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‘बापू का अस्थिकलश ले जा रही गाड़ी के पूरे रास्ते में दोनों तरफ रोते हुए लोग खड़े थे’

महात्मा गांधी की अंतिम यात्रा

नई दिल्ली. समय है साढ़े चार बजे भोर सुबह. मैं उस हरे रंग की विशेष रेल के उस डिब्बे के आगे खड़ा हूं, जिसमें गांधीजी की अस्थियों का कलश रखा हुआ है. यह डिब्बा रेलगाड़ी के बीच में लगाया गया है. पूरी विशेष गाड़ी तीसरे दर्जे के डिब्बों की है – गांधी जी हमेशा तीसरे दर्जे में ही यात्रा किया करते थे. बीच का वह विशेष डिब्बा. प्रदीप्त रंगों से रंगा हुआ. एक आयताकार टेबिल पर एक पालकी में अस्थिकलश रखा था. टेबिल पर बिछा था फूलों और हरी पत्तियों से बना चादर. कलश ढंका था हाथ से बुने और हाथकते तिरंगे झंडे से. डिब्बे के चारों कोनों पर सुंदर पताकाएं टंगी थीं. डिब्बे के भीतर पूरी छत भी तिरंगे से ढकी थी. कलश पर पड़ती विशेष रोशनी सारे वातावरण को एक अजीब सी पवित्रता में स्नान करा रही थी.

प्लेटफॉर्म पर हजारों लोग अस्थिकलश की इस रेलगाड़ी को विदा देने खड़े थे. छह बजकर तीस मिनट पर इंजिन ने सीटी बजाई. रेल धीरे-धीरे सरकने लगी. लोग रोते हुए उस गाड़ी को देख रहे थे जो बापू के पार्थिव शरीर के अंतिम अवशेषों को लेकर उनसे दूर जा रही थी. कुछ हाथ बंधे थे. कुछ हाथ फूलों की पंखुड़ियां अर्पित कर रहे थे चलती रेल पर तो कुछ बस चुपचाप सिर झुकाए खड़े थे, उस व्यक्ति को विदा देने, जिसने उन्हें सिखाया था सिर उठाकर जीना.

यह हरी रेलगाड़ी दिल्ली से निकल धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी कि ठंडी सुबह की लालिमा उस पर पूरी तरह से बिखर गई. हमारा डिब्बा अस्थिकलश वाले डिब्बे के बाद वाला था. रास्ते में सब शोक मग्न लोग पटरी के दोनों तरफ कलश वाली गाड़ी को अंतिम प्रणाम करने सिर झुकाए खड़े थे. दोनों तरफ खेतों में सरसों की पीली चादर बिछी पड़ी थी. हवा चलती, यह बड़ी चादर यहां से वहां लहरों में बदल जाती. बीच में कहीं-कहीं पगडंडियां थीं. मुझे न जाने क्यों इन पगडंडियों में उस विभूति के पगचिन्ह दिखते. वह पूरा हिंदुस्तान घूमा था, उन सबसे मिला था जो आज रेल की पटरी के दोनों ओर सिर झुकाकर उसे विदा कर रहे थे.

गाड़ी चलती रही. दिल्ली से निकल कर गाजियाबाद, खुर्जा, अलीगढ़, हाथरस, टूंडला, फिरोजाबाद, इटावा, फफूंद, कानपुर, फतेहपुर और रसीलाबाद स्टेशनों पर जमा हुई भीड़ का वर्णन ही नहीं किया जा सकता है. टूंडला में तो हमारा डिब्बा अस्पताल में बदल गया था. भीड़ में कुछ महिलाएं बेहोश हो गई थी, कुछ बच्चे कुचल गए थे और उन्हें बचाने में कुछ सिपाही भी घायल हुए थे. इन सबको हमारे ही डिब्बे में लाकर इनका प्राथमिक उपचार किया गया था. हर जगह हजारों की संख्या में लोग अंतिम दर्शन के लिए आए थे और इनमें से हरेक कलश पर फूल अर्पित किए बिना वापस नहीं लौटा था. डिब्बे के नीचे लोहे के पहियों का तालबद्ध संगीत तो डिब्बे में भजनों का उतना ही लय में बंधा गान. और दोनों तरफ अभी भी सरसों के सुंदर पीले-पीले खेत.

