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सहगल से सलमान तक मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों का सफर अपने में आधी सदी समेटे हुए है

मजरूह सुल्तानपुरी

किसी व्यक्ति को श्रद्धांजलि देने का एक तरीका यह हो सकता है कि हम उसे उस तरह याद करें जैसा कि वह खुद चाहता था. और यदि व्यक्तित्व का यह पहलू उसकी लोकप्रिय छवि से किसी लिहाज में कमतर न हो तब ऐसी श्रद्धांजलि सबसे अच्छी कही जा सकती है. आज मजरूह सुल्तानपुरी को याद करने का दिन है. फिल्मी गीतकार के रूप में उन्होंने खूब शोहरत और नाम कमाया था. लेकिन इस मौके पर उन्हें शायर के रूप में याद करना एक बेहतर श्रद्धांजलि होगी क्योंकि वे खुद को सबसे पहले एक शायर ही मानते थे.

दरअसल मजरूह सुल्तानपुरी के लिए फिल्मों में गीत लिखना कुछ ऐसा ही था जैसे कई लेखक नौकरियां करते हैं. सिर्फ आजीविका कमाने के लिए. यह भी मजेदार बात है कि इसे आजीविका की तरह अपनाने के लिए भी मजरूह को जिगर मुरादाबादी साहब ने बमुश्किल राजी किया था वरना वे उस समय के मशहूर फिल्मकार कारदार साहब (एआर कारदार) को साफ़ शब्दों में ना कह चुके थे.

बाहैसियत खुद को एक शायर के रूप में याद किए जाने की मजरूह की चाह कोई नाजायज भी नहीं है. अगर उनके सारे गीतों को हम अनदेखा भी कर जाएं तो उनके शेर ही उन्हें याद रखने के लिए पर्याप्त होंगे. मिसाल के लिए ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर / लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’ उनका एक ऐसा शेर है, जिसे शायरी को जानने-समझने वाले लोग भी गाहे-बगाहे इस्तेमाल करते रहते हैं और वे भी जिनका शायरी से कोई वास्ता नहीं है. एक कवि, शायर या गजलकार के लिए इससे बड़ी प्रतिष्ठा की बात भला क्या होगी कि उसके मुरीद वे लोग भी हों जो उसके बारे में कुछ नहीं जानते.

मजरूह सुल्तानपुरी के ऐसे ही कुछ और भी शेर हैं –

1- ‘जफ़ा के जिक्र पे तुम क्यों संभल के बैठ गए? तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की’

2- ‘गमे हयात ने मजबूर कर दिया वरना, थी आरजू कि तेरे दरपे सुब्हो-शाम करें’

3- ‘सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चराग, जहां तलक ये सितम की सियाह रात चले.’

4- ‘रोक सकता हमें जिंदाने-बला-क्या ‘मजरूह’, हम तो आवाज हैं दीवार से छन जाते हैं.’

ऐसे और दसियों शेर यहां लिखे जा सकते हैं लेकिन, इन चंद पंक्तियों को पढ़कर ही समझ में आ जाता है कि मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी में इश्क भी है और जिंदगी की उलझनों से जूझने की चाह भी. यह उनकी शायरी का ही असर था कि तब की बहुत कमसिन माहजबीं (मीना कुमारी) बूढ़े कमाल अमरोही के प्रेम में पड़ गई थीं. कमाल अमरोही मीना कुमारी के पिता के मित्र थे. मीना कुमारी को शायरी का शौक था. इसी सिलसिले में कमाल अमरोही साहब ने उनकी शायरी ठीक करने की तजबीज (सलाह) के तहत एक शेर लिखकर दिया था. यह शेर जैसे मीना कुमारी के लिए जीवनमंत्र बन गया.

