करण जौहर की आत्मकथा पढ़ते हुए आप लगातार इस सोच में रहते हैं कि आखिर किताब वाला यह आदमी अपने सिनेमा में नजर क्यों नहीं आता!
शुभम उपाध्याय | 25 मई 2020 | फोटो: स्क्रीनशॉट
करण जौहर ने 24-25 साल की उम्र में ‘कुछ कुछ होता है’ का निर्देशन किया था. उस वक्त तक न तो जिस्मानी तौर पर और न ही रूहानी तौर पर उन्होंने प्रेम को भोगा था. एकतरफा प्यार की एक कोशिश जरूर थी, लेकिन न प्यार के यथार्थ से वे परिचित थे, न ही अलगाव की आग की तपिश उन्होंने कभी महसूस की थी. आश्चर्य कीजिए, कि बिना प्रेम का ककहरा पढ़े इस नौजवान ने अपनी पहली ही फिल्म में ऐसा प्रेम-त्रिकोण रच दिया था कि सन 1998 के दौर में युवा पीढ़ी इस संगीतमय फिल्म की दीवानी हो गई थी. कई राज हो गए थे, कइयों ने अपने अंदर अंजलि को पाया था और कई लड़कियां टीना उर्फ रानी मुखर्जी जैसा बनने के लिए खुद को तैयार करने लगीं थीं. सैकड़ों युवाओं के कैसेट प्लेयर में हफ्तों तक सिर्फ इसी फिल्म के गाने बजा करते थे और गिनती करने में मुश्किल हो, इतने ज्यादा प्रेमियों ने एक-दूसरे से कहा था, ‘तुम नहीं समझोगे, कुछ-कुछ होता है.’
इस फिल्म के तकरीबन 19 साल बाद, 2016 में करण जौहर ने ‘ऐ दिल है मुश्किल’ बनाई. रणबीर कपूर वो नायक बने जो नायिका के लिए अपना सबकुछ कुर्बान करने के बावजूद उसका प्यार नहीं पा सका. लेकिन एकतरफा प्यार की इस कहानी में, रणबीर कपूर सिर्फ एक अक्स भर थे, असल चेहरा करण जौहर का था. करण ने 35 साल की उम्र में दूसरी बार ऐसा प्यार किया जो एकतरफा था. अपना सबकुछ न्यौछावर करने के बावजूद उन्हें पलटकर प्यार नहीं मिला और इसकी टीस लंबे समय तक सुई बनकर उनके सीने में चुभती रही. 48 साल की उनकी लंबी जिंदगी में वैसे भी सिर्फ एक बार प्यार ने रिश्ते का रूप लिया था और वो भी सिर्फ एक साल ही चला था. कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक हर बार करण जौहर हाथ खाली लिए ही प्यार से भरी इस दुनिया में खड़े रहे.
इसलिए, 35 की उम्र में किए एकतरफा प्यार से उपजे खालीपन और बेचैनी को भरने के लिए उन्होंने खुद को अपनी फिल्म का नायक बना लिया. जो कहानी कही, उसकी तीव्रता व मर्म अपनी जिंदगी से इतना सारा ले लिया कि कइयों ने इम्तियाज अली नुमा ‘ऐ दिल है मुश्किल’ को उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म तक कहा.
यह एक आदमी के मैच्योर होने के साथ-साथ उसके सिनेमा के परिपक्व होने की भी यात्रा है. पहली फिल्म से लेकर पिछली आखिरी फिल्म तक, करण जौहर ने अपने जिए जीवन के कई हिस्सों और घटनाओं को खुद के सिनेमा का हिस्सा बनाया है. यह आपको कुछ समय पहले आई उनकी आत्मकथा ‘एन अनसूटेबल बॉय’ पढ़ने पर पता चलता है जो विक्रम सेठ के मशहूर उपन्यास ‘ए सूटेबल बॉय’ का विलोम नाम बतौर टाइटल रखकर समलैंगिकता के विरोध में खड़े हमारे समाज पर तंज करते हुए एक विरोधाभास रचना चाहती है. यह भी गाथा कहना चाहती है कि एक लड़का जिसका दिल किसी चीज में नहीं रमा, उसे हिंदी सिनेमा से कैसे और कितना गहरा प्यार हुआ. और कैसे जब उसके सिनेमा में उसकी निजी जिंदगी के छोटे-बड़े हिस्से किस्सा बनकर शामिल हुए, तभी उसकी कई फिल्मों के दृश्य उज्ज्वल रोशनी से भरे मिले.
