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विकल्पहीनता की धारणा लोकतंत्र का अवमूल्यन है

नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी, राहुल गांधी, मायावती, नवीन पटनायक

विकल्प की सम्भावना

सचाई और सपने का रिश्ता ऐसा है कि एक को याद कीजिये तो दूसरा भी याद आ ही जाता है. दार्शनिक स्तर पर तो यह तर्क भी किया गया है कि सचाई दरअसल सपना है और सपना सच है. जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि अकसर जब हम दी हुई सचाई से त्रस्त हो जाते हैं तो सपने की ओर मुड़ते हैं. सपने की ओर मुड़ना दी हुई सचाई का विकल्प सोचना-समझना है. मानवीय अस्तित्व का यह स्थायी भाव है कि वह दिये हुए से कभी संतुष्ट नहीं होता, विकल्प भी निरंतर खोजता रहता है. भारत की वैचारिक संस्कृति के बारे में तो पश्चिम के कई विद्वानों ने यह स्थापना की है कि भारत में कभी एक विचार का वर्चस्व बहुत दिनों नहीं रहा क्योंकि जल्दी ही किसी प्रतिविचार को भी प्रोत्साहित किया गया. विचार और प्रतिविचार का द्वन्द्व ही भारतीयता की एक परिभाषा है. उसकी निरन्तर द्वन्द्वात्मकता की एक ज़रूरी अभिव्यक्ति.

इन दिनों भारत के राजनैतिक-सामाजिक जीवन में विकल्प की बात नहीं की जाती. अगर की जाती है तो सिर्फ़ इस संकरे अर्थ में कि कोई विकल्प नहीं है. अव्वल तो यह धारणा कि कोई विकल्प नहीं है, लोकतंत्र का अवमूल्यन है क्योंकि वह तो अनेक विकल्पों की उपस्थिति और संभावना पर ही आधारित होता है. दूसरे, ऐसा सोचना भारतीय परम्परा से विरत होना है. जिस देश में देवता भी एक-दूसरे के विकल्प में देखे-पूजे गये हैं उसमें विकल्पहीनता एक कुविचार है जिसे एक ख़ास तरह की संकीर्ण और साम्प्रदायिक राजनीति पोस रही है. दुर्भाग्य यह है कि मीडिया का बड़ा हिस्सा इस विकल्पहीनता को बहुत उत्साह से पोस और प्रक्षेपित कर रहा है. यह उसकी स्वामिभक्ति, बुद्धिविरोध और लोकतंत्र की अवमानना करनेवाला तंत्र बन जाने का दुखद साक्ष्य है.

इस विकल्पहीनता के विमर्श की साहित्य में क्या स्थिति है. वहां भले वर्चस्व की होड़ लगी हुई है, कम से कम दूसरों के होने को, दूसरी दृष्टियों के होने और उनकी प्रामाणिकता से इनकार करना आसान नहीं है. दुर्भाग्य से, साहित्य में ‘दूसरों’ की जगह सिकुड़ रही है जिसका सीधा आशय विकल्पों की बहुलता की जगह का संकुचित होना है. हर लेखक को अपनी कल्पना, अपनी सचाई, अपने सपने देखने-कहने का अधिकार है. पर इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि वह अपने से भिन्न या असहमत लेखकों को जगह और आदर देने से इनकार या संकोच करे. हर लेखक को अकेले होने का भी अधिकार है पर उसकी कुछ न कुछ ज़िम्मेदारी अपनी साहित्यिक संस्कृति को खुली, गतिशील और ग्रहणशील बनाने में कुछ योगदान करने की है. लेखक की मानवीय और बौद्धिक सहानुभूति की क्षमता और प्रामाणिकता इस बात से भी निर्धारित होती है कि वह अपनी दृष्टि से अलग कितनी दृष्टियों का एहतराम करता है और कितना उन्हें भी वही हक़ देता है जो उसे मिले हुए हैं. साहित्य की दुनिया अकेले न बनती, न सधती है, उसमें दूसरे होना अनिवार्य हैं. सब मिलकर, जब-तब लड़ते-भिड़ते भी, उसे बनाते और सुरक्षित रखते हैं.

