यह आकस्मिक नहीं है कि हिंदुत्व के प्रवक्ता कभी उसके समर्थन में हिन्दू धर्म के किन्हीं संस्थापक धर्मग्रन्थों या अवधारणाओं का उल्लेख नहीं करते
अशोक वाजपेयी | 22 मई 2022 | चित्र: राजेंद्र धोड़पकर
बंजर हिन्दुत्व
भले उसने अपने नाम में एक धर्म का छद्म रच लिया है, यह स्पष्ट है कि हिन्दुत्व कोई धार्मिक आन्दोलन या प्रवृत्ति नहीं, एक राजनैतिक विचारधारा है. यह आकस्मिक नहीं है कि उसके आक्रामक प्रवक्ता या पक्षधर कभी उसके समर्थन में या उसका औचित्य बताने के लिए हिन्दू धर्म के किन्हीं संस्थापक धर्मग्रन्थों या अवधारणाओं का उल्लेख नहीं करते. ऐसा इसलिए है कि हिन्दू धर्म की कुछ मूलभूत अवधारणाएं, जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति’, ‘एकोहम् बहुस्याम’, ‘सत्यमेव जयते’ जैसे आप्तवचनों से प्रगट होती हैं, उनसे हिन्दुत्व को कुछ लेना-देना नहीं है. वह तो मुख्यतः बहुसंख्यकतावाद की हेकड़ी, इस्लाम की घृणा और हिन्दुओं के अवास्तविक विकटिमहुड पर आधारित राजनैतिक विचारधारा है जिसका हिंसक-आक्रामक व्यवहार और प्रायः अभद्र आचरण हिन्दू धर्म के बुनियादी सिद्धान्तों का निषेध करता है. यह विचारधारा भारत में हिन्दुओं को अन्य धर्मावलंबियों से श्रेष्ठ और दूसरे धर्मावलम्बियों को दोयम दर्जे़ का मानती है. ज़ाहिर है अपने मूल में वह लोकतांत्रिक भी नहीं है और भारतीय संविधान ने सभी को जो समान नागरिकता और अधिकार दिये हैं उनसे असहमत हैं और अन्ततः उन्हें बदलना चाहती है. फिलहाल अगर संविधान में संभव नहीं, तो समाज में वह ऐसी समान अधिकारिता और नागरिकता समाप्त करना चाहती है.
हिन्दुत्व की साहित्य में क्या स्थिति है. इस पर विचार करते समय पहली बात जो ग़ौर करने की है वह यह है कि यद्यपि हिन्दुत्व से परिचालित राजनैतिक दल केन्द्र और कई राज्यों में सत्तारूढ़ हैं, कम से कम हिन्दी में किसी महत्वपूर्ण साहित्यकार ने उनके पाले या पक्ष में मुखर होने का अवसरवाद नहीं दिखाया. ज़्यादा गहरी बात यह है कि कम से कम मुझे ऐसा कोई साहित्य हिन्दी में नज़र नहीं आया जो हिन्दुत्व का प्रतिपादन करता या उससे प्रेरित हुआ हो. जो कुछ लेखक हिन्दुत्व के समर्थक हैं भी उनमें से भी किसी ने अपनी रचनाओं में हिन्दुत्व को कोई अभिव्यक्ति नहीं दी है. वह उनके सामाजिक आचरण में है, उनके साहित्यिक आचरण में नहीं. यह निरा संयोग नहीं है. हिन्दुत्व एक विचारधारा के रूप में मुख्यतः और मूलतः निषेधात्मक है. ऐसी विचारधारा से कुछ विधेयात्मक या सर्जनात्मक निकल ही नहीं सकता. वह सत्व पर नहीं, अनुष्ठान और तमाशे पर आधारित है. वह तोड़-फोड़ कर सकती है, जो है उसे बुलडोज़ कर सकती है पर कुछ रच नहीं सकती. इसलिए वह साहित्य के लिए किसी काम की नहीं है. साहित्य उसे स्पष्ट और उचित ही बंजर पाता है. हिन्दी की परम्परा का यह बेहद उजला उत्तराधिकार है कि उसमें इस्लाम या अन्य धर्मों से विद्वेष का साहित्य संभव नहीं है. हिन्दुत्व इस मुक़ाम पर साहित्य के इस साहस को नष्ट नहीं कर पाया है, उम्मीद है कभी नहीं कर पायेगा.