जो पाठक अंत तक करण जौहर की आत्मकथा के साथ बने रहते हैं, वे एक दूसरे किस्म का विरोधाभास भी महसूस करते हैं. सादी-साधारण से लेकर असहनीय स्तर की फिल्में बनाने वाले जाने-पहचाने एक फिल्मकार के इतर यह जीवनी एक संवेदनशील और भीड़ के बीच होकर भी अकेले रहने वाले एक बुद्धिमान व ‘अलग’ आदमी का खाका खींचती है. जैसा खाका उनकी फिल्में खींचती हैं, उनका वैसा खाका आत्मकथा नहीं खींचती, और आप सोच में रहते हैं कि यह किताब वाला आदमी जौहर के सिनेमा में नजर क्यों नहीं आता है.
करण जौहर ने बचपन से ही खुद को अलग माना. अलग पाया भी, और इससे उनका व्यक्तित्व रईस माहौल में हुई परवरिश के बावजूद दूसरों को न बताए जा सकने वाले संघर्षों में बीता. शरीर के भारी होने की वजह से और अपने हाव-भाव व बॉडी लेंग्वेज में बाकी लड़कों की तरह न होने के कारण वे अकेलेपन और उदासी वाले बचपन से घिरे रहे और पढ़ाई-लिखाई में अच्छा न होने की वजह से ‘तारे जमीं पर’ वाले अबोध बालक की तरह उन्हें भी बोर्डिंग स्कूल भेजा गया. वहां से रो-रोकर वे वापस आ गए और कई दशक बाद प्रौढ़ उमर में जब उन्होंने ‘तारे जमीं पर’ देखी तो फूट-फूटकर रोए. उनकी आत्मकथा बचपन में हर बात पर रोने को तैयार इस उदास, एकाकी बच्चे का तफ्सील से मार्मिक चित्रण करती है और आप उस प्रिवलेज्ड फिल्मकार को भूल जाते हैं जिसने युवाओं पर कभी पिचके टीन-कनस्तर समान बेकार ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ बनाई थी.
एक वजनी बच्चा जो न स्पोर्ट्स में अच्छा था, न कोई खास दोस्त उसके थे, और न ही जूते का फीता बांधने जैसे दैनिक काम वो कर पाता था, उसकी एक काबिलियत ने उसे अपने स्कूल का स्टार बना दिया था. करण जौहर का मन बचपन से ही लिखने में रमता था और न केवल वाद-विवाद प्रतियोगिताएं जीतकर उन्होंने स्कूल और कॉलेज में अपना खोया हुआ आत्मविश्वास पाया था बल्कि कई साल बाद जब शाहरुख खान उनसे पहली बार प्रभावित हुए थे, तो वह भी उनकी लेखनी की वजह से हुए थे.
आज वाले करण जौहर की तारीफें और आलोचनाएं उनके निर्देशकीय कौशल और निर्माता की उनकी भूमिका के इर्द-गिर्द ज्यादा घूमती हैं. अपनी हर फिल्म खुद लिखने वाले इस निर्देशक के लेखन पर बात कम होती है और बतौर एक सक्षम लेखक उन्हें याद या सेलिब्रेट नहीं किया जाता है. लेकिन उनकी आत्मकथा तफ्सील से रोचक होकर बताती है कि आदित्य चोपड़ा की ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के दौरान जब वे एक अनजाने असिस्टेंट भर थे, तो उन्हें उनके फिल्मी परिवार से होने की वजह से जानने के बावजूद शाहरुख खान ने पहली बार पहचाना तब था, जब उन्होंने डीडीएलजे का मशहूर ‘बाबूजी सही कहते हैं’ वाला सीन लिखा था. फिल्म के लेखक आदित्य चोपड़ा ने अपने दोस्त करण से यह सीन लिखवाकर शाहरुख को इनैक्ट करने को दिया था और जब शाहरुख ने सीन की तारीफ की और आदित्य ने बताया कि इसे करण ने लिखा है, तो शाहरुख ने करण से कहा, ‘तूने लिखा है? हिंदी में? लेकिन तेरी हिंदी तो इतनी खराब है, जैसे तू बात करता है.’
