तांडव

समाज | कभी-कभार

दो आंखों से हम जो देखते हैं वह पर्याप्त सचाई नहीं है

संस्कृति और सृजन के क्षेत्र में तीसरी आंख की बात चलती है जिससे भारतीय मनीषा ने सदियों से संसार की असीम बहुलता और विविधता खोजीं, व्यक्त और विन्यस्त कीं

अशोक वाजपेयी | 10 अप्रैल 2022 | फोटो: यूट्यूब

पर्याप्त-अपर्याप्त

हाल ही में एक अंग्रेज़ी कवितासंग्रह पर चर्चा के दौरान मुझे यह कहना ज़रूरी लगा कि रचना प्रायः रहस्यमय ढंग से पर्याप्त लगती है जबकि आलोचना हमेशा अबूझ ढंग से अपर्याप्त. मुझे कविता और आलोचना दोनों लिखते हुए साठ से अधिक वर्ष हो गये और मुझे इस पर्याप्तता और अपर्याप्तता का गहरा बोध रहा है. हमारी स्थिति में जब-तब ऐसा हुआ है कि किसी आलोचक या किसी क़िस्म की आलोचना को कई बार रचनाकारों या रचना के मुक़ाबले अधिक नियामक लगती भूमिका मिल गयी है और उनका वर्चस्व सा स्थापित हो गया है. पर कुल मिलाकर वर्चस्व रचना और रचनाकारों का ही रहा है.

रचना के संबंध में यह कहा जा सकता है कि वह अपेक्षाकृत अधिक खुली हुई अभिव्यक्ति होती है जो किसी तरह की पर्याप्तता में अपना समापन या उपसंहार नहीं करती. कितनी ही सुगठित क्यों न हो, रचना को आगे और खोला जा सकता है: हमारे अनिश्चित समय में रचना का इस तरह अनिश्चित होना लगभग अनिवार्य है. हर तरह का निश्चय दशकों से सन्देह और विवाद के घेरे में आता रहा है. जो निश्चित नहीं है वह पर्याप्त कैसे हो जाता है या लगता है यह सृजन का बुनियादी रहस्य है. रचना में सचाई का रूपंकरण होता है पर वह रन्ध्रमय होता है: रचना अंजलि में जल की तरह होती है- उससे जल लगातार रिसता रहता है.

दूसरी ओर, आलोचना पर एक तरह की निश्चयात्मकता की अनिवार्य छाया होती है. वह अकसर रचना की रन्ध्रमयता को या तो नज़रन्दाज़ करती है या उसे अपने विश्लेषण के दायरे में लेने से चूक जाती है. आदर्श स्थिति तो यह है कि आलोचना भी रचना की तरह अनिश्चित और रन्ध्रमय हो. पर ऐसा प्रायः हो नहीं पाता. होता यह है कि आलोचना रचना पर अपनी निश्चयात्मकता आरोपित कर देती है और मुख्यतः इसी कारण अर्पाप्त लगती है.

रचना में स्वाभाविक रूप से संश्लेषण होता है और आलोचना में आवश्यक रूप से विश्लेषण. यह विश्लेषण अकसर रचना के बुनियादी ताप को कम कर देता है: रचना में जो सघन है वह विघन हो जाता है. अच्छी आलोचना वह होती है जिसे पढ़ने में रचना पढ़ने जैसा सरल नहीं जटिल सुख मिले. ऐसी आलोचना बहुधा कम होती है: ज्यादातर आलोचना तो दाखि़ल-ख़ारिज की सूचियां बनाने, उन्हें वैध बनाने में व्यस्त होकर अपनी पठनीयता और विचारशीलता दोनों से दूर हो जाती है. उसे इस सर्वथा निवार्य अलगाव का कोई अहसास तक नहीं होता. यह अकारण नहीं है कि आज का अधिकांश आलोचना-कर्म ऐसा है जिसमें न तो सृजनशीलता का ताप है और न वैचारिक उत्तेजना. रचना को किसी तरह निपटाने की जल्दी में आलोचक स्वयं आलोचना को भी सार्थकता और प्रासंगिकता के कोण से ‘निपटा’ देता है!

सभ्यता-कथन

मनुष्य के इतिहास में सभ्यताएं मानवीय स्थिति, मानवीय नियति, मुक्ति, मानवीय संबंधों आदि के बारे में कुछ न कुछ कहती रही हैं और कई सभ्यताओं के लोप होने के बावजूद उनसे उपजे विचार संसार में बने रहते हैं. ग्रीक, रोमन सभ्यताएं इसका उदाहरण हैं. भारतीय सभ्यता उन गिनी-चुनी सभ्यताओं में से है जो, तरह-तरह के परिवर्तनों के बावजूद, हज़ारों वर्षों के पार, अटूट और जीवित रही है. इस लम्बी परम्परा के दौरान उसने, एक तरह से मनुष्य मात्र से जो कुछ कहा वह स्मरणीय और रक्षणीय एक साथ है. यह नोट करना दुखद है कि यह सभ्यता ऐसी स्थिति में पहुंच गयी या पहुंचा दी गयी है कि उसके पास कुछ नया कहने को नहीं बचा. इससे भी अधिक दुखद है कि यह सभ्यता उन मूल्यों और संकीर्णताओं की ओर वापस ढकेली जा रही है जिनसे, लगता था, वह कहीं आगे आ गयी थी. हम अब आगे बढ़ती सभ्यता नहीं, पीछे जाती सभ्यता हैं!