धर्म–संसद
हमारे समय का एक संकट यह है कि कई दशकों से हमारे धर्मों के बीच कोई संवाद नहीं रह गया है. हर धर्म दूसरे धर्मों के बारे में ख़ासा अनजान है और अकसर उन्हें नकारात्मक ढंग से सामान्यीकृत करता है. सामाजिक जीवन में तो धर्मों के बीच सहकार और कुछ न कुछ संवाद है पर वैचारिक और संस्थागत स्तर पर, धर्मनेताओं के स्तर पर यह संवाद बहुत शिथिल है. एक बहुधर्मी लोकतांत्रिक समाज में धर्मों के बीच, जैसा कि राजनीति में अनेक विचारधाराओं के बीच, निरन्तर संवाद होते रहना चाहिये. यह बात उस समय और प्रासंगिक है जब धर्म के नाम पर अनेक दुर्व्याख्याएं और ग़लतफ़हमियां पालतू और स्वामिभक्त मीडिया और बाज़ार द्वारा लगातार फैलायी जा रही हैं. लगता है कि हर धर्म एक खुला आंगन नहीं, एक चहारदीवारी बन गया है.
कई ऐसे जरूरी मुद़दे हैं जिन पर धर्मों को खुली बहस कर हो सके तो मतैक्य विकसित करना चाहिये जो संवाद से ही सम्भव है. उदाहरण के लिए धार्मिक स्वतंत्रता, स्त्री-पुरुष समानता, वंचित वर्गों के प्रति ज़िम्मेदारी, त्योहार और अनुष्ठानों की मर्यादाएं, सामाजिक क्षेत्र में मंदिर-मस्जिद आदि में एकत्र धनराशि का शिक्षा-स्वास्थ्य आदि में उपयोग, सर्वधर्मसमभाव, दुर्घटना होने पर परस्पर पूजास्थलों का संरक्षण, धर्म परिवर्तन, सामान्य सिविल कोड आदि मुद्दों पर धर्मों के बीच खुलकर संवाद हो सके तो मतैक्य बने. इस पर भी सहमति हो कि जब किसी धर्म पर अकारण या शुद्ध द्वेषवश आक्रमण हो तो सभी धर्मों के नेता उसका मुखर विरोध करें. धर्मसंसद का एक उद्देश्य संगठनात्मक स्तर पर धर्मों के बीच सद्भाव और सौहार्द्र विकसित करना हो. याद करें कभी महात्मा गांधी ने कहा था कि सभी धर्म सच्चे हैं पर अपूर्ण हैं. इसका एक आशय यह भी है कि हर धर्म दूसरे धर्मों से कुछ अच्छी बातें सीख सकता है.
जैसे राजनीति को निरे राजनेताओं पर नहीं छोड़ा जा सकता, वैसे ही धर्मों को धर्मनेताओं पर नहीं छोड़ा जा सकता. लोकतंत्र में धर्मों को जवाबदेह बनाने की दरकार है. वे सामाजिक शक्तियां हैं जिनका आज भी गहरा प्रभाव है. उन्हें प्रेरित और विवश करना होगा कि वे स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक मूल्यों का आदर और अमल करें. ऐसा नहीं हो सकता कि हमारे धर्मों में उदार चरित, लोकतांत्रिक मानसवाले, संवादप्रिय लोग नहीं हैं – उनकी शिनाख़्त कर उन्हें धर्म क्षेत्र में सक्रिय और आगे लाने की कोशिश होना चाहिये. हर धर्म का इतिहास बताता है कि उसमें उदार और कट्टर शक्तियों के बीच द्वन्द्व रहा है. हमारा समय ऐसा है जिसमें इस द्वन्द्व में उदार शक्तियों को प्रमुखता और नेतृत्व मिलना चाहिये ताकि अन्ततः जवाबदेह सर्वधर्मसमभाव विकसित हो सके.
