समाज | कभी-कभार

आज भी इस पूर्वाग्रह से बचना मुश्किल है कि लेखकों का शोषण घटने के बजाय बढ़ा है

समय आ गया है कि हिन्दी का वेतनभोगी हिस्सा साहित्य और कलाओं के लिए कुछ वित्तीय अवदान नियमित रूप से करने की आदत डाले और अपनी ज़िम्मेदारी निभाये

अशोक वाजपेयी | 27 मार्च 2022

साहित्य की आर्थिकी

बीते दिनों एक दुखद और शर्मनाक ख़बर, युवा लेखक मानव कौल के हवाले से, आयी कि इस समय हिन्दी के मूर्धन्य लेखकों में से एक कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल वित्तीय कठिनाई में और बहुत कम आय पर 85 वर्ष की आयु से ऊपर होकर जीवन बिता रहे हैं. विनोद जी तीस से अधिक वर्ष सरकारी कृषि महाविद्यालय में अध्यापन कर चुके हैं सो उन्हें कुछ पेंशन मिलती होगी. उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं तो उनकी राशि से भी शायद कुछ ब्याज मिलता होगा. इसके बाद रायल्टी से जो मिलता होगा. अगर यह सब मिलाकर महीने भर की राशि कुल चौदह हज़ार ही बन रही है तो बेहद किफ़ायत और संयम से ज़िन्दगी बसर करनेवाले वयोवृद्ध लेखक का जीवन इस समय कितना कठिन है इसकी कल्पना कर दशहत होती है. यह प्रसंग हिन्दी में साहित्य की आर्थिकी के व्यापक सन्दर्भ के कुछ पक्ष उजागर करता है.

पहला यह कि हिन्दी में स्वतंत्र लेखन कर अपनी जीविका कमा सकना, पहले की ही तरह, बहुत कठिन और दुस्साध्य बना हुआ है. कुछ लोकप्रिय कवि, गीतकार और लेखक ज़रूर मसिजीवी हैं पर उनमें से अधिकांश को साहित्य में महत्वपूर्ण नहीं माना जाता. दूसरे, हिन्दी प्रकाशकों द्वारा लेखकों को दी जानेवाली रायल्टी सन्देह के घेरे में बनी रही है और इस पूर्वाग्रह से बचना मुश्किल है कि लेखकों का शोषण घटने के बजाय बढ़ा है. तीसरे, जिस एक वर्ग को हिन्दी के कारण सम्पन्नता मिली है वह अध्यापकों का है, हालांकि उसमें विद्वत्ता का स्तर घटा और मीडियोक्रिटी का बढ़ा है. उनकी लिखी आलोचना और शोध की पुस्तकें खूब प्रकाशित होती हैं और उनकी ख़ासी व्याप्ति होती है. उन्हें रायल्टी भी शायद बेहतर और समय पर मिल जाती होगी.

जो स्थिति है उससे कारगर ढंग से निपटने के लिए कुछ सुझाव सूझते हैं. पहला तो यह कि हर वर्ष हिन्दी प्रकाशक अपनी मासिक या द्वैमासिक सूचना-विज्ञापन पत्रिका में किस लेखक को किस पुस्तक के लिए कितनी रायल्टी देय हुई इसका विवरण दे. दूसरे, हर प्रकाशक अपने लाभ का एक निश्चित प्रतिशत लेखकों या उनके परिवारों की मेडिकल आदि ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आरक्षित करे. तीसरे, हिन्दी, विशेषतः उच्च शिक्षा के अध्यापक हर वर्ष एक हज़ार रुपये की राशि एक लेखक कल्याण कोष में योगदान के रूप में दें ताकि उससे ज़रूरत मंद लेखकों की जब-तब मदद की जा सके. हर हिन्दी भाषी राज्य अपने यहां लेखकों और कलाकारों के लिए एक राज्यस्तरीय कल्याण कोष स्थापित करे और उसमें सभी स्रोतों से राशि एकत्र की जाये और एक बोर्ड पारदर्शी ढंग से लेखकों-कलाकारों की मदद करे. उपाय और भी हो सकते हैं और उन पर व्यवहारिक रूप से कार्रवाई की जा सकती है. समय आ गया है कि हिन्दी का वेतनभोगी हिस्सा साहित्य और कलाओं के लिए कुछ वित्तीय अवदान नियमित रूप से करने की आदत डाले और अपनी ज़िम्मेदारी निभाये.

आलोचना की अनीति

हमारे आलोचनात्मक संवाद और बहस में इसका ज़िक्र तो होता है कि आलोचना बौद्धिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कर्म है. पर इसका कम कि वह नैतिक कर्म भी है. इसका अर्थ यह है कि वह साहित्य का हिस्सा होने का दावा तभी कर सकती है जब वह अपनी नैतिकता, नैतिक ज़िम्मेदारी को स्वीकार करे और उसके अनुसार आचरण करे. ऐसा अकसर होता है कि बहुत सारी आलोचना किसी लेखक या कृति को ऊपर उठाने या गिराने की अनैतिक इच्छा से जन्म लेती है. सही है कि आलोचना के लिए, आदर्श रूप में, कुछ भी अवेध्य नहीं है. पर ठीक इसी तरह वह भी उतनी ही अवेध्य है. ऐसे आलोचक हुए हैं और इन दिनों भी उनकी कोई कमी नहीं है जो अपनी अवेध्यता को लगभग स्वयंसिद्ध मानते हैं क्योंकि वे आलोचक हैं. ऐसे आलोचकों की अहम्‍मन्यता बार-बार ज़ाहिर होती रहती है जिन्हें लगता है कि साहित्य पर फैसला देने काम और ज़िम्मेदारी उनकी है. ऐसे आलोचक समकालीन या पहले की रचना के सहचर आलोचक नहीं होते और रचना में क्या हो रहा है यह बताने के बजाय जिनका ध्यान फैसला देने पर अधिक होता है. फैसला देने काम अर्जित करना होता है: अपने लम्बे आलोचना-व्यवहार द्वारा. वह न तो आलोचना का ज़रूरी काम है, न ही उसकी कोई बड़ी ज़रूरत होती है.