दिलचस्प यह है कि इस पीछे जाने को सत्तारूढ़ राजनीति किसी कल्पित स्वर्णिम युग की वापसी की तरह प्रचारित और प्रभावित कर रही है. सच तो यह है कि अगर हम अपनी सभ्यता के कुछ आप्तवाक्यों का स्मरण करें, जिनमें ‘मैं एक हूं जो बहुत से रूप लेता हूं’, ‘सारी वसुधा एक कुटुम्ब है’, ‘सत्य एक है, उसे ज्ञानी तरह-तरह से कहते हैं’, ‘न वेद से डरो, न गुरु से डरो, न लोक से डरो’ तो यह स्पष्ट होगा कि इन अवधारणाओं में से एक भी आज सही और लागू नहीं है. हम निरन्तर भेदभाव, दूसरों को स्वीकार करने में कोताही, वसुधा तो दूर अपने यहाँ हज़ारों सालों से रह रहे नागरिकों के एक बड़े वर्ग को कुटुम्ब से बाहर करने के अभियान में व्यस्त हैं. समाज का एक बहुत विशाल हिस्सा समाज के दूसरे अल्पसंख्यक हिस्से से निराधार भयग्रस्त है और अपनी ओर से उसे तरह-तरह से डरा रहा है. आज हमारी सभ्यता का मुख्य उत्पादन भय है. हम एक भयग्रस्त, भयोत्पादक सभ्यता में घट चुके हैं.

इस समय सारे संसार में ज्ञान-आधारित समाज बनाने की कोशिश चल रही है. ठीक उलट भारत में ज्ञान की हर रोज़ धज्जियां उड़ायी जा रही हैं. हमारे ज्ञान के सभी संस्थान अवमूल्यित कर दिये गये हैं और अज्ञान का शिखर से प्रतिपादन और महिमामण्डन हो रहा है. जल्दी ही हम अज्ञान में लिप्त सभ्यता हो जायेंगे. भारतीय सभ्यता एक खुली और ग्रहणशील सभ्यता रही है. लेकिन अब हम एक बन्द सभ्यता होने जा रहे हैं जिसमें आविष्कारक प्रतिभा और क्षमता लगातार क्षीण हो रही है.

अगर इस सभ्यता के पास अब सिर्फ़ घृणा, भय, भेदभाव और अज्ञान ही कहने-बरतने को बचे हैं तो क्या हमें गम्भीरता से यह नहीं सोचना चाहिये कि क्‍या यह समापन है?

तीसरी आंख

हमारी परम्परा में शिव त्रिनेत्र हैं और जब वे तीसरा नेत्र खोलते हैं तो क्रोध से ऐसा करते हैं और सृष्टि का संहार करते हैं. इससे बिलकुल अलग संस्कृति और सृजन के क्षेत्र में तीसरी आंख की बात चलती है. चित्रकार सैयद हैदर रज़ा कहते थे कि दो दी गयी आंखों से हम जो देखते हैं वह पर्याप्त सचाई नहीं है. सृजन के लिए तीसरी आंख चाहिये जो मन-मस्तिष्क की होती है और वही आंख कल्पना करती, स्वप्न देखती, खोजती और रचती है.

भारतीय मनीषा ने सदियों तक और से संसार की असीम बहुलता और विविधता, उसका सहज और जटिल सौन्दर्य, विचारों और दृष्टियों का विविध सौन्दर्य, अध्यात्म की सुषमा आदि खोजीं, व्यक्त और विन्यस्त कीं. यह तीसरी आंख हमेशा खुलेपन और ग्रहणशीलता को स्वीकार करती रही. हालांकि यह सत्य के बारे में कहा गया है पर सौन्दर्य के बारे में भी उतना ही उपयुक्त बैठेगा कि ‘एकं सौन्दर्यम् विप्राःबहुधा पश्यन्ति’.

भारतीय सौन्दर्य-बोध, कुल मिलाकर, सौन्दर्य की अपार विविधता, जटिलता और सूक्ष्मता, प्रकृति-मानवीय संबंध-आस्था-रीति-रिवाज़ों-खानपान-पहरावे से लेकर भाषाओं, कल्पना, मिथकों, जीवनशैलियों-अनुष्ठानों की अत्यन्त समृद्ध बहुलता पर केन्द्रित रहा है. सत्य या सौन्दर्य के किसी एक विचार या दृष्टि को, अवधारणा या कल्पना को बाक़ी विचारों और दृष्टियों को अपवारित या बाहर कर वर्चस्वशाली नहीं होने दिया गया. भारतीय सभ्यता और समाज कल्पना और विचार का जनतंत्र रहे हैं, राजनैतिक जनतंत्र बनने के बहुत पहले से.

भारतीय मनीषा सिर्फ़ जीवन का उत्सव भर नहीं मनाती, उसके बारे में, जीवन के अर्थ और लक्ष्य के बारे में, मानवीय नियति, परम्परा, मानवीय मूल्यों आदि के बारे में प्रश्न भी पूछती और उनके कई उत्तर खोजती रही है. दुर्भाग्य से, आज परम्परा के नाम पर हमारे लोकतंत्र में प्रश्नवाचकता का अपराधीकरण किया जा रहा है. ज्ञान की संस्कृति को अवमूल्यित कर अज्ञान को बढ़ावा दिया जा रहा है. एकसेपन की आत्महीन और हृदयहीन ज्यामिति हमारी दृश्य संस्कृति को लगातार दूषित कर रही है. हम धीरे-धीरे तीसरी आंख खोलना और उससे देखना-निरखना भूल रहे हैं.

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