लिपस्टिक नारीवाद

समाज | महिला मुद्दे

एक अदना सी लिपस्टिक नारीवाद के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक क्यों है?

नारीवाद का एक दौर ऐसा भी रहा है जिसे ‘लिपस्टिक फेमिनिज्म’ कहा गया और साल का एक दिन ऐसा भी है जिसे ‘लिपस्टिक डे’ कहा जाता है

अंजलि मिश्रा | 08 अगस्त 2020 | फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स

साल 2017 में आई फिल्म लिपस्टिक अंडर माय बुर्का को उस साल की सबसे विवादित फिल्म कहा जा सकता है. दरअसल फिल्म को एक साल पहले ही रिलीज हो जाना था लेकिन अपने फेमिनिन बोल्ड मिजाज़ के चलते यह सेंसर बोर्ड की नज़रों में खटक गई और भारी खींचतान के बाद किसी तरह रिलीज हो सकी. नारीवाद की जोरदार आवाज बनने वाली इस फिल्म के थोड़े से अजीब लगने वाले नाम पर गौर करें तो यह पूछने की इच्छा होती है कि आखिर बुर्के के अंदर लिपस्टिक का काम ही क्या है? क्योंकि बुर्का पहनने के बाद तो वह वैसे भी नहीं दिखेगी. इसका जवाब ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ के प्रमोशन के दौरान, फिल्म की निर्देशक, अलंकृता श्रीवास्तव की कही एक बात से मिल जाता है – ‘यह फिल्म महिलाओं की दबी-छुपी इच्छाओं, कल्पनाओं और सपनों की बात करती है, इसलिए इसे यह शीर्षक दिया गया है. बुर्के के पीछे छिपी लिपस्टिक की तरह ही महिलाओं की हसरतों का पता किसी को नहीं चल पाता है लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वे उन्हें पूरा करने की कोशिश नहीं करती हैं. यानी ये लिपस्टिक प्रतीकात्मक है.’

लेकिन यह कोई पहला या अनोखा मौका नहीं था जब लिपस्टिक को फेमिनिज्म के किसी प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया गया था. लिपस्टिक नारीवाद का हिस्सा कुछ इस तरह बन चुकी है कि अब बाकायदा इसके लिए साल में एक दिन निर्धारित कर दिया गया है. बीते कुछ समय से हर साल 29 जुलाई को पूरी दुनिया के कई देशों में ‘लिपस्टिक डे’ मनाया जाता है. इसकी शुरूआत को लेकर कुछ मतभेद की स्थिति हैं. कुछ जानकार इसे कई दशक पुराना बताते हैं तो वहीं कइयों का मानना है कि इसे मनाए जाने की शुरूआत साल 2016 में ही हुई है. दरअसल, साल 2016 में अमेरिका की जानी-मानी मेकअप आर्टिस्ट और कॉस्मेटिक ब्रांड हुडा ब्यूटी की प्रमुख, हुडा कटैन ने इस दिन को राष्ट्रीय दिवसों की सूची में शामिल किए जाने की सिफारिश की थी जिसके बाद से इसकी शुरूआत का श्रेय उन्हें दिया जाने लगा है.

यह अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय दिवस, बीते कुछ सालों से भारत, अमेरिका, यूरोप और कुछ अरब देशों में चर्चा बटोरता दिख रहा है. शुरुआत में यह दिन ब्यूटी प्रोडक्ट्स पर मिलने वाले ऑफर्स और फैशन वेबसाइट्स पर उनकी जानकारी देने वाले आलेखों तक ही सीमित रहा करता था. लेकिन अब यह मीडिया और सोशल मीडिया पर नारीवादी चर्चाओं की वजह बनता भी दिखाई देने लगा है. हालांकि इसके बावजूद, तमाम फैशन विशेषज्ञ इस बात पर एकराय नज़र आते हैं कि लिपस्टिक-डे एक बहुत सफल मार्केटिंग रणनीति है जो साल दर साल जोर पकड़ती जा रही है. इनके मुताबिक बाज़ार बड़ी चतुराई से लिपस्टिक को लिबरेशन (आज़ादी) का प्रतीक बना रहा है और इस वजह से अब वे महिलाएं भी इसे इस्तेमाल करने लगी हैं जो शायद पहले इसे गैर जरूरी या उतना जरूरी नहीं मानती थीं.

