महात्मा गांधी की जयंती के प्रतीकात्मक छलावों में उनकी लाठी, चश्मा, चरखा, घड़ी और खड़ाऊं भले ही दिख जाएं, लेकिन उनके सपनों का भारत नहीं दिखता
अव्यक्त | 02 अक्टूबर 2021
गांधीजी की हत्या के बाद जब लोग राजघाट से उनकी राख चुटकी-चुटकी भर समेटकर ले जा चुके थे और भारत का लगभग हर वर्ग खुद को अनाथ समझ रहा था, तो उसके केवल छह हफ्ते बाद सेवाग्राम में गांधीजी के लगभग सभी प्रमुख सहयोगी इकट्ठा हुए. 11 मार्च से 15 मार्च, 1948 यानी पांच दिनों तक नेहरू, विनोबा, कृपलानी, कुमारप्पा, जेपी, मौलाना आज़ाद, डॉ. जाकिर हुसैन, तुकडोजी महाराज, आर्यनायकम् दंपति, दादा धर्माधिकारी, काका कालेलकर और मृदुला साराभाई जैसे 47 लोग एक साथ बैठकर इसपर चर्चा करते रहे कि आगे देश में क्या-कैसे हो. सरदार पटेल अपनी अस्वस्थता के चलते और राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, आचार्य नरेन्द्र देव और डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे गांधीजी के सहयोगी अलग-अलग कारणों से इस बैठक में भाग नहीं ले सके थे. इन बैठकों की अध्यक्षता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने की थी. गांधीजी के अधूरे काम को आगे कैसे बढ़ाया जाए इसपर सबने खुलकर अपनी बात रखी थी. बाद में इनमें से कई लोगों ने अपनी-अपनी तरह से गांधीजी के अधूरे काम को आगे बढ़ाने की कोशिश भी की.
गांधीजी की जन्मशती यानी साल 1969 तक इनमें से कई लोग जीवित थे. हालांकि पटेल, नेहरू और लोहिया इस दुनिया में नहीं रहे थे. लेकिन बाकी बुढ़ाते गांधीजनों के लिए सबसे दुःख की बात यह थी कि दो अक्टूबर, 1969 को जब एक तरफ गांधीजी की जन्म शताब्दी मनाई जा रही थी, तो दूसरी तरफ गुजरात के अहमदाबाद में भयानक सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे. मरनेवालों का आधिकारिक आंकड़ा करीब 700 का था. वही अहमदाबाद जहां साबरमती के किनारे गांधीजी ने अपना आश्रम बनाया था. और वही क़ौमी एकता का मसला जिसको लेकर गांधीजी को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, एक बार फिर से गुजरात में धधक रहा था.
संयोग से गांधीजी के सबसे प्रिय सहयोगियों में से एक रहे खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें हम बादशाह खान और सीमांत गांधी के नाम से भी जानते हैं, उन्होंने गांधीजी की भांति ही दंगा प्रभावित क्षेत्रों में जाने का फैसला किया. वहां बेधड़क जाकर उन्होंने पीड़ितों को सांत्वना दी. आक्रमणकारियों को समझाने का काम किया. इसके बाद जब वे सेवाग्राम आश्रम पहुंचे तो उनका स्वागत करने के लिए विनोबा एक दिन पहले ही वहां पहुंच गए थे. शाम की प्रार्थना में दोनों साथ-साथ गए. और गांधीजी के शताब्दी वर्ष में भारत में मचे हिंसा के तांडव और सांप्रदायिक उपद्रवों पर घंटों बातचीत करते रहे. इस चर्चा में जयप्रकाश नारायण भी मौजूद थे. 8 नवंबर, 1969 को तीनों ने मिलकर एक संयुक्त वक्तव्य प्रकाशित किया, जिसमें कार्यकर्ताओं से अनुरोध किया गया कि ‘वे आगे आएं और जनता की सेवा द्वारा और जनता की शक्ति को संगठित करके देश की बिगड़ी हालत का मुकाबला करें.’ उन बुढ़ाते गांधीमार्गियों का इतना असर तो जरूर हुआ था कि दंगों पर शांतिपूर्ण तरीकों से काबू पा लिया गया.
गांधीजी ने कई अवसरों पर कहा था कि वे 125 साल जीना चाहते हैं. पहली बार उन्होंने यह बात 8 अगस्त, 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में कही थी. उनके शब्द थे, ‘दोस्तों मेरा विश्वास करो. मैं मरने के लिए कतई उत्सुक नहीं हूं. मैं अपनी पूरी आयु जीना चाहता हूं. और मेरे विचार से वह आयु कम-से-कम 120 साल है. उस समय तक भारत स्वतंत्र हो जाएगा और संसार स्वतंत्र हो जाएगा. मैं आपको यह भी बता दूं कि मैं इस दृष्टि से इग्लैंड या अमेरिका को भी स्वतंत्र देश नहीं मानता. ये अपने ढंग से स्वतंत्र देश हैं. ये पृथ्वी की अश्वेत जातियों को दासता के पाश में बांधे रखने के लिए स्वतंत्र हैं. …आप स्वतंत्रता की मेरी परिकल्पना को सीमित न करें.’
