किसान आंदोलन में शामिल महिलाओं को लगता है कि इसमें उनकी हिस्सेदारी पूरे समाज को छुएगी और उसे थोड़ा ही सही लेकिन हमेशा के लिए बदल डालेगी
प्रदीपिका सारस्वत | 27 जनवरी 2021 | फोटो: प्रदीपिका सारस्वत
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से लोकतांत्रिक और सामाजिक ढांचों में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है लेकिन आज भी अक्सर उन्हें यह बताने की ज़रूरत पड़ जाती है कि उनके मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकार बाकी आधी आबादी के बराबर ही हैं. पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर की स्त्रियों ने न सिर्फ़ उन गढ़ों में अपनी जगह हासिल की है जिन्हें पुरुषों के लिए आरक्षित माना जाता रहा है, बल्कि नेतृत्व और राजनीतिक असहमति और विरोध के ज़रिए वे बड़े बदलावों की वायस भी बनी हैं. सूडान, अर्जेंटीना, तुर्की, दक्षिण कोरिया, चिली, ब्राज़ील या हिंदुस्तान में महिलाओं की अगुआई और हिस्सेदारी वाले राजनीतिक प्रदर्शन अधिक प्रभावी, अधिक व्यापक और अधिक शांतिप्रिय रहे, यह दुनिया भर ने देखा.
मौजूदा किसान आंदोलन में महिलाओं की हिस्सेदारी पर 12 जनवरी को जब देश के मुख्य न्यायाधीश ने सवाल उठाया तो देश भर की महिलाओं और प्रगतिशील तबके ने सवाल पूछा कि क्या महिलाएं देश की नागरिक नहीं, उन्हें आखिर क्यों देश की राजनीति से दूर रहना चाहिए?
25 साल की अमनदीप कौर 26 नवंबर से सिंघू बॉर्डर पर मौजूद हैं. आंदोलन में महिलाओं की हिस्सेदारी की बात पर उनका आक्रोश उनकी आवाज़ में दिखाई देता है. वे कहती हैं कि एक दिन पहले जब न्यायालय कह चुका है कि किसानों को विरोध प्रदर्शन का पूरा हक है तो अगले दिन चीफ़ जस्टिस किस बिनाह पर महिलाओं और बुज़ुर्गों को यहां न रखे जाने की बात कर सकते हैं. “रखा गया है? रखा उस चीज़ को जाता है जिसमें जान नहीं होती. चीफ़ जस्टिस साहब को लगता है हम कोई सामान हैं. वो हमें किसान तो दूर इन्सान भी नहीं मानते, ये शर्म की बात है.”
आंदोलन में महिलाएं एक बड़ी संख्या में मौजूद हैं. वे अलग-अलग उम्र, अलग-अलग तबके से हैं. आंदोलन से जुड़ने की उन सबकी कहानियां बहुत अलग और दिलचस्प हैं. लुधियाना से आईं, 56 साल की बेहद हंसमुख जीत कौर आपको किसी बॉलीवुड फ़िल्म की ममतामयी मां की याद दिला देंगी. वे कहती हैं, “साडे बच्चे यहां हैं तो मम्मा यहां क्यों ना होगी.” वे क़ानूनों के बारे में ज़्यादा नहीं जानतीं, सिवाए इसके कि इन क़ानूनों की वजह से कल वे अपनी ही ज़मीन पर मज़दूर बन सकती हैं. उन्हें लगता है कि उनके और बाकी औरतों के साथ देने से आंदोलन की ताकत बनी रहेगी.