हालांकि समाजशास्त्रियों  की मानें तो लिपस्टिक और फेमिनिज्म का रिश्ता काफी पुराना नहीं तो उतना नया भी नहीं है. नारीवाद का एक दौर ऐसा भी रहा है जिसे लिपस्टिक फेमिनिज्म कहा गया था. लिपस्टिक फेमिनिज्म, नारीवाद का तीसरा दौर था जिसकी शुरुआत 1990 के दशक की शुरूआत से मानी जाती है. इस दौर में महिलाओं ने फेमिनिन यानी स्त्री होने के परंपरागत प्रतीकों को अपनाना शुरू किया था जिनमें लिपस्टिक सहित हर तरह का साज-श्रृंगार शामिल था. यानी, उनके स्त्री होने की पहचान और प्रतीकों को भी – फिर चाहे वह मेकअप हो या गहने या फिर हाई-हील वाली चप्पलें – फेमिनिज्म से जोड़कर देखा जाने लगा. बाद में सर्वसुलभ और सुविधाजनक लिपस्टिक इसका सबसे बड़ा प्रतीक बन गई.

अब अगर यहां पर नारीवाद के अलग-अलग दौरों पर भी थोड़ी चर्चा करना चाहें तो इसका पहला दौर सन 1848 से 1920 के बीच के वक्त को माना जाता है. इस दौरान कई पश्चिमी देशों में महिलाओं ने मतदान के अधिकार के लिए अपनी आवाज उठानी शुरू की थी और लंबे संघर्ष के बाद इसे हासिल किया था. इसी चरण के दौरान महिलाओं को शिक्षा और रोज़गार में बराबरी के मौके और गर्भपात का अधिकार देने के लिए भी पहली बार आवाज उठाई गई थी. नारीवाद का दूसरा चरण 1963 से 1980 के दशक के कुछ सालों के बीच का समय माना जाता है. इसमें महिलाओं ने अपने शरीर पर अधिकार होने की बात कही थी. इस समय महिलाओं के ऑब्जेक्टिफिकेशन (वस्तु की तरह समझे या बरते जाने) से लेकर यौन शोषण तक के खुले विरोध की शुरूआत हुई थी. इसी दौर में ब्रा जलाने, वैक्सिंग न करवाने, मेकअप से परहेज करने और भावनात्मक तौर पर मजबूत बनने जैसी बातें नारीवाद का हिस्सा बनी थीं.

तीसरे दौर पर आएं तो जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, यह महिलावाद के दूसरे दौर से बिलकुल विरोधाभासी लगने वाली बात करता था. दूसरा दौर जहां हर तरह के साज-श्रृंगार से परहेज करने की बात कहता था, वहीं तीसरे में इसे डंके की चोट पर स्वीकार किए जाने की बात कही गई है. दरअसल, लिपस्टिक फेमिनिज्म पहला मौका था जब फैशन को भी फेमिनिज्म का हिस्सा बनाया जाने लगा. इससे पहले के दौर में जहां महिलाओं ने ‘नैचुरल सेल्फ’ को स्वीकार बनाने की कोशिश की थी, वहीं इस दौर में ‘अग्ली फेमिनिस्ट (बदसूरत नारीवादी)’ की छवि को तोड़ने के साथ-साथ यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि अगर महिलाएं मेकअप करती हैं तो उसकी वजह पुरुष नहीं हैं.

