समाज | कभी-कभार

इतिहास के अपने मिथक होते हैं और मिथकों का भी इतिहास होता है

मिथकों की अंतर्ध्वनियों का सीधा या परोक्ष उपयोग भी मिल जाता है पर इसे इतिहास-बोध के दायरे में नहीं लिया जा सकता है

अशोक वाजपेयी | 29 मई 2022

साहित्य में इतिहास-बोध

एक आलोचक-मित्र से चर्चा हो रही थी साहित्य में इतिहास-बोध के बारे में. यह पद साहित्य में प्रगतिशीलता के दौर में सामने आया और यह दावा किया गया कि जो प्रगतिशील होता है, वह इतिहास-बोध से सम्पन्न या लैस होता है. सतही तौर पर ऐसे बोध से आशय अपने इतिहास में जाने, उससे निकलने वाले अभिप्रायों आदि का समकालीन रचना और आलोचना में सर्जनात्मक उपयोग करने से है. इस अर्थ में तो ज़्यादातर प्रगतिशील इतिहास में जाते नज़र नहीं आते हैं. यहां यह याद रखना ज़रूरी है कि इतिहास और मिथक में अंतर है हालांकि इतिहास के अपने मिथक होते हैं और मिथकों का भी इतिहास होता है. मिथकों की अंतर्ध्वनियों का सीधा या परोक्ष उपयोग भी मिल जाता है पर इसे इतिहास-बोध के दायरे में नहीं लिया जा सकता है. स्वयं प्रगतिशीलता में एक वृत्ति यह रही है कि जो अतीत में जाने को प्रतिक्रियावादी मानती है. याद करें नामवर सिंह की रामविलास शर्मा के अतीत-अन्वेषण पर आपत्ति कुछ इस तरह की थी कि जो वेद में गया वह फिर लौटा ही नहीं है.

कुछ अधिक गहरा अर्थ शायद यह होगा कि इतिहास से उन तत्वों और वृत्तियों को चुनना जो आगे-देखू, अग्रगामी हों और हमें आगे बढ़ने में मदद करते हों. ऐसा बोध अपने को चरितार्थ कैसे करेगा? यह एक बड़ी कठिनाई है. जयशंकर प्रसाद के पास गहरा इतिहास-बोध था और उन्होंने अपने नाटकों और काव्य में इस बोध को विन्यस्त किया. प्रसाद के यहां मिथकों का सहारा नहीं लिया गया है अगर ‘कामायनी’ की कथा को, जो एक वैदिक मिथक से निकली, अलग रख दें. पर इसके बावजूद प्रसाद को प्रगतिशीलों ने वह महत्व नहीं दिया जो निराला को दिया जिनके यहां राम-रावण के लोकप्रिय मिथक का पुनराविष्कार तो है पर इतिहास-बोध कितना है? अन्य प्रगतिशील मूर्धन्यों जैसे शमशेर, मुक्तिबोध आदि के यहां भी इतिहास-बोध कैसे खोजा जाये यह कठिनाई सामने आती है. बाद के प्रगतिशील तो व्यापक सांस्कृतिक विस्मृति में शामिल रहे और उनके यहां इतिहासबोध बहुत मुश्किल से खोजा-पाया जा सकता है. वैसा इतिहासबोध जो अपने को साहित्य में स्मृत बिम्बों, छवियों, प्रसंगों, अन्तर्ध्वनियों आदि में विन्यस्त करे. सच तो यह है कि हिंदी साहित्य निरंतर इतिहास-बोध से विपन्न होता गया है जबकि प्रगतिशीलता उसमें आक्रामक गति से फैलती रही है.

यह सब ख़ासी मोटी बुद्धि से किया गया विवेचन है. हो सकता है कोई अधिक सूक्ष्म और यर्थाथपरक विवेचन है या हुआ है जिसकी मुझे ख़बर नहीं. एक ऐसे समय में जिसमें बड़े पैमाने पर छद्म इतिहास-बोध जगाया-फैलाया और लोकप्रिय हो रहा है तो हमें अपने तथाकथित इतिहास-बोध पर विचार करना चाहिये. हमारे ज़्यादातर साहित्य से पहले के साहित्य की कोई स्पंदित स्मृति नहीं जागती. स्मृतिहीन रचना में इतिहासबोध भला कैसे और कहां से आयेगा?