29 साल की सुखमनी किसान परिवार से नहीं हैं. एक महीने पहले सिंघू बॉर्डर पहुंचने से पहले वे चंडीगढ़ में हैदराबादी मोतियों के किसी शोरूम में काम करती थीं. वे बताती हैं, “मैं फेसबुक और इंस्टाग्राम पर इस आंदोलन को फ़ॉलो कर रही थी. मुझे रोज़ लगता था कि मैं भी पंजाब से हूं, रोटी मैं भी खाती हूं, मुझे भी इस आंदोलन में हिस्सा लेना चाहिए. क्या हुआ जो मेरे पास ज़मीन नहीं, अगर आज इन क़ानूनों की वजह से ये किसान अंबानी-अडानी के हाथ बिक जाएंगे तो कल हमारे पास भी कुछ नहीं बचेगा.” वे अपने परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ दो दिन के लिए आंदोलन में हिस्सा लेने आई थीं पर अब पिछले एक महीने से यहीं रह रही हैं. वे लोगों के लिए खाना बनाने में मदद करती हैं, जहां ज़रूरत हो काम करती हैं.
“मैं एक बैग लेकर आई थी, जो आते-आते फट गया था. ठीक से गरम कपड़े भी नहीं थे मेरे पास. ये भी नहीं पता था कि सोऊंगी कहां. बस इतना पता था कि ये सब अपने ही लोग हैं, मुझे दिक्कत नहीं होगी. कल में किसी को नहीं जानती थी, आज यहां कोई वीर है तो कोई बहन, कोई बेबे है तो कोई चाचा. मेरे पास चार बैग हैं और ज़रूरत भर के गरम कपड़े.” वे मोगा से आए एक ट्रैक्टर की ट्रॉली में सोती हैं और कहती हैं कि यहां आकर मैंने जाना कि देश क्या होता है. वे कहती हैं कि जब आंदोलन पूरा हो जाएगा तो न जाने मैं क्या करूंगी, मेरा कहीं दिल नहीं लगेगा.
सुखमनी की ट्रॉली के पास ही एक टेंट में 23 साल की राजवीर कौर रहती हैं. वे अपने पति और आठ महीने के बच्चे के साथ चंडीगढ़ से आई हैं. उनकी कहानी भी सुखमनी जैसी ही है. उनके पति ऊबर चलाते थे. वे सिर्फ दो दिन के लिए यहां आए थे कि आंदोलन को देख सकें पर यहां आने के बाद वापस ही नहीं गए. इतनी सर्दी और मुश्किल हालात में बच्चे के साथ रहना उन्हें नहीं खलता? वे कहती हैं कि यहां रह रहे लाखों लोग मेरा परिवार हैं. जब वे यहां रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं.
युवा पुरुषों की अपेक्षा युवा महिलाओं की संख्या बहुत कम है
सुखमनी और राजवीर जैसी और भी बहुत सी युवा महिलाएं इस आंदोलन का हिस्सा हैं, लेकिन तब भी उनकी संख्या युवा पुरुषों के मुकाबले बहुत कम है. आंदोलन में हिस्सा लेने वाली अधिकतर महिलाएं या तो अधेड हैं या वृद्ध. युवा महिलाओं की कम संख्या के लिए अमनदीप कौर पितृसत्ता को ज़िम्मेदार ठहराती हैं. वे कहती हैं कि ज़्यादातर लोग अब भी यही मानते हैं कि आंदोलन में औरतों का क्या काम. पर इसी के साथ वे यह भी कहती हैं कि यह आंदोलन तब भी काफ़ी अलग है. “18 जनवरी को यहां हमने रस्मी तौर पर महिला किसान दिवस मनाया. तब बहुत सी औरतें अपने-अपने गांवों से निकलकर आंदोलन में आईं, उन्हें भी अहसास हुआ कि उनकी भी इसमें हिस्सेदारी है, ये उनका भी आंदोलन है, वे भी किसान हैं.”
इस सवाल पर कि क्या पुरुषों की अगुवाई के बीच इस आंदोलन में औरतों को अपनी जगह बनाने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, वे ना में जवाब देती हैं. वे कहती हैं कि उल्टें उन्हे शाबाशी मिलती है, उनका धन्यवाद किया जाता है, जो कि नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ये लड़ाई उनकी भी है. इस सवाल के जवाब पर वरिष्ठ किसान नेता रविंदर पाल कौर कहती हैं, “मैं किसान नेताओं की बैठकों में लगभग अकेली महिला होती हूं, मुझे कभी किसी ने रोका नहीं है. महिलाओं को अगर अपनी हिस्सेदारी निभानी है तो उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी खुद समझनी पड़ेगी, उन्हें खुद घरों से निकलकर आंदोलनों तक पहुँचना पड़ेगा.”