लेकिन वही गांधी अपनी मृत्यु से लगभग दो महीने पहले 2 दिसंबर, 1947 को पानीपत की एक सभा में कहते हैं, ‘आप चाहें तो एक अनुभवी बूढ़े आदमी की बात को सुन सकते हैं, क्योंकि आज मेरी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह हो गई है. …आज मुझमें जीते रहने की इच्छा और इसका उत्साह नहीं है. एक समय था जब मैं 125 साल जीना चाहता था और रामराज्य लाना चाहता था. लेकिन यदि मुझे आपका सहयोग ही नहीं मिला तो मैं अकेले क्या कर सकता हूं?’
वैसे अगर गांधी 125 साल सचमुच जी जाते तो देख पाते कि उन्हीं की प्रेरणा से अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर अश्वेतों के लिए नागरिक अधिकार आंदोलन अहिंसक रूप से चलाते हैं और उनकी जीत होती है. गांधी यह भी देख पाते कि किस तरह ठीक उसी साल जिस साल वे 125 साल के होते, यानी 1994 में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का अंत होता है और उसके नायक नेल्सन मंडेला गांधी को अपना आदर्श बताते हैं.
लेकिन उन्हीं वर्षों में गांधी भारत में क्या देखते? वे देखते कि किस तरह 1992 में कौमी एकता को तार-तार कर देने का संगठित बहुसंख्यकवादी प्रयास होता है. 1993 में केंद्र की एक अल्पमत सरकार पर सांसदों की खरीद-फरोख्त कर बहुमत हासिल करने का इल्जाम लगता है. 1994 में भारत अपनी पृथ्वी मिसाइल को दुनिया के सामने रखकर इस उपमहाद्वीप में और पूरी दुनिया में हथियारों की होड़ में शामिल होता है. अगले साल 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा बनकर विकसित देशों की व्यापारिक रणनीति का शिकार होता है और कई प्रकार की नीतिगत स्वतंत्रता खो बैठता है. उदारीकरण की प्रक्रिया अपनाकर श्रम और श्रमिक विरोधी नीतियां लागू करने पर विवश होता है. गांधीजी 125 वर्ष जीते तो यही सब देखते न?
आज हम उनकी 152वीं मना रहे हैं. लेकिन याद रहे कि यह उनकी हत्या का 73वां साल भी है. विनोबा, लोहिया और जेपी के बाद दूर-दूर तक हमें अब गांधी-विचार परंपरा का कोई भी ऐसा अहिंसक नेतृत्व नज़र नहीं आता, जो सत्याग्रह और स्वराज को सही मायनों में समझता हो और इसके लिए राष्ट्रव्यापी संघर्ष छेड़ने की सर्वस्वीकार्यता रखता हो. और जो लोग स्वराज का वास्तविक अर्थ समझते भी हैं या ज़मीनी स्तर पर संघर्ष भी कर रहे हैं, वे या तो हाशिए पर धकेल दिए गए हैं या फिर पुलिस-तंत्र और फर्जी मुकदमों के द्वारा प्रताड़ित किए जा रहे हैं. इस बीच कुछ नकली गांधी जरूर आए-गए, जिनकी काठ की हांडियां एक ही बार चूल्हे चढ़ सकीं.
ग्राम स्वराज, पंचायती राज, रोजगारमूलक उद्योग, स्वदेशी और कौमी एकता की बात अब झूठ-मूठ भी सुनने में नहीं आती. लाखों की संख्या में किसान आत्महत्या जरूर कर रहे हैं. प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद और फौज का राजनीतिक महिमामंडन अपने चरम पर जरूर है. गोसेवा भूलकर लोग गोरक्षा के नाम पर जब चाहे जिसको मार अवश्य रहे हैं. हां, उनकी स्मृति में इस साल सरकारी प्रचारवादी ताम-झाम और दिखावेबाजी जरूर देखने को मिलेगी जो शायद ही समाज के लिए असरकारी साबित हो पाए. कई जोरदार ‘लोगो’ (प्रतीकचिन्ह) अवश्य बनाए जाएंगे, जिसमें इस देश के वंचित ‘लोग’ कहीं प्रतिबिंबित नहीं होंगे. इन प्रतीकात्मक छलावों में गांधीजी की गंजी खोपड़ी, लाठी, चश्मा, चरखा, घड़ी और खड़ाऊं भले ही दिख जाएं, लेकिन गांधी-विचार और गांधी के सपनों का भारत कहीं नहीं दिखेगा.
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