प्रसाद की जीवनी

अंततः छायावाद के मूर्धन्य कवि जयशंकर प्रसाद की जीवनी आ गयी. सेतु प्रकाशन ने इसे रज़ा पुस्तक माला के अंतर्गत प्रकाशित किया है. गहरी समझ, अध्यवसायी संवेदना, तथ्यों के सम्यक् संकलन और सार्थक शोध के साथ सत्यदेव त्रिपाठी ने यह जीवनी लिखी है ‘अवसाद का आनंद’ नाम से. सौभाग्य से यह सिर्फ एक सुशोधित और सुलिखित जीवनी भर नहीं है: यह साहित्यिक दृश्य पर कुछ विस्मृत हो गये प्रसाद का पुनरागमन जैसा भी कुछ है. इसमें संदेह नहीं कि जो लोग उसे उतने मनोयोग से पढ़ेंगे जितने मनोयोग से यह जीवनी लिखी गयी है तो उन्हें प्रसाद को फिर से पढ़ने का मन होगा.

प्रसाद का जीवनकाल छायावादियों में सबसे कम रहा. जीवनीकार त्रिपाठी जी ने अपनी भूमिका में जो लिखा है वह उन सबकी जिज्ञासा है जो प्रसाद की महिमा तो जानते हैं पर जिनसे उनका जीवन प्रायः ओझल रहा है: ‘उसी तरह प्राप्त सामग्री में प्रसाद जी की दिनचर्या एवं उनका इतने कामों में तन-मन से व्यस्त रहना पढ़-जान कर वही सवाल मुंह बाये खड़ा हुआ है. कि रोज़ाना इतना सब करने के बाद प्रसाद जी के पास कोई समय कैसे व कहां से बचा कि इतने गुरु-गंभीर, इतने काव्यमय-नाट्यमय, इतने स्फीत कथामय एवं इतने गहन-अन्‌वेषणात्मक कार्य कर सके- वह भी महज़ 48 सालों की मिली अल्पायु में?’

प्रसाद जी की यह जीवनी एक लम्बी मर्मगाथा है: उसमें प्रसाद जी के अनेक संघर्ष, दुख, कठिनाइयां, संग-साथ, संवाद, विश्वासघात, आघात, अपने समकालीनों से उनकी मैत्री, प्रणय-प्रसंग, कर्ज़े और उनकी अदायगी आदि सब दर्ज़ हैं. कहीं न कहीं यह भी स्पष्ट होता चलता है कि एक बड़े कवि के जीवन-संघर्ष, मर्म-प्रसंग, दुविधाएं और दुख ही उसके काव्य का उपजीव्य बनते हैं. सारे विचलनों और प्रहारों के बाद भी प्रसाद-जीवन एक बेहद नैतिक जीवन रहा है और उसे ऐसी पारदर्शिता में, अनेक अनजाने प्रसंगों और संबंधों के साथ-साथ, जानना अभिभूत करता है और कुछ विचलित भी.

जीवनीकार ने प्रसाद की कृतियों का, उन्हें सन्दर्भ में रखते हुए, समीचीन विश्लेषण भी किया है जो प्रसाद जी पर पुनर्विचार की एक अच्छी शुरूआत है. यहां-वहां उन्होंने दूसरे लेखकों के उद्धरण भी दिये हैं जो रोचक और सार्थक दोनों हैं. प्रसाद जी को ‘अकेले सबसे बड़ा नास्तिक लेखक’ कहनेवाले जैनेंद्र कुमार ने बताया है: ‘…. लेकिन प्रसाद ने मस्तिष्क नहीं झुकाया. हर मत-मान्यता को- सामाजिक हो कि नैतिक, धार्मिक हो कि राजकीय, उन्होंने प्रश्नवाचक के साथ लिया. किसी को अन्तिम नहीं माना.’ कविता को व्यवसाय नहीं अपना व्यसन माननेवाले प्रसाद जी ने अपने जीवन और साहित्य में जो कुछ करने, न करने का निश्चय किया उसे उनके आरंभिक काव्य ‘प्रेमपथिक’ की ये दो पंक्तियां बखूबी कहती हैं:

इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रान्त भवन में टिक रहना.
किंतु पहुंचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं.

सौभाग्य-सूची

हाल ही में एक विदेशी शोधकर्ता ने मुझसे विस्तार से यह जानना चाहा कि मैं अपने जीवन में कितने लेखकों के सम्पर्क में आया. सहसा मुझे अहसास हुआ कि मेरा जीवन कितने लेखकों से सम्पर्क से समृद्ध हुआ है: मेरे जीवन में इस सम्पर्क से बड़ी या अधिक महत्वपूर्ण कोई और समृद्धि नहीं. सोचना शुरू किया तो एक तरह की सौभाग्य-सूची बन गयी, कई पीढ़ियों में फैली हुई. मुझे नाम लेकर याद करना चाहिये, भले वह पाठकों के लिए उबाऊ होगी.