यहां आने वाली बहुत सी अधेड़ और वृद्ध महिलाएं लगभग पहली बार किसी आंदोलन का हिस्सा बनी हैं. वे आंदोलनों के असर, उनके नियम-क़ानून नहीं जानतीं. मैं हरियाणा के कैथल से आई महिलाओं के एक समूह से मिलती हूँ. वे कहती हैं कि वे अपने पुरुषों का साथ देने आई हैं. वे नारे लगाती हैं और हंसते हुए कहती हैं वे नरेंद्र मोदी की बहन को ब्याह कर ही लौटेंगी. उन्हें यहां आए दो दिन हुए हैं. उनके समाज में किसी की बहन-बेटी को ब्याह कर लौटना ही उस पर जीत हासिल करने जैसा है.
पंजाब यूनिवर्सिटी से रंगमंच में एमए कर रहीं वीरपाल कौर यहां एक महीने से रह रही हैं. वे कहती हैं कि कैथल की ये औरतें कुछ दिन यहां और रहेंगी तो ऐसी बातें नहीं करेंगी. उनके भीतर बसी हुई पितृसत्ता ऐसी बातें करती है. लेकिन आंदोलनों में अपनी संस्कृति पैदा होती है. वे बताती हैं, “जब हम आए थे तो यहां हमने नारे लगते देखे, ‘मुंडे सोने-सोने आए, मोदी तेरे परोने आए’ ये ठीक नहीं था. हमने लड़कों को समझाया कि क्यों हमें बहन-बेटियों के बारे में ऐसी बातें करनी चाहिए. लड़कों ने समझा और ये नारे लगना बंद हो गए. अब भी जब नए लोग आते हैं, तो ऐसी बातें करते हैं, उनका ऐसा कोई इरादा नहीं होता लेकिन उनकी भाषा ऐसी होती है. आंदोलन उनकी भाषा सुधार देता है.”
टेंटों और लंगरों के बीच से गुज़रते हुए मैं लगभग हर महिला से बात करना चाहती हूँ. लेकिन लोग इस समय काफ़ी चौकन्ने हैं. वे जानते हैं कि उनके आंदोलन को बदनाम किए जाने की कोशिशें की जा रही हैं. 32 साल के मनबीर सिंह यहां 22 दिसंबर से रह रहे हैं. वे महिलाओं के एक टेंट की व्यवस्था संभालते हैं और सुरक्षा का ध्यान रखने वाली टीम का भी हिस्सा हैं. वे बताते हैं, “यहां हर दिन नए लोग आते हैं. हमारी ज़िम्मेदारी है कि किसी सही बंदे को कोई तकलीफ़ न हो और किसी गल्त बंदे को इधर एंट्री न मिल जाए.” वे टेंट में आने वाली हर महिला से आधारकार्ड और फ़ोन नंबर लेते हैं, तसल्ली होने पर ही उन्हें जगह देते हैं. वे पिछले दिनों आई एक लड़की का ज़िक्र करते हुए बताते हैं, “उसके हाथ में चोट लगी हुई थी. पूछा तो बोली गिर गई थी. जब पूछा कि कहां, कैसे गिर गई थी तो उसके पास जवाब नहीं था. थोड़ा और पूछने पर उसने बताया कि घर से लड़ाई करके आई थी. दो दिन यहीं रही, फिर मैंने उसके परिवार का नंबर लिया और उन्हें बता दिया कि वो यहां है. वो लोग आकर उसे ले गए.”