‘मैं अच्छी हिंदी बोल नहीं पाता, लेकिन लिख अच्छी लेता हूं.’ युवा करण ने जवाब दिया और शाहरुख ने चकित होकर दो बार फिर पूछा, ‘सही में ये सीन तूने लिखा है!’ इसी घटना के बाद शाहरुख की नजर में करण नाम के लड़के का महत्व बढ़ा. वे अपने सीन उनके साथ तैयार करने लगे, उनसे मशवरे लेने लगे और गुजरते वक्त के साथ उन्हें इतना महत्व देने लगे कि डीडीएलजे की शूटिंग खत्म होते-होते जहां एक तरफ 23 वर्षीय दिशाहीन करण कॉस्ट्यूम डिजायनर बनने का फैसला ले चुके थे, वहीं शाहरुख चाहने लगे थे कि वे निर्देशक बनें. और अपनी फिल्म में उन्हें हीरो लें!
डीडीएलजे की लंबी आउटडोर शूटिंग के दौरान करण उनकी इस बात को नकारते रहे, हंसी में उड़ाते रहे और आश्चर्य करते रहे कि उन जैसे नाकाबिल इंसान में उस वक्त के सबसे करिश्माई स्टार शाहरुख ने क्या देखा. लेकिन डीडीएलजे के प्रीमियर के बाद शाहरुख ने करण को फोन किया और कहा, ‘देख अभी अक्टूबर 1995 है. मैं तुझे अक्टूबर 1997 की डेट्स दे रहा हूं. दो साल हैं तेरे पास, अपनी पहली फिल्म लिखने के लिए.’
इस तरह ‘कुछ कुछ होता है’ से शाहरुख और करण का पाक याराना शुरू हुआ. और उस मशहूर युक्ति ने जन्म लिया जिसको करण जौहर कई सालों तक दोहराते रहे, ‘मैं शाहरुख खान के बिना फिल्म बनाने की सोच भी नहीं सकता’.
इस सोच भी नहीं सकने वाली उद्घोषणा ने ही शाहरुख और करण जौहर के बीच भविष्य में दूरियां पैदा की. शाहरुख इस बात से खफा हो गए कि ‘माय नेम इज खान’ के बाद करण ने उनके साथ कोई फिल्म नहीं बनाई और करण इस बात से आहत कि उनके बिना बनी ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ को शाहरुख ने पूरी तरह नजरअंदाज किया. करण ने शाहरुख से उनकी दोस्ती, टकराव और वापस दोस्त हो जाने पर विस्तार से 13 पन्ने अपनी आत्मकथा में ‘शाहरुख खान’ नामक शीर्षक के साथ लिखे हैं, जिन्हें पढ़कर दुनिया के हर कोने में रहने वाले दो दोस्त समझ जाएंगे कि करण जौहर और शाहरुख खान की दोस्ती उन घटिया अफवाहों से बहुत ऊपर है, जो उनकी निजी जिंदगी को बेवजह घेरे रहती हैं.
आत्मकथा में शाहरुख से जुड़े शुरुआती किस्से यह सवाल भी पढ़ने वाले के जेहन में उतार देते हैं कि जो नौजवान अपने लेखन की वजह से अपने वक्त के सबसे बड़े स्टार की नजर में आया, उसे बाद के वर्षों में कभी समीक्षकों या दर्शकों ने लेखन के लिए क्यों नहीं सराहा. जो सम्मान अनुराग कश्यप को मिला, और इम्तियाज अली व राजू हिरानी को, वो स्थान अपनी फिल्में लिखने के लिए करण जौहर को क्यों नहीं मिला. शायद इसलिए, क्योंकि जब उन्होंने नयी कहानियां भी कहीं (‘कभी अलविदा न कहना’, ‘मॉय नेम इज खान’ और ‘ऐ दिल है मुश्किल’) तब भी पुराने अंदाज में कहीं. अतिनाटकीयता और चुभने वाली खोखली भव्यता का दामन पकड़कर ज्यादातर बार यश चोपड़ा के अंदाज में कहीं और अपनी आखिरी फिल्म में बिलकुल इम्तियाज अली का बहुरूपिया बनकर कही. छह निर्देशित और कई निर्मित फीचर फिल्मों के बावजूद करण जौहर अपनी यूनीक सिनेमाई भाषा नहीं ढूंढ़ पाए.
