हिंदुस्तानी सिनेमा में ग़ज़लों के सबसे बड़े संगीतकार मदनमोहन को एक बार भी फ़िल्मफेयर सम्मान नहीं मिला
अनुराग भारद्वाज | 14 जुलाई 2020
लता मंगेशकर से सन 1967 में पूछा गया था कि उस साल उनके गाये हुए 10 बेहतरीन गाने कौन से हैं. उनकी फ़ेहरिस्त में सिर्फ एक संगीत निर्देशक के दो गाने थे- ‘लग जा गले से फिर ये हसीं रात हो न हो’ और ‘बैरन नींद न आये’. बाकी अन्य संगीतकारों के एक, या वह भी नहीं. ये गाने नौशाद के नहीं, न शंकर जयकिशन के, लक्ष्मी-प्यारे के भी नहीं. ये नगमे थे मदन मोहन कोहली या सिर्फ़ मदन मोहन के.
मदन मोहन के काम का दायरा इतना बड़ा है कि उसकी पैमाइश एक लेख में नहीं हो सकती. उनका बग़दाद में 25 जून को पैदा होना, बचपन से ही प्रतिभाशाली होना, पिता राय बहादुर चुन्नीलाल का बॉम्बे टॉकीज़ का संस्थापक होना, संगीत के जुनून के चलते घर से निकाला जाना, किशोर कुमार की ही तरह संगीत की कोई फॉर्मल ट्रेनिंग न लेना और जद्दन बाई जैसी गायिका का बच्चे मदन मोहन से प्रभावित होना, ये सब बातें उनके काम के आगे कम ही अहमियत रखती हैं. हम सिर्फ उनकी संगीत की विरासत की बात करेंगे.
ग़ज़लों के सबसे बेहतरीन कंपोज़र
यह सच है, और संगीत के नामचीन भी गंगाजल हाथ में लेकर कहते हैं कि हिंदी फ़िल्म संगीत में ग़ज़लों की कंपोज़ीशन मदन मोहन से बेहतर कोई नहीं कर सका. लता मंगेशकर तो उन्हें ग़ज़लों का बादशाह कहती थीं. उनका फ़िल्मी सफ़र 1951 में देवेन्द्र गोयल की ‘आंखें’ फ़िल्म से शुरू होता है, पर उनके संगीत में ग़ज़लों की रवानगी ‘ख़ूबसूरत’ (1952) में तलत महमूद की गाई ग़ज़ल ‘मोहब्बत में कशिश होगी तो एक दिन तुमको पा लेंगे’ से शुरू होती है और 1958 में ‘अदालत’ की ग़ज़ल ‘यूं हसरतों के दाग़ मुहब्बत में धो लिए’ ‘मदन मोहन’ स्टाइल बन जाती है.
मदन मोहन ने ‘दाना पानी’ (1953) में बेग़म अख्तर से कैफ़ इरफ़ानी की ग़ज़ल ‘ऐ इश्क़ मुझे और तो कुछ याद नहीं है’ गवाई. बेग़म अख्तर साहिबा फ़िल्मों के लिए गाना छोड़ चुकी थीं. उनका मदन मोहन के इसरार पर वापस आना इस बात की तस्दीक करता है कि वे ग़ज़ल की कंपोज़ीशन करते वक़्त पूरी ईमानदारी बरतते थे. पंकज राग अपनी किताब ‘धुनों की यात्रा’ में लिखते हैं, ‘पांचवें दशक के बाद बेग़म अख्तर ने यदि किसी के लिए गया तो वे मदन मोहन ही थे’.
ग़ज़लों के साथ इंसाफ करने की नीयत की बानगी एक क़िस्सा यूं है कि ‘मौसम’ फ़िल्म में गुलज़ार ने अपने पसंदीदा संगीतकार को छोड़कर मदन मोहन को चुना क्योंकि फिल्म का मिज़ाज कुछ ऐसा ही था. फ़िल्म की ग़ज़ल ‘रुके-रुके से क़दम रुक के बार-बार चले’ बहुत मशहूर हुई थी, और आज भी है.
मदमोहन के साथ लता की गाई हुई एक से एक नायाब ग़ज़लें हैं. मसलन, ‘धुन’(1953) की ग़ज़ल ‘बड़ी बर्बादियां लेकर दुनिया में प्यार आया’. ‘अनपढ़’ (1962) की, ‘आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे’ तो अब कल्ट बन चुकी है. मजरुह सुल्तानपुरी की ‘दस्तक’(1970) की ग़ज़ल, ‘हम हैं मता-ए-कूचा-औ-बाज़ार की तरह’ हो या फिल्म ‘जहांआरा’ की ‘वो चुप रहें तो मेरे दिल के दाग़ जलते हैं’, सब बेमिसाल हैं.