रज़ा-शती

महामारी और उससे ज़रूरी हुई बंदिशों के कारण चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की जन्मशती मनाने की कई गतिविधियां मन्द पड़ गयीं या स्थगित हो गयीं. अब धीरे-धीरे जैसे जैसे वातावरण खुल और बेहतर हो रहा है, वे फिर गति पकड़ रही हैं. इसी 22 से 30 अक्टूबर 2021 को जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में रज़ा फ़ाउण्डेशन के सक्रिय सहयोग से एक बहुकला समारोह आयोजित है जिसमें रज़ा के प्रिण्ट्स की प्रदर्शनी, उन पर एक फ्रेंच निर्देशक की फ़िल्म, ‘रज़ा का राजस्थान’ पर विचार-विमर्श, ध्रुपद-ख़याल-कथक की शास्त्रीय प्रस्तुतियां और कवितापाठ शामिल हैं. ऐसे ही उत्सव ग्वालियर, कोलकाता, भोपाल और मुम्बई में आगे जाकर होंगे.

रज़ा का बचपन मण्डला, अमरकण्टक आदि में फैले वनांचल में बीता था. उसे रेखांकित करते हुए मण्डला में युवाओं का मूर्तिशिविर इन दिनों चल रहा है और अनूपपुर में नृत्य-प्रस्तुति आदि को शामिल कर फ़ाउण्डेशन ज़िला और सम्भागीय प्रशासन के सहयोग से आयोजन कर रहा है. ऑनलाइन एक मासिक श्रृंखला चल रही है जिसमें प्रसिद्ध कलालोचक, कलासंग्राहक, विचारक आदि रज़ा पर, उनके जीवन और कला पर व्याख्यान दे रहे हैं. इसी बीच रूपवाणी वाराणसी ने ‘रज़ा पर्व’ आयोजित किया जिसमें रज़ा के प्रिण्ट्स की प्रदर्शनी के अलावा कथक, शास्त्रीय गायन, कविता-पाठ, कला-चर्चा आदि शामिल थे. चम्बा में मिनिएचर कला-शाला आयोजित हुई जिसमें रूद्रवीणावादन और फ़िल्म प्रदर्शनी भी शामिल रहे. पटना के बिहार संग्रहालय रज़ा-प्रदर्शनी के साथ-साथ कविता-पाठ और भरतनाट्यम की प्रस्तुति शामिल थी. नरसिंहपुर के देहात में कला कार्यशाला आयोजित हुई है.

अगले वर्ष के आरम्भ में रज़ा पुरस्कार से सम्मानित कुछ कलाकारों की एक बड़ी प्रदर्शनी, भारत के 100 युवा कलाकारों की एक बड़ी प्रदर्शनी एक साथ कई सार्वजनिक कलावीथिकओं में दिल्ली में आयोजित होगी. इसके लिए त्रिवेणी कला संगम, बीकानेर हाउस, विजुअल आर्ट गैलरी, अलियांस फ्रांसेज़, इण्डिया इण्टरनेशनल सैण्टर की कला वीथिकाएं आरक्षित कर ली गयी हैं. फ़रवरी 2022 में किरण नाडर म्यूज़ियम आव् आर्ट रज़ा की एक विशेष बड़ी प्रदर्शनी बीकानेर हाउस में आयोजित करने जा रहा है. 16 अक्टूबर से रज़ा के रेखाचित्रों की पहली प्रदर्शनी वढ़ेरा आर्ट गैलरी में नियोजित है, ‘स्केचिंग सायलेन्स’. इस प्रदर्शनी में शामिल अधिकांश रेखा चित्र रज़ा के उन कागज़ात में मिले हैं जिन्हें रज़ा पेरिस से अपने साथ दिल्ली ले आये थे. उनके रेखाचित्रों पर एकाग्र यह पहली प्रदर्शनी है.

इस बीच यह कोशिश है कि इन प्रदर्शनियों के दौरान रज़ा के पत्रों का नाट्यपाठ, उनसे प्रेरित नयी शास्त्रीय कोरियाग्राफ़ी का एक महोत्सव और दास्ताने रज़ा की प्रस्तुतियां संभव हों. पेरिस के पाम्पिदू सैण्टर में रज़ा की अब तक की सबसे बड़ी प्रदर्शनी, लम्बे स्थगन के बाद, उनके 101वें जन्मदिन पर 22 फ़रवरी 2023 को आरम्भ होगी और 2024 में शायद अमरीका का एक बड़ा संग्रहालय रज़ा की एक बड़ी प्रदर्शनी करेगा.