हालांकि लिपस्टिक फेमिनिज्म का यह दौर इतना छोटा रहा कि न सिर्फ कुछ लोग इसे थर्ड-वेव ऑफ फेमिनिज्म मानने से ही इनकार करते हैं बल्कि इसे लेकर बहुत तरह की असहमतियां और भ्रम आज भी कायम हैं. लेकिन फिर भी ज्यादातर समाजशास्त्रियों के लिए 21वीं सदी का दूसरा दशक न सिर्फ नारीवाद की वापसी का समय है बल्कि इसे वे चौथे चरण का फेमिनिज्म कहकर ही संबोधित कर रहे हैं. यानी कि वे लिपिस्टिक फेमिनिज्म को नारीवाद के एक दौर के रूप में स्वीकार करते हैं.

नारीवाद का चौथा दौर पिछले सभी चरणों की बातों को खुद में शामिल करता है और हर उम्र, नस्ल, रंग, वर्ग से जुड़े हर तरह के भेदभाव की खिलाफत करता है. चौथे दौर का नारीवाद जहां महिलाओं को अपने कैसे भी शरीर पर गर्व करने की बात कहता है, वहीं मेकअप, फैशन और हंसने-बोलने के तरीकों को उनकी चॉइस बताता है. यह उनकी सेक्शुअल अभिव्यक्ति को भावनात्मक अभिव्यक्ति जितना ही ज़रूरी और वाज़िब ठहराता है. इसके साथ ही इसमें लैंगिक बराबरी की बात करते हुए लैंगिकता के पूरे स्पेक्ट्रम यानी लेस्बियन, गे, बाईसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीयर का जिक्र भी शामिल है. सबसे ज़रूरी बात कि ज्यादातर मौकों पर यह डिजिटल है. कार्यस्थल पर यौन शोषण के खिलाफ शुरू किया गया मीटू आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.

चौथे दौर के नारीवाद की खासियत यह है कि यह पिछले चरणों की सभी अच्छी बातें स्वीकारता है और उन्हें आगे बढ़ाता है लेकिन उनके कुछ भ्रमों या गलतफहमियों से निपटता भी है. यह नारीवाद, नारीत्व के पहचान प्रतीकों को पितृसत्ता के असर की तरह नहीं बल्कि महिलाओं की इच्छा, उनकी सौंदर्य की चाह और विशिष्टता की तरह देखता है. वह इन्हें भी उसी समग्रता से स्वीकार करने की मांग करता है जितना महिलाओं की आज़ादी को. अच्छा यह है कि अब सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर लगभग हर दिन इस तरह की चर्चाएं चलती रहती हैं.

चौथे दौर के फेमिनिज्म के संदर्भ में भारत का जिक्र करें और लिपस्टिक पर लौटें तो देश के अलग-अलग हिस्सों में, इसे लेकर जो समझ दिखायी देती है वह महिलाओं की स्थिति के बारे में बहुत कुछ बताती है. उदाहरण के लिए, शहरों के लिए लिपस्टिक जहां बेहद आम बात होते हुए भी कभी-कभी खास बन जाती है, वहीं छोटे शहरों और कस्बों में इसे हमेशा ही शंका और आशंका की नज़रों से देखा जाता है. लिपस्टिक जैसी छोटी सी चीज के प्रति यह थोड़ा अजीब सा लगने वाला रवैया बताता है कि हमारे यहां महिलाओं को, खासकर उनकी सेक्शुअलिटी को किस कदर नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है.

मध्य प्रदेश के कटनी शहर से बंगलौर नौकरी करने पहुंची पायल गुप्ता कहती हैं कि ‘पोस्ट ग्रैजुएशन तक की पढ़ाई मैंने कटनी में रहकर की है लेकिन मैंने एक भी दिन लिपस्टिक नहीं लगाई. अगर कभी लगाई भी तो हमेशा किसी न किसी ने टोक दिया और मैं घर से बाहर कदम नहीं निकाल पाई. अब मैं रोज़ लिपस्टिक लगाती हूं. मेरे पास कई शेड्स भी हैं. मेरे साथ लिपस्टिक से जुड़ी मज़ेदार बात ये हुई कि जिस दिन मैं पहली बार लिपस्टिक लगाकर बाहर निकली, उस दिन मुझे लगा जैसे मैं भरी भीड़ में बिजूका की तरह दिखूंगी लेकिन जब किसी ने नोटिस ही नहीं किया तो मैंने फोन निकालकर अपना चेहरा देखा कि कहीं छूट तो नहीं गई. इस बात को तीन-चार साल हो गए हैं, पर अब मैं उस दिन की अपने मन की हालत याद करती हूं तो बहुत हंसी आती है. तब ये करना मेरे लिए बहुत बहुत बड़ी बात थी.’