छायावाद के तीन कवियों निराला, सुमित्रा नंदन पंत और महादेवी के दर्शन किये. पंत और महादेवी से कुछ बातचीत भी हुई. जानकी वल्लभ शास्त्री, बच्चन, दिनकर, सुमन, अंचल छायावादोत्तर कवियों से कुछ से भेंट, कुछ से सम्पर्क रहा. अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल में से कुछ से निकटता रही, कुछ से पत्र संपर्क. धर्मवीर भारती, विजय देव नारायण साही, नरेश मेहता, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना में से अधिकांश सघन संपर्क में रहे. जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी, मलयज, श्रीराम वर्मा कृपालु स्नेही रहे. नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी, केदारनाथ सिंह से निकटता रही: विष्णुकांत शास्त्री, मुद्राराक्षस, श्रीलाल शुक्ल से अच्छा परिचय और संवाद रहा. निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद से घनिष्ठता रही. रमेशचन्द्र शाह बरसों घनिष्ठ रहे, सोमदत्त और भगवत रावत भी. ज्ञानी सत्येन कुमार और मंजूर एहतेशाम भी. शरद जोशी नज़दीक और फिर दूर जा पड़े. मार्कण्डेय, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश से नोंक-झोंक होती रही. नंदकिशोर नवल, मैनेजर पाण्डे, गोपेश्वर सिंह, रवि भूषण, रेवती रमण परिचय और संवाद के क्षेत्र में रहे.

विष्णु खरे, विष्णुचन्द्र शर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, ज्ञानेन्द्र पति, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, प्रयाग शुक्ल, राजेश जोशी, चंद्रकांत देवताले, धूमिल, सौमित्र मोहन, लीलाधर जगूड़ी, विजयमोहन सिंह, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, जगदीश चतुर्वेदी का संगसाथ मिला. सागर से, जितेन्द्र कुमार, रमेशदत्त दुबे, प्रबोध कुमार आजीवन सहचर रहे हैं- आग्नेय रूठे सो आज तक. अजित कुमार, कीर्ति चौधरी, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, कुंवर नारायण हमेशा मददगार रहे. कमलेश, सुधीर चंद्र, गीतांजलि श्री से घनिष्‍ठता रही. बाद में विष्णु नागर, कमला प्रसाद, कुमार अम्बुज, असद जैदी, ज्योतिष जोशी आदि मित्र रहे. छोटे भाई उदयन, ध्रुव शुक्ल और मदन सोनी परम विश्वास्य रहे. सहयोगी पीयूष दईया भी. वागीश शुक्ल, अष्टभुजा शुक्ल, पंकज चतुर्वेदी, व्योमेश शुक्ल, अरुण देव, अमिताभ राय से संपर्क-संवाद रहा. वैसा ही अनामिका, सविता सिंह, मैत्रेयी पुष्पा, गगन गिल, तेजी ग्रोवर, जया जादवानी, मनीषा कुलश्रेष्ठ, वाज़दा ख़ान, पूनम अरोड़ा, अनामिका अनु, जोशना अडवाणी से. आलोक धन्वा हमेशा स्नेही रहे, अपूर्वानन्द सदा साथ जैसे कि पुरुषोत्तम अग्रवाल और राजेन्द्र मिश्र भी. ‘तार सप्तक’ के कई कवियों की कृपा रही: नेमिचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, गिरिजा कुमार माथुर, प्रभाकर माचवे, रामविलास शर्मा. हजारी प्रसाद द्विवेदी, नगेन्द्र, फणीश्वरनाथ रेणु का कुछ सान्निध्य मिला. मृणाल पाण्डे, मृदुला गर्ग से अधिक रामदरश मिश्र से कम संबंध रहा है. ओम निश्चल, लीलाधर मण्डलोई मित्र हैं. मुझे सिरे से खारिज करनेवाले मदन कश्यप और कृष्ण कल्पित आदि से भी भेंट होती रही है. अशोक सेकसरिया, ज्योत्सना मिलन, महेन्द्र भल्ला को कृतज्ञ याद करता हूं.

अब रज़ा फ़ाउण्डेशन के वार्षिक समागम ‘युवा’ में हर वर्ष लगभग 55 युवा लेखकों को दो दिन मनोयोग से सुनता हूं. एक लेखक का हिन्दी में कितना बड़ा परिवार होता है. कितने नाम रह गये- सो क्षमा. हिन्दीतर लेखकों और कलाकारों की सूची फिर कभी.

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