कमाल अमरोही साहब की तजबीज वाली पंक्तियां कुछ यूं थीं – ‘देख जिंदां से परे जोशे जूनू जोशे बहार/रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर ना देख.’ यह मजरूह सुल्तानपुरी का शेर था. इसने मीना कुमारी को खुले आकाश में आजाद उड़ने सपना दिया था. यह सपना और इसके लिए हौसला दिखाने में कमाल अमरोही की अहम भूमिका थी सो दोनों काफी करीब आ गए. बाद में उनके बीच विवाद और अलगाव हुआ वह एक अलग कहानी है.

मजरूह सुल्तानपुरी से पहले गजल की जमीन मीर, सौदा, मोमिन, ग़ालिब, और दाग के साथ-साथ हसरत मोहांनी, इक़बाल, जिगर, फिराक का घर आंगन हुआ करती थी. अली सरदार जाफरी के शब्दों में कहें तो मजरूह गजल के इस आंगन में ‘किसी सिमटी सकुचाई दुल्हन की तरह नहीं, बल्कि एक निडर, बेबाक दूल्हे की तरह दाखिल हुए थे.’ जाहिर है यह हिम्मत और बेबाकी इतनी आसान नहीं रही होगी. इसके पीछे बहुत मेहनत-लगन, अनुभव और तालीम की जरूरत हुई होगी. हम यदि मजरूह सुल्तानपुरी की तमाम गजलों को देखें तो हैरानी नहीं होती कि वे इस ‘आंगन’ में किस तैयारी के साथ आए थे.

इस बात में कोई दोराय नहीं कि मजरूह सुल्तानपुरी आला दर्जे के शायर थे और उन्होंने फिल्मों में गीत लेखन सिर्फ आजीविका के लिए किया. इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह भी उनके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण पहलू था. बतौर गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का सफर कारदार साहब की फिल्म शाहजहां से शुरू हुआ था. कारदार उन्हें नौशाद के पास ले गए थे. उन्हें एक धुन सुनाई गई और इसपर बोल लिखने के लिए कहा गया. इस पर मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा गीत था – ‘जब उसने गेसू बिखराए, बादल आये झूम के…’ यह 1946 में आई फिल्म शाहजहां के सबसे लोकप्रिय गानों में से था.

इसी फिल्म के लिए उनका लिखा और केएल सहगल का गाया – ‘जब दिल ही टूट गया, हम जीके क्या करेंगे’ हिंदी फिल्म इतिहास के अमरगीतों में स्थान रखता है. यह उनका शुरुआती गीत था. सहगल को यह गीत इतना पसंद आया था कि वे चाहते थे कि इसे उनके जनाजे में जरूर बजाया जाए. एक प्रख्यात गायक-अभिनेता के मुंह से मजरूह सुल्तानपुरी के शुरुआती गीत के लिए इससे बड़ी तारीफ भला क्या हो सकती थी. इन्हीं गानों के साथ-साथ मजरूह की दोस्ती नौशाद से भी शुरू हुई और बाद में दोनों रिश्तेदार भी बन गए. मजरूह सुल्तानपुरी की बेटी की शादी नौशाद साहब के बेटे के साथ हुई थी.

बतौर गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी से जुड़ी एक बेहद खास बात यह है कि उनका सफर तो नौशाद-कारदार-सहगल के जमाने से शुरू हुआ था, लेकिन उनके गाने इस सदी के पहले दशक तक आते रहे. खान तिकड़ी पर भी उनके गाने फिल्माए जा चुके हैं. इस लिहाज से देखें तो हिंदी फिल्म गीतों का एक लंबा दौर मजरूह सुल्तानपुरी के नाम रहा है. इसे सालों में मापें तो उनका करियर पचास सालों से ज्यादा लंबा रहा. हिंदी फिल्म इतिहास में यह किसी अजूबे से कम नहीं है.