वह कौन सी चीज है जो लड़कियों को लिपस्टिक लगाने से रोकती है, इसका जवाब मध्य प्रदेश के ही मऊगंज कस्बे में रहने वाली प्रिया सोनी देती हैं. इसी साल बीएड की डिग्री हासिल कर, आगे शिक्षक बनने की तैयारी कर रही प्रिया बताती हैं कि ‘लिपस्टिक लगाना तो मतलब हद कर देना है. ये कैसे घूम रही है? लिपस्टिक लगा रखी है आज! क्या कुछ खास बात है. इस तरह के कई सवाल दनदना देते हैं. हमारे यहां लोग यह तक कहने लगते हैं कि ब्याह की बड़ी जल्दी है तुम्हें. लिपस्टिक का मतलब है कि लड़की का कोई चक्कर है या उसे शादी करने की जल्दी है. सजने-संवरने के शौक को हमेशा पति-प्रेमियों से जोड़कर ही देखा जाता है, हम अपने लिए कुछ नहीं कर सकते हैं. हालांकि अब फिर भी थोड़ा-बहुत लड़कियां अपने मन मुताबिक मेकअप करने लगी हैं लेकिन उन्हें अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता है. सबसे ज्यादा दबाव हमारे ऊपर अच्छी लड़की बनने का होता है और अकेली लिपस्टिक आज भी हमारी हर अच्छाई पर भारी पड़ जाती है.’

इंदौर की रहने वाली पूजा शर्मा नर्सरी के बच्चों को पढ़ाती हैं, उनकी बातों से अंदाज़ा लगता है कि लिपस्टिक और मेकअप से जुड़ी सोच में सालों बाद भी कोई खास बदलाव नहीं आया है. पूजा बताती हैं कि ‘इंदौर में तो मैंने कभी ऐसा कुछ नहीं देखा, शायद इसलिए भी कि यहां जब आई तब तक मेरी शादी हो चुकी थी. लेकिन खंडवा, जहां मैं पली-बढ़ी हूं वहां पर लिपस्टिक, काजल लगाने वाली लड़कियों के बारे कहा जाता था, देखो ये कितनी एडवांस है, या इसके मां-बाप ने कितनी छूट दी हुई है. तब तो बिंदी लगाने का शौक भी हो तो कहते थे कि ये लड़की बहुत तेज है. इसे अटेंशन चाहिए. एक टाइम के बाद स्कर्ट-टॉप की जगह आपको सूट ही पहनना होता था. ये मैं आपको पच्चीस साल पहले की बात बता रही हूं. अब तो फिर भी सोशल मीडिया और बाकी सब चीजों के चलते थोड़ा बदलाव आ गया है. लेकिन अब भी ये थोड़ा अजीब लगता है कि लिपस्टिक लगाए जाने को लड़की की समझदारी और सिंसियेरिटी से जोड़कर देखा जाता है. लिपस्टिक मतलब लड़की पढ़ाई या करियर पर ध्यान देने वाली नहीं हैं. और, जितना बदसूरत या अन-मैनेज्ड दिखेगा उसे उतना सिंसियर या पढ़ाकू समझा जाता है.’