‘संतरा लीजिए!’ आवाज सुनकर मुझे एकदम याद आया कि मैंने तो रात से अभी तक कुछ भी नहीं खाया है. मैंने अपनी बगल की सीट पर अभी-अभी आकर बैठे उस व्यक्ति को देखा. हम थोड़ी ही देर में मित्र बन गए. वे मुझे धीरे-धीरे बापू के प्रेरणादायी किस्से सुनाते गए. उनका नाम था श्री वीके सुंदरम. वे पिछले बत्तीस बरस से बापू के साथ थे.

फतेहपुर शहर छूट चला था. गाड़ी धीरे-धीरे बढ़ रही थी. लोग और बच्चे गाड़ी के साथ-साथ भाग रहे थे. हाथों को फैलाए हुए, कलश पर चढ़े फूलों का प्रसाद पाने. कुछ बच्चे अपनी कमीज को झोली की तरह फैलाए खड़े थे कि गुजरती यह विशेष गाड़ी उनकी इस झोली में प्रसाद डालकर आगे जाए. अब गाड़ी ने गति पकड़ ली थी. महात्मा गांधी की जय-जयकार की आवाजें धीमी पड़ती जा रही थीं. बगल में बैठे हमारे साथी एक सूख चुके फूल को हाथ में लिए बस देखते ही चले जा रहे थे. फिर उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे. मैं कुछ पूछता उसके पहले ही उन्होंने बहुत ही भावुक और धीमी आवाज में उत्तर दे दिया, ‘इसी फूल को मैंने उनकी छाती पर गोली से बने घाव पर रख दिया था.’ इसके बाद हम दोनों के बीच फिर कोई बातचीत नहीं हुई.

हमारी गाड़ी किसी छोटे स्टेशन को पार कर आगे बढ़ रही थी. पटरी के किनारे पर बने एक मकान की छत पर एक सिपाही खड़ा था. अपनी पूरी वर्दी में. कलश का डिब्बा जब उसके सामने से गुजरा तो उसने पूरे आदर के साथ सिर झुका कर सलामी दी. एक शहीद को एक सिपाही की सलामी थी यह. लाखों लोग इस रेलगाड़ी के दोनों तरफ खड़े होकर पूरे रास्ते रोते रहे. लाखों इस गाड़ी के सामने प्लेटफॉर्म पर खड़े रोते रहे. और ये सब तरह के लोग थे. समाज के हर अंग से, हर कोने से आए ये लोग थे. ये पूरे देश की भावनाओं की झलक थी. और यह भावना धरती से होते हुए अब नदी में भी उतर आई थी.

हम प्रयाग में त्रिवेणी पर थे. यहां फूल प्रवाहित किए जा रहे थे. अनंत काल से, अनंत युगों से जो स्थान पवित्रतम माना गया है, आज उसमें अपने युग के पवित्रतम व्यक्ति के फूल विसर्जित किए जा रहे थे. प्रवाहित कर रहे थे श्री रामदास गांधी. हमारी यह नाव किनारे से कोई चालीस गज दूरी पर थी. हजारों लोग ऐसे थे जो भूमि समाप्त होने पर वहीं रूक नहीं गए थे. वे अब नाव के पीछे-पीछे जहां तक हो सकता था, घुटने-घुटने, कमर-कमर तक पानी में आ खड़े थे. कलश पूरा गंगा में उड़ेला जा चुका था. साथ ही दूध भी. नदी सफेद हो चमक उठी थी. यात्रा का अंत था. दिव्य प्रवाह के माध्यम से बापू अनंत में जा मिले थे.

प्रयाग पर अंधेरा छाने लगा था. दीये जलने लगे थे. हम सब भी वापिस लौटने की तैयारी में थे. जाते-जाते हमने एक बार फिर संगम की तरफ देखा. गंगा में धीरे-धीरे दीये तैरते हुए टिमटिमा रहे थे तो ऊपर आकाश में उतने ही तारे स्थिर से खड़े थे. टिमटिमाते तारे और टिमटिमाते दीये. बापू उन तारों में जा मिले थे, नीचे छूट गई उनकी स्मृतियां उन दीयों की तरह थीं जो अंधेरे में भी कुछ आशाएं बिखेर रहे थे. ये दीये जलते रहेंगे, चमकते रहेंगे, तब तक जब तक हमारी यह सभ्यता रहेगी.