक्षण, दुर्लभ कलाप्रकारों को जीवित रखने के लिए एक योजना, शास्त्रीय वाद्य-यंत्रों के निर्माण को प्रोत्साहन.
लोक और आदिवासी भाषाओं, साहित्य और कलाओं का प्रादेशिक सर्वेक्षण, साहित्य और भाषाओं के प्रादेशिक संग्रहालय भी सभी राज्यों में स्थापित किये जाने चाहिये.
नागरिक समुदाय
लोकतंत्र के जिस मुक़ाम पर हम हैं, उस पर सवाल बार-बार उठता है कि क्या भारत में सजग-सक्रिय नागरिकता है और वह अपने को किन रूपों में व्यक्त करती है. इस सवाल में यह भी जिज्ञासा होती है कि क्या हमारे यहां, लोकतंत्र के सत्तर बरसों बाद, सशक्त नागरिक समुदाय हैं जो प्रश्नवाचक हों. जवाब में यह कहा जा सकता है कि नागरिकता तो है पर उसमें चुनावों को छोड़कर, सामान्य समय में, कोई विशेष सजगता या सक्रियता नज़र नहीं आती. अगर वह जब-तब सत्ता, मीडिया, धर्मों, सार्वजनिक संस्थानों की नीतियों या कारनामों से उद्वेलित होती भी है तो उसकी अभिव्यक्ति के लिए मंच बहुत कम रह गये हैं: अभिव्यक्ति पर बंदिशें भर लगातार बढ़ रही हैं, बल्कि उसके अवसर भी घटते जा रहे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संकट में है पर विद्वानों, कलाकारों आदि के समुदाय इसे लेकर अधिकतर चुप रहे हैं. अकादेमिक प्रक्रियाओं, पाठ्यक्रम आदि में जो बढ़ता हस्तक्षेप है उसे लेकर अकादेमिक जगत में अगर बेचैनी है तो उसका कोई इज़हार नहीं है. यह संकोच, यह बेचारगी, यह निष्क्रियता तब है जब शाहीन बाग़ में साधारण नागरिकों द्वारा नागरिकता क़ानून के विरुद्ध एक बड़ा अहिंसक आंदोलन किया गया और लगभग एक बरस से किसानी क़ानूनों के विरोध में लाखों किसान अब भी अहिंसक सत्याग्रह कर रहे हैं.
इस स्थिति पर विचार करने के लिए हाल ही में कुछ समानधर्मा मित्र मिले और इस विषम परिस्थिति में क्या किया जाये इस पर लम्बा विचार-विमर्श हुआ. उनमें से लगभग कोई भी किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा नहीं था. सबको यह लगा कि एक सशक्त-सक्रिय-मुखर नागरिकता की दरकार है. उसे कैसे संगठित और सक्रिय किया जाये इस पर भी विचार हुआ. इसी तरह के खुले विचार-विमर्श देश के कई शहरों और केन्द्रों में करने की योजना बनी है. ज़ाहिर है कि ऐसे किसी भी प्रयत्न को सत्ताधारी शक्तियां संदेह और क्षोभ की दृष्टि से देखेंगी. पर सिर्फ़ इस भय या आशंका से दृश्य पर नागरिकता का सम्यक अहिंसक दबाव बनाना स्थगित नहीं किया जा सकता. इस समय निर्भय, अहिंसक सक्रियता और सोच-विचार की बहुत ज़रूरत है.
>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें
>> अपनी राय mailus@satyagrah.com पर भेजें