रज़ा-100 के अन्तर्गत इस बार हिन्दी युवा लेखकों का समागम ‘युवा-2021’ कलाओं पर एकाग्र है और उसमें रज़ा, जगदीश स्वामीनाथन, कुमार गन्धर्व, हबीब तनवीर, बिरजू महाराज, मणि कौल और मुकुन्द लाठ पर विचार-विमर्श होगा. यह आयोजन दिल्ली में 14-15 नवंबर 2021 को संपन्न होगा.

मन की आंखें

एक बिल्कुल नयी कलावीथिका ट्रेज़र आर्ट गैलरी में पहला शो मुम्बई के प्रसिद्ध चित्रकार प्रभाकर कोल्ते का आयोजित हुआ है जिसका शीर्षक है ‘माइण्ड्स आई’. 9 अक्टूबर 2021 को नयी दिल्ली में इस नयी कलावीथिका और कोल्ते की प्रदर्शनी का शुभारम्भ साथ ही हुआ. कोविड महामारी के प्रकोप के लगभग डेढ़ वर्ष बाद इतनी भीड़ थी कि कोल्ते के अपेक्षाकृत शान्त और मौनप्रिय चित्रों को ठीक से देखना सम्भव नहीं था. मैं सौभाग्य से दो दिनों पहले उन्हें अकेले देख आया था.

कोल्ते एक रंगप्रेमी और रंगनिष्णात कलाकार हैं: उनके यहां रंग झिरते हैं, कैनवास में टपकते हैं और अमूर्त आकार ग्रहण करते हैं. उनमें अगर अधीरता भी है तो आकार लेने या कुछ कहने की नहीं, अपना विन्यास पाने की अधीरता है. उस विन्यास से याने कोल्ते के अमूर्तन से कोई स्पष्ट अर्थ नहीं निकलता और कोल्ते आप पर कोई अर्थ थोपना भी नहीं चाहते. वे आपको याने रसिकों-दर्शकों को स्वतंत्र छोड़ते हैं कि वे अपने मनोनुकूल अर्थ रच और ग्रहण कर लें. उनके चित्र उनके मन की आंख भर नहीं खोलते: वे यह उम्मीद भी लगाते हैं कि आपके मन की आंखें भी, इस रंग-उत्तेजना से, खुलेंगी. आपके मन को अर्थ-प्रतीति होगी जिसे किसी स्पष्ट अर्थ में घटाना या व्यवस्थित करना ज़रूरी नहीं.

जो रंग पर अधिकार कर लेता है उसका रंगहीनता पर भी अधिकार अपने आप हो जाता है. अपने अथक और अविराम रंगानुराग के बावजूद कोल्ते के दो बड़े चित्र स्याह-सफ़ेद हैं. उनमें रंग जैसे विसर्जित और अदृश्य हो गये हैं. यह उचित ही था कि जो औपचारिक आरम्भ हुआ वह इन दो चित्रों में से एक के बग़ल में था. अपने गुरु शंकर पलसीकर की सीख कि ‘पहले अपने को खोजो, फिर चित्रकला की दुनिया को’ मानकर कोल्ते ने जो रंग-व्यवहार किया है उसमें आत्मान्वेषण की विकलता दिखलायी देती है. उन्होंने कहा है कि वे देखने ओर चित्र बनाने के बजाय चित्र बनाते और देखते हैं. चित्र, इसलिए, आंखें हैं जिनसे देखा जाता है. चित्र अभिव्यक्ति और आत्मसन्धान हैं. उनमें जो सघनता, सन्तुलन, संयम और स्वतंत्रता है वह निश्चय ही एक वरिष्ठ कलाकार की वृत्ति है: उसे कुछ भी कहने का कौशल बखूबी आता है पर वह कहना नहीं चाहता और मौन रहकर ही अपनी अभिव्यक्ति करता है. एक बेहद बड़बोले समय में, जिसमें आज हम हैं, किसी का कम बोलना सभ्य संवाद है जो हमें आक्रान्त नहीं करता- हमें अर्थ रचने की प्रक्रिया में शामिल होने का न्यौता देता है.