हिन्दी विवाद में
फिर हिन्दी विवाद में है. इसलिए नहीं कि लोकप्रिय मीडिया में उसको लगातार भ्रष्ट और प्रदूषित किया जा रहा है. इसलिए नहीं कि हिन्दी को गोदी मीडिया लगातार झगड़ालू, लांछन, घृणा, हिंसा, अत्याचार, अन्याय और झूठ से झूठी हृदयहीन भाषा बनाता जा रहा है. इसलिए भी नहीं कि हिन्दी राज्यों की सरकारों ने एक स्वर से मांग की है कि हिन्दी को पूरे देश में राजभाषा के रूप में लागू कर दिया जाये. और इसलिए भी नहीं कि केन्द्र और राज्यों के बीच संवाद भाषा के कारण अवरूद्ध हो रहा है. बल्कि इसलिए कि चूंकि वर्तमान निज़ाम हिन्दी के अधिकांश राज्यों में सत्ता में रहने के बावजूद वहां मंहगाई, ग़रीबी, विषमता, बेरोज़गारी, अन्याय और अत्याचार में भीषण वृद्धि को रोकने में असमर्थ रहा है, उसे हिन्दी का खिलौना चाहिये जिससे इन राज्यों के लोगों का ध्यान इन मुद्दों से हटकर हिन्दू-हिन्दी-हिन्दुस्तान की कुटिल त्रयी में फंस जाये.
इस समय हिन्दी अपने आप बढ़ते बाज़ार, मीडिया, सिनेमा आदि के कारण पूरे देश में फैलती गयी है. उसके फैलाव के लिए सरकारी समर्थन क़तई किसी तरह का श्रेय नहीं ले सकता. जो फैली है, फैल रही है वह राजभाषा जैसी नकली अबूझ हिन्दी नहीं है: इस बोलचाल की जीवन्त हिन्दी में कई भाषाओं के शब्द घुलते-मिलते रहते हैं. हिन्दी को किसी राजसमर्थन की दरकार नहीं है. दक्षिण के राज्यों ने केन्द्र सरकार की ताज़ा घोषणा का विरोध किया है और फिर उसे लेकर व्यर्थ के पूर्वग्रह विकसित होना शुरू हो गये हैं. हिन्दी को किसी भी तरह से कहीं भी थोपा नहीं जाना चाहिये. हिन्दी किसी और भारतीय भाषा को अपदस्थ और विस्थापित कर बढ़ या फैल नहीं सकती. वह तो सबकी सहचरी ही हो सकती है जो धीरे-धीरे वह हो रही है. उसे इस बारे में बेहद चौकन्ना रहने की ज़रूरत है कि अभी का निज़ाम हिन्दी को हिन्दुत्व से जोड़कर उसकी भाषा न बना दे. हिन्दी में हिन्दुत्व का सख़्त विरोध है, उसकी हिंसा-घृणा-संकीर्णता-झूठ की राजनीति का अस्वीकार है और उसे इस मुक़ाम पर सशक्त ढंग से प्रकट होना चाहिये. हम हिन्दी के लेखक, सजग और दिग्भ्रम, अहिंसक और सत्याग्रही हिन्दी को हिन्दुत्व की भाषा नहीं बनने देंगे यह प्रतिज्ञा सबके सामने आना चाहिये. यह हिन्दी की अपनी सामाजिक उजली परम्परा का भी तकाजा है.
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