कानपुर से पढ़ाई के लिए दिल्ली पहुंचीं और अब यहां एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में काम कर रही प्रतीक्षा पांडेय की बातों से छोटे और बड़े शहरों में लिपस्टिक से जुड़ी धारणाओं का अंतर साफ समझ आता है. दंगल फिल्म का जिक्र करते हुए वे बताती हैं कि ‘दंगल में गीता और बबीता फोगाट को जब उनकी प्रैक्टिस से डिस्ट्रैक्ट होते दिखाते हैं तो उन्हें नेलपेंट लगाते, चूड़ी और दुपट्टे पहनते-ओढ़ते ही दिखाया गया है. हमारी फिल्मों में लड़कियों को अगर उनके लक्ष्य से भटकते दिखाया जाता है तो उन्हें सजते-संवरते दिखाते हैं. यानी, हमारा फेमिनिन व्यवहार गलत है. समाज हमें किसी भी तरह सेक्शुअलाइज होते नहीं देख सकता है. ये सब हमें बचपन से सिखाया जाता था. मैं कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ी थी, वहां मर्जी की हेयरस्टाइल तक नहीं बना सकते थे. नेलपेंट, काजल, लिप बॉम तो भूल ही जाओ. इसलिए मेरी कभी आदत नहीं रही. दिल्ली आकर मैंने अपनी सीनियर्स, अपनी प्रोफेसर्स को देखा कि यहां तो लड़कियां सबकुछ कर रही हैं. वो क्लास टॉपर हैं, वो अपने सब्जेक्ट की ब्रिलियंट हैं, उनके बॉयफ्रेंड्स हैं, वो पार्टी भी कर रही हैं. और सेम टाइम पर वो किताब पर किताब पढ़कर खत्म कर रही हैं. यहां आकर मुझे रियलाइज हुआ कि आप सबकुछ कर सकते हैं और कुछ भी आपको डिफाइन नही करता है. अब मेरा मन करता है तो मैं लगाती हूं, नहीं करता है तो मैं नहीं लगाती हूं.’

दिल्ली में एक अंतर्राष्ट्रीय पब्लिशिंग फर्म में काम करने वाली अमृता तलवार बताती हैं कि ‘मैं दिल्ली में ही पली-बढ़ी हूं. नॉर्मल मेकअप या लिपस्टिक को लेकर मैंने कभी कोई कॉमेंट नहीं सुना. ये हमारी मर्जी पर था. लेकिन एक बार मुझे रेड लिपस्टिक लगाने पर बाज़ारू कहा गया था. वह बात मुझे आज तक याद है. उसके बाद मैं कभी वह रंग लगाने की हिम्मत नहीं कर पाई.’ कुछ इसी तरह की बात मुंबई की एक एड-कंपनी में काम करने वाली तमन्ना कवठेकर कहती हैं, ‘न्यूड कलर्स मेरे फेवरेट हैं क्योंकि जहां मैं काम करती हूं, वहां पर प्रजेंटेबल भी दिखना ज़रूरी है. मेकअप के मामले में बाकी जगह का ज्यादा भी यहां का नॉर्मल है लेकिन ब्राइट कलर्स खासकर रेड लिपस्टिक से मैं बहुत बचती हूं. उसे लगाने पर आपको जज किए जाने का पूरा चांस है.’

अमृता और तमन्ना की तरह रेड लिपस्टिक लगाने में कई महिलाएं असहजता महसूस करती हैं. लाल रंग के होठों को लेकर किस तरह की सोच रखी जाती है, इसका अंदाजा सवाल-जवाबों की वेबसाइट कोरा डॉट कॉम पर पूछे गए एक सवाल से लगाया जा सकता है. सवाल कुछ यों है कि ‘अगर कोई महिला लाल रंग की लिपस्टिक लगाती है, तो क्या इसका कुछ खास मतलब है?’ तमन्ना इसका बहुत सीधा-सपाट जवाब देती हैं, ‘नहीं.’ वे आगे कहती हैं कि ‘लिपस्टिक बाकी मेकअप की तरह ही है. आप मुझसे बात करें, किसी कॉलेज गर्ल से या किसी गांव-देहात की लड़की से. उनमें से कोई भी लड़की यह नहीं कहेगी कि वह लिपस्टिक अच्छे दिखने से अलग किसी और वजह के लिए लगाती है. मैं लाल रंग से बचती हूं क्योंकि मैं लोगों के दिमाग में नहीं घुस सकती. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं इसे लगाना नहीं चाहती.’ आगे वे हंसते हुए जोड़ती हैं कि ‘आखिर कौन मर्लिन मुनरो वाली ब्राइट रेड सेंशुअस स्माइल अपने चेहरे पर नहीं लाना चाहेगा!’