पंकज राग लिखते हैं कि राग मालगुंजी में ‘उनको ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते’ या ‘जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए’ ग़ज़ल क्या इतने रूपों में इतनी ऊंचाई कभी पा सकी थी?’ तो इसका जवाब इस क़िस्से से मिल जाता है. 1950 और 60 का दशक भारतीय सिनेमा का वह दौर था जब नौशाद से बढ़कर कोई संगीतकार नहीं था. नौशाद ने 1975 में एक टीवी कार्यक्रम के दौरान कहा था कि ‘आपकी नज़रों ने समझा’ और ‘है इसी में प्यार की आबरू वो जफ़ा करे मैं वफ़ा करूं’ के बदले वो अपना पूरा काम मदन मोहन को दे सकते हैं. अब कई जानकारों ने इसे बढ़ा-चढ़ाकर लिखा है. पर, यह कुछ ऐसा ही है जैसा ग़ालिब ने मोमिन के शेर ‘तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता’ के बदले अपना दीवान देने की बात कही थी. न ग़ालिब अपना दीवान देते, न नौशाद यह सौदेबाज़ी करते. राजू भारतन ‘नौशादनामा’ में इस क़िस्से पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ‘नौशाद का मतलब सिर्फ उन्हें श्रद्धांजलि देने का था. पर हां, नौशाद को इस बात का मलाल था कि ग़ज़ल कंपोज़ीशन में वो मदन मोहन से कमतर थे.’
गीतों के मदन
पंकज राग के मुताबिक ऐसा नहीं कि मदन मोहन शुरुआत से ही परिष्कृत ग़ज़लों के विशेषज्ञ रहे. उनकी आरंभिक फ़िल्मों का संगीत तो कमोबेश उन दिनों प्रचलित परिपाटी को लेकर ही चला था. वे आगे लिखते हैं, ‘किसी भी गाने की धुन बनाते समय निकली गयी तानों में से गीत के लिए उपयुक्त सबसे सटीक तान चुनने में उनका कोई सानी नहीं था.’ बात सही है. ‘मौसम’ फिल्म के गीत ‘दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन’ के लिए उन्होंने 10 धुनें बनायीं थी.
दरअसल, मदन मोहन के अंदर शब्दों के साथ जुड़ी हुई लय को पहचानने की ज़बरदस्त क्षमता थी. राय बहादुर चुन्नीलाल बग़दाद में अपने दोस्तों को बड़े शौक से एक खेल दिखाया करते थे. वे दो साल के मदन मोहन को कई सारे रिकॉर्डों में से अमुक रिकॉर्ड निकालकर लाने को कहते और मदन वही लेकर आते!
1964 में चेतन आनंद ने एक फ़िल्म बनायी थी ‘हकीक़त’. यह हिंदुस्तानी सिनेमा में किसी जंग को लेकर बनायी हुई अब तक की सबसे मौलिक फ़िल्म है. चेतन आनंद मदन मोहन की कुव्वत जानते थे. यहां से मदन मोहन कैफ़ी आज़मी के साथ जुड़ गए. ‘मैं ये सोचकर उस दर से उठा था’ आप जब भी सुनें एक अलग ही अनुभूति देती है. एक इंटरव्यू में जावेद अख्तर बताते हैं कि इस फिल्म के आख़िर में ‘कर चले हम फ़िदा जां-ओ-तन साथियों’ गीत बजता है. मजाल था कि दर्शक से उठकर चल दे. वो बैठा रहता था और आंसू बहता रहता था. ऐसा असर था मदन मोहन का.
बाद में मदन मोहन और कैफ़ी ‘हीर रांझा’(1970), ‘हंसते ज़ख्म’(1973) में साथ थे. ‘हीर रांझा’ फिल्म ऑपेरानुमा थी. मदन के कंपोज़ीशन में कैफ़ी आज़मी के गीतों ने कमाल का जादू रचा था. ‘हंसते ज़ख्म’ का वह गीत ‘तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है’ अब एक क्लासिक का स्टेटस रखता है. कैफ़ी आज़मी के अलावा राजेंद्र कृष्ण और राजा मेहंदी अली खान भी मदन मोहन के सबसे पसंदीदा गीतकार रहे.
पर यह सब इतना आसान नहीं था. उनकी पहली फ़िल्म के गीत तो हिट हुए थे, पर बाद में उन पर फ्लॉप फ़िल्मों में संगीत देने वाला ठप्पा लग गया था. बीच का एक ऐसा दौर भी आया जब मदन मोहन ओपी नैयर जैसा हल्का-फुल्का संगीत दे रहे थे, पर कुछ ख़ास बात बन नहीं रही थी. तभी 1956 में आई ‘भाई-भाई’. इसका गाना ‘ऐ दिल मुझे बता दे तू किस पे आ गया है’ ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. पिक्चर हिट हुई. मदन मोहन के सिर से ‘फ्लॉप’ वाला टैग हट गया.