मनबीर बताते हैं कि हम रातों को जागकर पहरा देते हैं, यहां हर लड़की सेफ़ महसूस करती है. वे कुछ घटनाओं का ज़िक्र करते हुए बताते हैं कि हमने कई ऐसे लोगों को पकड़ा है जो आग लगाने की या चोरी करने की कोशिश कर रहे थे. वे कहते हैं कि जाट आंदोलन को ऐसे ही चोरी और हिंसा के ज़रिए खराब किया गया था.
सिर्फ पुरुष ही नहीं, कई महिलाएं भी टेंटों के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी उठा रही हैं. नए लोगों का नाम-पता लेना, उन्हें गद्दे-कंबल देना, सुबह सब समेट कर अपनी जगह रखना, सफ़ाई, खाना, बड़े-बुज़ुर्गों की देखभाल, बच्चों का दूध, ऐसे तमाम काम है जिनका उन्हें ध्यान रखना होता है. बीबी शरणजीत कौर, 35 इसी तरह एक टेंट की प्रबंधक हैं. वे पहले कोई बात नहीं करना चाहतीं पर टेंट में मौजूद अन्य महिलाओं के बातचीत करने पर वे अपने अनुभव बताती हैं. उनका टेंट काफ़ी व्यवस्थित और साफ़-सुथरा है. वे एक टफ़ मैनेजर हैं, दिन के समय किसी को भी कंबलों में सोने की इजाज़त नहीं देतीं.
उन्हीं के टेंट में रहने वाली 30 साल की मनदीप कौर कुरुक्षेत्र से हैं. वे आंदोलन की महिलाओं के बारे में बताती हैं, “बुज़ुर्ग महिलाएं 11 बजे से 11 तक अनशन पर बैठती हैं. बाकी महिलाएं लंगरों और टेंटों की व्यवस्था संभालती हैं. यहां सब अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं, कोई भी अपना काम किसी और पर नहीं टालता.” मनदीप की बात वीरपाल की उस बात को मज़बूत करती है कि आंदोलनों में एक नई संस्कृति पैदा होती है. इन महिलाओं ने सिंघू बॉर्डर पर रहने वाले कमज़ोर तबके के बच्चों के लिए स्कूल की भी शुरुआत की है. दिन में तीन घंटें ये लोग बच्चों को पढ़ाते हैं.
मनदीप के साथ ही बैठीं बलदीप कौर काफ़ी समय से सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेती रही हैं. वे कहती हैं, “महिलाओं की हिस्सेदारी किसी भी आंदोलन के लिए ज़रूरी है. जब हमारी हिस्सेदारी दुनिया की हर चीज़ में है तो आंदोलन कुछ अलग तो नहीं.” वे बताती हैं कि आंदोलन में महिलाओं के होने की वजह से यहां सबकुछ बहुत शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा है और सब सुरक्षित भी है वरना सरकार हमारे पुरुषों से और कड़ाई से पेश आती. वे कहती हैं कि जिस तरह हम सब यहां रह रहे हैं, आप गौर से देखिए आपको समाजवाद का एक छोटा रूप देखने को मिलेगा.
बलजीत के टेंट से बाहर निकलकर मैं नरिंदर से मिलती हूं. 39 साल की नरिंदर पंजाब के मोगा से हैं और यहां तीसरी बार आई हैं. उन्हें यह पूछा जाना अच्छा नहीं लगता है कि वे यहां क्यों हैं. वे कहती हैं, “हम अपनी मर्ज़ी की मालिक हैं, किसी से पूछकर नहीं जीतीं. कल अगर हम अपने पति से तलाक़ लेते हैं तो इस ज़मीन में हमारा भी हिस्सा होगा कि नहीं? हम अपनी ज़मीन के लिए यहां आए हैं, ये हमारी भी लड़ाई है.” आगे बढ़ने पर मैं दो और पंजाबी महिलाओं से मिलती हूं. वे अपने पतियों के साथ हैं और बताती हैं कि वे काफ़ी समय से इस आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए आना चाहती थीं. उन दोनों के पति वकील है. वे बताते हैं कि यहां आना उनकी पत्नियों की ही इच्छा थी. वे दो दिनों के लिए ही आए हैं, लेकिन वे मानते हैं कि यह उनका भी आंदोलन है.
