समाज | कभी-कभार

शब्द और संसार में आस्था लेखक की ‘हारी होड़’ होती है

दुर्भाग्य से साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रहा जो मानवीय स्थिति और नियति को प्रभावित या बदल सकती हैं, पर हम ऐसे लिखते हैं मानों कि हमारे लिखने से फ़र्क पड़ता है

अशोक वाजपेयी | 17 अप्रैल 2022

रचनावली

सेतु प्रकाशन से अमिताभ राय के संपादन में मेरी रचनावली का (तेरह खण्ड, 7000 से अधिक पृष्ठ) लोकार्पण इतिहासकार रोमिला थापर, समाजशास्त्री आशीष नन्दी, चित्रकार-कवि गुलाम मोहम्मद शेख़, भाषाविद् गणेश देवी और ईरानी दार्शनिक रामिन जहांबेगलू ने 22 मार्च 2022 को किया. इस अवसर पर इन मूर्धन्यों ने उदारचरित होकर जो उदार वचन कहे उनके लिए, इस बेहद अनुदार समय में, गहरी कृतज्ञता है. आम तौर पर रचनावलियां लेखकों की मृत्यु के बाद ही निकलती हैं क्योंकि तब उनका लेखनकाल पूरा हुआ माना जाता है. यह रचनावली अपवाद है: मेरे जीवित और अब भी लेखन-सक्रिय होते हुए प्रकाशित हुई है. यह एक अपूर्ण रचनावली है: मैं अभी लिख ही रहा हूं और संस्कृति-ललितकला-शास्त्रीय संगीत आदि पर अंग्रेज़ी में लिखा हुआ इसमें शामिल नहीं है. कविता के तीन खण्ड हैं और बाक़ी आलोचना, संस्कृति-समाज-कलाओं-राजनीति-पुस्तकों-आयोजनों आदि पर टिप्पणियां, पत्र, संस्मरण, इण्टरव्यू आदि अन्य दस ज़िल्दों में. कविता से लगभग चार गुना गद्य मैंने लिखा है. सो गद्ययुग के अनुरूप एक उक्ति गढ़ता हूं: ‘गद्य लिखै सो कवि कहावै’.

ऐसी आवाज़ सुनता हूं और अकसर अनसुनी करता हूं कि ‘बहुत लिख लिया अब बन्द भी करो’. यह सोचकर अपने को दिलासा दिलाता हूं, बेशर्मी से फिर भी लिखते रहने को लेकर, कि लेखक वे प्राणी होते हैं जिनके पास लिखने को बहुत कम होता है पर वे इस भ्रम में जीते हैं कि अब भी, याने आयु के अन्तिम चरण में भी, उन्हें कुछ कहना है. यह आश्चर्यजनक और आश्वस्तिकर है कि दोनों ही तरह की अपनी अपार विपुलता और अदम्य बहुलता में, संसार कभी लिखने के लिए कम या निश्शेष नहीं होता. इतना लिखकर भी, दरअसल, हम कितना कम लिख पाते हैं. शायद लेखक वे लोग भी होते हैं जिनकी अन्य आस्थाएं भले बदल या डिग जायें, छूट-टूट या विचलित हो जायें पर जिनकी शब्द और संसार में आस्था, उनकी सम्भावनाओं में आस्था अडिग-अटल रहती है. ऐसे समय में जब शब्द को झूठ-घृणा-भेदभाव-अत्याचार-हिंसा और हत्या से लगातार विकृत-विदूषित किया जा रहा है और संसार तरह-तरह से क्षत-विक्षत होता रहता है, शब्द और संसार में आस्था, एक तरह से, लेखक की ‘हारी होड़’ होती है. यह जानते हुए कि वह हारेगा लेखक होड़ लगाने से चूकता नहीं है.

कभी कहा गया था कि ‘कवि संसार के अनचीन्हे विधायक’ होते हैं जिसे बाद में एक और पश्चिमी कवि ने संशोधित करते हुए कहा कि ‘कवि अनचीन्हे संसार के विधायक’ होते हैं. हर समय में ऐसा बहुत सा होता है, संसार में, यथार्थ में, अन्तर्लोक में जिसे चीन्हने का उद्यम कविता करती है. कई बार विफल होती है पर हार नहीं मानती. कबीर की उक्ति है: ‘ताते अनचिन्हार में चीन्हा’.