दरअसल, उनका एक ख़ास अंदाज़ था. अब आप इसको अतिरेक मानेंगे पर यह बात सही है कि जिस तरह ग़ालिब ‘ख़ास’ के शायर थे, मदन मोहन का संगीत श्रेष्ठी (एलीट) वर्ग में ज़्यादा लोकप्रिय था. यहां उनको ग़ालिब के समकक्ष रखने की जुर्रत नहीं हो रही है, बस समझने की एक कोशिश है कि वे लोकप्रिय क्यों नहीं हुए. और शायद यही कारण भी रहा कि दोनों ही दुनिया से रुखसत होने के बाद ज़्यादा पढ़े गए और सुने गए.
लता के भैया
लता मंगेशकर मदन मोहन को भाई मानती थीं और मदन मोहन भी उसी तरह उनसे पेश आते थे. यह बड़े कमाल की बात है कि अच्छी आवाज़ के धनी मदन मोहन ने ग़ुलाम हैदर के संगीत में एक डुएट लता के साथ गया था पर वह फिल्म में लिया नहीं गया. तभी से वे लता से प्रभावित हो गए. बावजूद इसके, लता ने उनकी पहली फिल्म ‘आंखें’ के लिए गाना नहीं गया था. कारण, लता को ये लगता था कि इतने बड़े बाप का बेटा शौकिया ही काम कर रहा है, लिहाज़ा उन्होंने मदन मोहन को गंभीरता से नहीं लिया. पर जब ‘आंखें’ का संगीत हिट हुआ तो उन्होंने अपनी राय बदल ली और फिर वे एक दूसरे के पूरक बन गए. ‘मदहोश’ से शुरू हुआ सफ़र फिर कभी नहीं रुका.
मदन मोहन हर फ़ीमेल सिंगर में लता ही ढूंढ़ते. हिंदी फिल्मों के संगीत पर काफी कुछ लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राजू भारतन एक क़िस्से का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि 1957 में एक प्रोगाम में मदन मोहन और कुछ नामचीन संगीतकार बतौर जज आये थे. वहां भाग लेने आये महेंद्र कपूर को जजों ने सर्वश्रेष्ठ प्रतियोगी माना. आरती मुखर्जी को महिला श्रेणी में अव्वल चुना गया. अनिल बिस्वास आरती मुखर्जी के नाम पर अड़ गए थे. इस पर मदन मोहन ने कहा कि वे तो लता के नज़दीक भी नहीं पहुंचतीं.
लता की आवाज़ के साथ उन्होंने प्रयोग भी किये. यतींद्र मिश्र ‘लता सुर गाथा’ में लिखते हैं, ‘मदन मोहन उतने पाए के संगीतकार न होते यदि उनके कार्य क्षेत्र में लता और तलत महमूद जैसे पार्श्वगायकों की उपस्थिति न होती.’ वे आगे लिखते हैं, ‘लता और मदन मोहन का समीकरण आज किवदंती बन चुका है, जिसे अलगा पाना उतना ही जटिल होगा, जितना कि स्वयं ग़ज़लों की रूहों को निकालकर मदन मोहन के संगीत को देख पाना.’
‘वो कौन थी’ के गीत ‘लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो’ या फिर ‘नैना बरसे रिमझिम’ इस हक़ीक़त की बानगी हैं. नैना बरसे के साथ एक क़िस्सा यह है कि जब यह शूट होना था तो लता बीमार हो गईं. यूनिट शूटिंग के लिए जा चुकी थी. साधना पर गाना फ़िल्माया जाना था. मदन मोहन ने अपनी आवाज़ में गाकर इसे भेज दिया. शूटिंग देखने वाले लोग अचरज में पड़ गए कि साधना होंठ हिला रही थीं, आवाज़ मर्द की थी.
फिर इसके बाद साधना ही की एक और फिल्म आई थी ‘मेरा साया’. ‘नैनों में बदरा छाए बिजली सी चमके हाय’ खुद लता के सर्वकालिक महान गीतों में से एक है. ‘तू जहां जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’ भी इसी दर्ज़े का गीत है.
ऐसे विलक्षण संगीतकार को एक बार भी फिल्मफेयर पुरस्कार नहीं मिला. इसकी वजह से वे अवसाद और शराबनोशी में डूबे रहते. और तो और, उनके बेटे संजीव कोहली ने अपने स्कूल में उनके किसी गाने के बजाय शंकर-जयकिशन का ‘बहारों फूल बरसाओ’ को चुना.
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