हर समय व्यापक समाज और बौद्धिक परिवेश में कुछ वैचारिक उद्वेलन और द्वन्द्व चल रहे होते हैं. चूंकि आलोचना वैचारिक कर्म भी है, यह लाज़िमी है कि वह इन उद्वेलनों-द्वन्द्वों के प्रति सचेत हो और उनका कुछ बोध पाठक को कराये. अपने समय के विचारों के प्रति उदासीन या तटस्थ रहकर आलोचना अपनी नैतिक उपस्थिति और सक्रियता ठीक से रूपायित और दर्ज़ नहीं कर सकती. कई बार ऐसा होता है कि किसी समाज में सक्रिय-सशक्त विचार, जैसे कि हिन्दी समाज में व्याप्त धर्मान्धता-साम्प्रदायिकता-जातिवाद-स्त्री-पुरुष विषमता आदि के विचार, ऐसे हों जिनका विरोध सर्जनात्मक साहित्य में व्यापक हो और आलोचना को भी ऐसा विरोध मुखर करना पड़े. इसका आशय यह है कि आलोचना को, जैसे सृजन को भी, अपने समाज का ही विरोध करना पड़े. वैसी हालत में आलोचना की नैतिकता इस बात से प्रगट होगी कि वह कितनी समझ-संवेदना-साहस से अपना विरोध दर्ज़ और व्यक्त करती है.

हालांकि आलोचना को सहयोगी प्रयास कहा गया है और वह है, यह नहीं भूलना चाहिये कि रचना की तरह आलोचना भी व्यक्ति ही लिखते हैं. ऐसे अवसर आते हैं, और हिन्दी में कई बार स्वाभाविक रूप से आये हैं जब कोई आलोचक अपनी स्थापनाओं, समझ और साहस के कारण अकेला पड़ जा सकता है. अगर उसे अपने ऊपर और अपनी नीयत को लेकर भरोसा है तो आलोचक को अकेले पड़ जाने से क़तई हतोत्साह या निराश नहीं होना चाहिये. उसके लिए नैतिक यही है कि वह अपना सच कहे और उससे विचलित न हो. ऐसे समय आते रहते हैं जब दृश्य और दृष्टि दोनों ही धुंधले पड़ जाते हैं. तब भी अपने धुंधले सच पर टिके रहना आलोचना की नीति होती है.

सहचर-सखा आलोचक

राजेन्द्र मिश्र से लगभग एक अधसदी की मित्रता और साहचर्य थे. पेशे से अध्यापक पर रुचि और दृष्टि से आलोचक छत्तीसगढ़ में वे उन गुने-चुने लोगों में से थे जिन्होंने अध्यापन और विद्वत्ता को आधुनिकता और समकालीनता का सहचर बनाया. उनकी परिपक्व विद्वत्ता उनकी साहित्य के बारे में अथक जिज्ञासा से निकलती रही और उनकी आलोचना पर उस विद्वत्ता का कभी कोई बोझ नज़र नहीं आया. उनका देहावसान विशेषतः छत्तीसगढ़ के साहित्य और बुद्धि संसार की गहरी क्षति है.

राजेन्द्र जी के बारे में सोचते हुए मुझे यह ख़याल आता है कि उनकी अपने समय के कम से कम चार बड़े लेखकों अज्ञेय, मुक्तिबोध, श्रीकान्त वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल से निकटता रही. उस समय जब शीत युद्ध की राजनीति की छाया में, जैसा कि नामवर सिंह ने बाद में बताया है, अज्ञेय और मुक्तिबोध को एक विरोधी युग्म के रूप में देखा जा रहा था, राजेन्द्र जी ने बिलासपुर के अपने महाविद्यालय में इन दोनों को कवितापाठ के लिए आमंत्रित किया और दोनों आये, सहज बन्धु भाव से मिले और श्रोताओं ने दो भिन्न क़िस्म की कविताओं का आनन्द लिया.

राजेन्द्र जी ने मुक्तिबोध और श्रीकान्त वर्मा पर चुने हुए निबन्धों के दो संचयन, समझ और सुरुचि से तैयार किये. एक संचयन तो मेरे ऊपर भी. लगता है कि उनकी आलोचना को इन पांच शब्दों के माध्यम से समझा जा सकता है: संवेदना, सौन्दर्य, संघर्ष, साहस और साहचर्य. वे साहित्य में रसे-बसे थे और साहित्य को मनुष्य को, उसकी स्थिति और संभावना को, उसकी विडम्बनाओं और अन्तर्विरोधों को समझने की एक समावेशी पर मुक्तिदायी विधा मानते थे. उन्होंने कम लिखा है और बड़े आत्मसंयम से काम लिया है.

रायपुर में हमने पहले मध्यप्रदेश में रहते हुए और बाद में रज़ा फ़ाउण्डेशन के तत्वावधान में अनेक आयोजन किये जिनमें उनकी हमेशा बहुत तत्पर भागीदारी रही. उनके न रहने से हमारा एक मजबूत आधार स्तम्भ ठह गया है.

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