फिल्मी परिवार का हिस्सा होने के बावजूद करण जौहर को फिल्मों का शौक कभी नहीं था. आदित्य चोपड़ा से कॉलेज के जमाने में पक्की दोस्ती होने के बाद ही हिंदी फिल्मों के प्रति उनमें दीवानगी पैदा हुई और आदित्य ही उनके पहले सिनेमाई गुरु भी बने. लेकिन सिनेमा के दर पर आने से पहले, कॉलेज के दिनों में, जब वाद-विवाद प्रतियोगिताओं ने उन्हें लोगों के बीच जाना-पहचाना चेहरा बना दिया, और वे फ्रेंच सीखने लगे, क्योंकि ग्रेजुएट होने के बाद पिता यश जौहर के इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का बिजनेस संभालने फ्रांस जाना चाहते थे. इस दौर में एक आदमी ने हाथ पकड़कर उन्हें अपने पास बुलाया.
जिस अकादमी में वे पब्लिक स्पीकिंग का कोर्स करने जाते थे, उसके मालिक ने उन्हें अकेले में ले जाकर कहा कि उनके हाव-भाव बहुत कुछ जनानियों वाले हैं. हाथों को हिलाने का अंदाज मर्दों से अलग है और आवाज बेहद तीखी और तेज है. उन्हें वॉइस कोचिंग की जरूरत है ताकि उनकी जनाना आवाज में एक बैरीटोन लाकर उन्हें ऐसा बनाया जा सके कि आने वाले वक्त में जमाने का सामना करने में उन्हें परेशानी न हो.
करण जौहर ने कॉलेज के दिनों में कम्प्यूटर सीखने जाने का बहाना बनाकर सबसे छिपकर यह कोर्स किया. ढाई-तीन साल तक लगातार किया और अपनी बॉडी लेंग्वेज को बदलने की कोशिशों के साथ अपनी आवाज को भी हमेशा के लिए बदल लिया. आज जिस आवाज को हम हर जगह सुनते हैं – रियैलिटी शोज से लेकर न्यूज चैनल तक पर – वो करण जौहर की वास्तविक आवाज नहीं है.
‘एन अनसूटेबल बॉय’ के दूसरे अध्याय में जब आप इस किस्से को पढ़ रहे होते हैं तो झकझोरे जाने के अलावा सिर्फ एक सवाल कर पाते हैं – जिस निर्देशक के पास इतना कुछ है बताने को, वो अपनी फिल्मों में समलैंगिकता को सिर्फ मजाकिया केरेक्टर्स और बॉलीवुड क्लीशों के माध्यम से ही क्यों एक्सप्लोर करता है? कोई नहीं कह रहा उनसे ‘ब्लू इज दी वॉर्मेस्ट कलर’ या ‘सेंस 8’ जैसा कुछ हिंदुस्तान में बनाने को, लेकिन वे ओनीर की तरह ‘माय ब्रदर निखिल’ तो बना ही सकते हैं! रितुपर्णो घोष की तरह अपने सिनेमा को अंग्रेजी के उस शब्द के प्रति संवेदनशील तो दिखा ही सकते हैं, जिसे हिंदी में लिखो तो वो सिर्फ एक अक्षर का लिखा जाता है, और जिसे करण जौहर ने एक बार भी अपनी आत्मकथा में खुद को सम्बोधित करते हुए नहीं लिखा है.
एक बार जरूर, आज से करीब डेढ़ दशक पहले, जौहर ने अपने करियर में बोल्ड व साहसी होने की कोशिश की थी. बंदिशों को तोड़ा था और इनफिडेलिटी पर वक्त से आगे की फिल्म बनाकर आलोचनाओं को खूब सहा था. फिल्म थी शाहरुख और रानी मुखर्जी के अभिनय से सजी‘ कभी अलविदा न कहना’, जिसमें दो शादीशुदा लोगों के बीच के अफेयर को उन्होंने अपने गुरु यश चोपड़ा से कई कदम आगे जाकर इंटेंस तरीके से हैंडल किया था. इतना कि उनके कुछ करीबी लोगों ने नाराज होकर बोला था, ‘तुम्हें पता है न कि तुम्हारे प्रोडक्शन हाउस का नाम ‘धर्मा’ है, और उसके लोगो (पुराने) का हिस्सा गणेश जी भी हैं.’
न जाने वैसी गुस्ताखी करण जौहर अब दोबारा कब करने वाले हैं? इंतजार रहेगा.
(जनवरी 2017 में रिलीज हुई ‘एन अनसूटेबल बॉय’ का प्रकाशन पेंग्विन इंडिया ने किया है.)
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