शोध बताते हैं कि वैसे तो किसी भी तरह की लिपस्टिक सामने वाले का, खास कर पुरुषों का ध्यान खींचने वाली होती है और लाल रंग इसकी संभावना कई गुना बढ़ा देता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लाल रंग लगाकर महिलाएं कुछ अलग बात कहना चाहती हैं या किसी तरह का आमंत्रण देना चाहती हैं. यह बहुत चौंकाने वाली बात है कि यह सोच भारत ही नहीं, अपेक्षाकृत आधुनिक माने जाने वाले देशों में भी देखने को मिलती है. बीते साल इन्ही दिनों ब्रिटेन इस बात की चर्चा कर रहा था कि काम की जगहों पर लिपस्टिक पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए या नहीं. वैसे अठारवीं सदी में यहां की संसद ने लिपस्टिक को यह कहते हुए प्रतिबंधित कर दिया था कि यह पुरुषों को फंसाने का एक शैतानी तरीका है. अब दुनिया में ज्यादातर जगहों पर लिपस्टिक प्रतिबंधित भले ही न हो लेकिन इसे लेकर कई लोगों की सोच अब भी अठारवीं सदी में ही घूम रही है.

भारत के संदर्भ में प्रतीक्षा कहती हैं कि ‘हमारे यहां हर चीज स्टीरियोटाइप बहुत जल्दी हो जाती है. मेकअप और लिपस्टिक के साथ भी यही है. मेरे लिए यह बाज़ार से मिली एक रेगुलर चीज है. बाज़ार पुरुषों को भी दस तरह की चीजें देता है कि अलां बियर्ड ऑयल तो फलां शैम्पू. लेकिन औरतों के मामले में ऐसा ज्यादा है. अब मेरा थंबरूल यह है कि मैं लिपस्टिक इसलिए नहीं लगाऊंगी कि तुम कहते हो कि मैं सुंदर नहीं हूं और मैं लिपस्टिक इसलिए पोछूंगी नहीं कि तुम कहते हो कि ऐसा करने वाली लड़कियां डम्ब, चालू या रिझाने वाली होती हैं. लेकिन हां, मुझे यहां तक पहुंचने में कई सालों का टाइम लगा है.’

प्रतीक्षा का यह कहना इस बात की तरफ ध्यान खींचता है कि महिलाएं इस बात के लिए भले ही थोड़ी राहत महसूस कर लें कि चीजें धीरे-धीरे बदल रही हैं लेकिन इसमें उनकी बहुत सारी ऊर्जा, समय और मेंटल एफर्ट गैरजरूरी तरीके से लग रहा है, जिसका इस्तेमाल किसी और बेहतर काम के लिए किया जा सकता है. प्रिया सोनी, अपनी बातों के बीच में एक बात कहती हैं कि ‘मेरे आसपास जब कोई लड़कों से बराबरी, घूमने-फिरने की आज़ादी और नौकरी करने जैसी बात कहता है तो मुझे ज़ोर से हंसने का मन होता है. लिपस्टिक-काजल जिनसे बरदाश्त नहीं होता, वो बड़ी-बड़ी फेंकें तो खून जलेगा नहीं! आपको नहीं लगता है कि लिपस्टिक लगाने का आंदोलन होना चाहिए? और, वो बस ऐसे कि सब लोग लिपस्टिक लगाएं. बस.’

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