औरतों की हिस्सेदारी सिर्फ़ आंदोलन तक ही रहेगी या नीति-निर्माण तक भी पहुंचेगी
आंदोलन में हिस्सेदारी एक बात है और नीतियों के निर्माण में महिला की आवाज़ का, उसकी हिस्सेदारी का होना दूसरी बात. अक्सर देखा गया है कि महिलाओं की बड़ी हिस्सेदारी के बाद भी आंदोलनों के पूरे होने पर बनने या बदलने वाली नीतियों में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं होती. इस बारे में बात करने पर अधिकतर महिलाएं चुप्पी साध लेती हैं. वे अभी नीतियों के निर्माण में हिस्सेदारी तक नहीं पहुंची हैं पर यह सवाल उन्हें असहज करता है.
महिला किसान अधिकार मंच फ़ोरम की स्थापना से जुड़ी अर्चना से यही सवाल करने पर वे कहती हैं, “आंदोलन में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ना ही अपने-आप में छोटी बात नहीं है. समाज के दूसरे स्तरों पर जिस तरह धीरे-धीरे महिलाओं की हिस्सेदारी और प्रभुत्व बढ़ रहा है, वक्त लगेगा पर उसका असर डिसिज़न मेकिंग पर भी दिखेगा.” वे कहती हैं कि उन सामाजिक आंदोलनों में महिलाओं की ज़्यादा मज़बूत हिस्सेदारी है जो सीधे तौर पर आर्थिक मुद्दों से जुड़े हुए नहीं हैं, जैसे कि महिला सुरक्षा, शराब बंदी या फिर नंदियों, जंगलों से जुड़े आंदोलन. ज़मीन और पैसे को महिलाओं का क्षेत्र नहीं माना जाता, पर अब सतही जुड़ाव से ही सही, महिलाएं और पुरुष दोनों ही जान रहे हैं कि अब बहुत लंबे समय तक महिलाएं इन क्षेत्रों से दूर नहीं रहेंगी.
पितृसत्ता की बात पर वे कहती हैं कि इस समय ज़्यादातर किसान संगठन और आंदोलन में भाग लेने वाली औरतें उसी संस्कृति से आए हैं जहां ज़मीन को औरतों का मसला नहीं माना जाता, लेकिन कुछ कम्युनिस्ट संगठनों और शहरी महिला कार्यकर्ताओं के आ जुड़ने की वजह से विचारधाराएं धीरे-धीरे बदलेंगी, बदल रही हैं. “जैसे आप सुनिए कि किसान मोर्चा के नेताओं की बातें ज़्यादा इनक्लूसिव हैं. जो महिलाएं आंदोलन का हिस्सा हैं, वे एक बदलाव के साथ घर लौटेंगी. पार्टिसिपेशन से भी एक समझ बनती है. जो महिलाएं अपने घरों में बैठकर इन महिलाओं को टीवी पर देख रही हैं, उन्हें भी ये समझ आ रहा है कि खेती-किसानी उनका भी काम है, उनका भी हक है. आज इन महिलाओं के पास कहने के लिए बहुत कुछ नहीं है, पर हम देख सकते हैं कि आने वाले समय में ऐसा नहीं रहेगा.”
चाहे अर्चना या रविंदर पाल कौर जैसी महिलाएं हों जो सालों से ज़मीन पर काम कर रही हैं या फिर अमनदीप या बलजीत जैसी युवा लड़कियां जो पहली बार ज़मीन पर आकर आंदोलनों का हिस्सा बनी हैं, सभी को लगता है कि उनकी हिस्सेदारी सिर्फ़ इस एक आंदोलन तक सीमित नहीं रहेगी, एक लहर की तरह पूरे समाज को छुएगी और उसे थोड़ा ही सही, हमेशा के लिए बदल डालेगी.
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