इतना बड़ा कालखंड किसी गीतकार और लेखक के हिस्से यूं ही नहीं आ सकता. ऐसा तभी हो सकता है जब उस कलाकार या रचनाकार के वजूद में बदलते दौर को लेकर एक लचीलापन हो. मजरूह सुल्तानपुरी में नई पीढ़ी के साथ काम करने की इच्छा के साथ-साथ अपने गीतों को स्तरीय बनाए रखने की अद्भुत ललक थी. इसका उदाहरण ‘हम किसी से कम नहीं’, ‘क़यामत से कयामत तक’, ‘जो जीता वही सिकंदर’, ‘अकेले हम अकेले तुम’ और ‘खामोशी द म्यूजिकल’ जैसी फिल्मों के गीत हैं. इनमें सौन्दर्य भी है, भावनाएं भी और शब्द भी बहुत हद तक सुसंस्कृत हैं.

हालांकि 1960 और 1970 का दशक उनके गीतों का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है. ‘चुरा लिया है तुमने…’ , ‘बांहों में चले आओ…’, ‘ऐसे न मुझे तुम देखो…’, ‘अंग्रेजी में कहते हैं …’ से लेकर ‘छोड़ो सनम, काहे का गम’ तक हर बार नया कहने का उनका अंदाज नया ही बना रहा. यह वक़्त की नब्ज को पकड़ना भी था और वक़्त के साथ चलना भी. वरना बहुत ही मुश्किल होता ‘जब दिल ही टूट गया’, या ‘हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाजार की तरह’ जैसे पुराने चलन लेकिन गहरे अर्थों वाले उर्दूदां गीतों के लेखक के लिए यह सफ़र तय कर पाना.

मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने जीवनकाल में लगभग 300 फिल्मों के लिए 4000 गीत लिखे. फिल्मों की संख्या का गीतों के हिसाब से कम होना दिखाता है कि वे अन्य गीत लेखकों की तरह एक दो गीत के लिए किसी फिल्म से नहीं जुड़े, वे जहां रहे पूरी तरह जुड़कर, पूरे मन से लेकिन अपनी शर्तों पर रहे.

अपनी शर्तों पर जीने से संबंधित उनकी जिंदगी का एक विचित्र वाकया भी है. यह 1949 की बात है. उनके ऊपर सरकार विरोधी कविताएं लिखने का आरोप लगा और उन्हें जेल भेज दिया गया. मजरूह सुल्तानपुरी के सामने शर्त रखी गई कि वे माफी मांग लेते हैं तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. इस दौरान उनका परिवार भारी आर्थिक तंगी में आ गया. जब राजकपूर ने उनके परिवार की आर्थिक मदद करनी चाही तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया. इसके बाद राजकपूर ने उन्हें अपनी फिल्म के लिए एक गाना लिखने को तैयार किया और इसका मेहनताना उनके परिवार तक पहुंचाया था. यह गाना था – ‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल…’ इसे राजकपूर ने 1975 में आई अपनी फिल्म धरम-करम में इस्तेमाल किया था.

मजरूह सुल्तानपुरी को अपनी शायरी के लिए ग़ालिब और इकबाल सम्मान जैसे बड़े सम्मान मिले थे. वहीं फ़िल्मी गीतों में दोस्ती फिल्म के गीत ‘चाहूंगा मैं तुझे’ के लिए उनको फिल्मफेयर अवार्ड मिला था. दादा साहब फाल्के अवॉर्ड के हकदारों में मजरूह पहले गीतकार रहे हैं.

मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरारुल हक खान था. अपने पिता के दबाव में उन्होंने आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई की थी. पर बाद में जब उनका मन इसमें नहीं रमा तो वे पूरी तरह लेखन में डूब गए. इस दौरान उन्होंने अपने लिए एक नया नाम भी चुन लिया – मजरूह. इसका अर्थ होता है – घायल. हालांकि इस अर्थ से उलट पचास साल लंबे करियर में वे एक चिकित्सक की ही भूमिका में रहे और आज तक उनके गीत हम सब के लिए कहीं न कहीं मरहम का ही काम करते हैं.