लगभग शुरू से ही, 1970 में प्रकाशित पहली आलोचना-पुस्तक ‘फिलहाल’ से ही, मेरी यह मान्यता रही है कि दुर्भाग्य से साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रहा जो मानवीय स्थिति और नियति को प्रभावित या बदल सकती हैं, पर हम ऐसे लिखते हैं मानों कि हमारे लिखने से फ़र्क पड़ता है, कुछ बदलता है. अभी चार बरस पहले मैंने अपनी एक आत्मसंबोधक कविता का समापन इन पंक्तियों से किया है ‘लिखो/कि उम्मीद लिखी जाकर ही/सपना, और सपना लिखा जाकर ही/सचाई बन पाता है.’ एक दुबली सी दुराशा ज़रूर जागती है कि शायद इतिहास इस रचनावली के आकार और भार को देखते हुए जब मुझे अपने कूड़ादान में फेंकने लगेगा तो कुछ हिचकेगा.

‘बारिश सब पर एक सी…’

‘बारिश मनुष्य के दूसरी तरफ़ है/हम सब उसके लिए कुछ नहीं है/वह सब पर एक सी हो रही है, छोटे, बड़े पर/होशियार, बेवकूफ़ पर/नीच और उस पर जो/नीच नहीं है’ जैसी सहज पर विचलित करनेवाली पंक्तियां लिखनेवाली अर्मीनिया की कवयित्री तीन बरस पहले रज़ा फ़ाउण्डेशन के एशियाई कविता समारोह में आयी थीं. उनकी कविताओं का हिन्दी में उदयन वाजपेयी द्वारा किया गया अनुवाद ‘सूरज कल फिर उगेगा’, ‘तनाव’ पत्रिका के 149 अंक के रूप में प्रकाशित हैं.

उनकी एक कविता है:

हर कोई क्यों दौड़ा जा रहा है
बात करने को कोई बात नहीं है
हमने इतनी सारी नहरें खोदीं
इतने सारे पेड़ लगाये
इतने सारे शहर बसाये
लेकिन तब भी लोग भूखे हैं
वे पैसा कमाने दौड़े जा रहे हैं
जितना रईस हो देश
उतना तेज़ दौड़ता है
दिन-ब-दिन
तेज़, और तेज़ दौड़ता है
बात करने को कोई बात नहीं

मरीने पेत्रोशियन सभ्यता के संकटों के साथ-साथ रोज़मर्रा की साधारण ज़िन्दगी की विडम्बना वे दर्ज़ करती हैं: ‘कोई भी नहीं खोयेगा/नहीं, कोई भी ऐसे नहीं खोता कि दोबारा पाया न जा सके/चलती रहो/रूका नहीं जब तक पहुंच न जाओ/कहती है चिड़िया पेड़ पर बैठी’, ‘अगर तुम सड़क पर भी कर लो/तुम पाओगे/वह क्षण भर पहले वही कर चुका है/कि वह फिर से सड़क के/दूसरी ओर हो सके’.

मनुष्य की सभ्यता के संकट की इस कवयित्री की पहचान अचूक है:

अब हर ओर प्रकाश
तुम जब चाहो प्रकाश है
लेकिन भय गया नहीं
नहीं, भय नहीं गया
और हम अनगनित
चीजों के बीच, हड़बड़ाये से
मूल बात भूल चुके हैं कि
हम भय को ख़त्म करना चाहते थे

जब भी हम किसी विदेशी कवि की कविताएं पढ़ते हैं तो हमें उनसे अलग होने पर फिर भी हम सबके अन्ततः मानवीय होने की गरमाहट अनुभव में भर जाती है. ऊपर उद्धृत कविता या कवितांश हर भाषा में हमारे मनुष्य होने का सत्यापन करते हैं. हर जगह, हर भाषा में मनुष्य ऐसे अनेक अनुभवों, अन्तर्विरोधों और विडम्बनाओं का सामना करता और उन्हें कविता में पहचानता और दर्ज़ करता है जो इतने अपने लगते हैं. हम कई बार यह भूल जाते हैं कि हमारी संवेदना-समझ-सहानुभूति की दुनिया अगर समृद्ध और विपुल है तो अनुवाद की उसमें बड़ी भूमिका है.

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