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मदर टेरेसा : एक उजाला जिसकी कुछ परछाइयां भी हैं

मदर टेरेसा

मदर टेरेसा को वेटिकन सितंबर 2016 में संत घोषित कर चुका है. इससे एक साल पहले पोप ने उनके दूसरे चमत्कार को मान्यता दी थी. इस चमत्कार की खबर ब्राजील से आई थी. बताया जाता है कि वहां एक व्यक्ति के सिर का ट्यूमर मदर टेरेसा की कृपा से ठीक हो गया. कैथोलिक संप्रदाय में संत उस व्यक्ति को माना जाता है जिसने एक पवित्र जीवन जिया हो और जो स्वर्ग में पहुंच गया हो.

धरती पर रहने वाले लोगों के लिए संत रोल मॉडल समझे जाते हैं. माना यह भी जाता है कि अगर कोई प्रार्थनाओं में उनसे मदद मांगे तो वे ईश्वर से संवाद करके यह मदद करने में सक्षम होते हैं. ऐसे दो चमत्कारों की पु्ष्टि होने पर किसी दिवंगत व्यक्ति को संत घोषित कर दिया जाता है. बताया जाता है कि ब्राजील के इस व्यक्ति के परिजनों ने मदर टेरेसा से उसे ठीक करने की प्रार्थना की थी.

भारत में बीमारों, गरीबों और अनाथों की सेवा के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वालीं मदर टेरेसा का 1997 में निधन हुआ था. 2003 में पोप जॉन पॉल द्वितीय ने उन्हें धन्य घोषित किया था जो संत बनाए जाने की प्रक्रिया का पहला चरण है.

लेकिन इन्हीं मदर टेरेसा के जीवन की एक समानांतर कथा भी रही है. एक तरफ वे कइयों के लिए प्रेरणास्रोत रहीं तो दूसरी तरफ उनके काम और विचारों पर काफी विवाद भी रहा. कुछ समय पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत का उनके बारे में दिया गया बयान भी विवाद का विषय बन गया था. राजस्थान में एक कार्यक्रम के दौरान भागवत का कहना था, ‘मदर टेरेसा की सेवा अच्छी रही होगी, पर इसमें एक उद्देश्य हुआ करता था कि जिसकी सेवा की जा रही है उसको ईसाई बनाया जाए.’ इसके बाद अलग-अलग हलकों से इस बयान की आलोचना हुई. जो कहा गया उसका लब्बोलुआब यह है कि मानवता के प्रति अपने काम के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाली मदर टेरेसा के बारे में भागवत ऐसा कैसे बोल सकते हैं?

बहुत से लोग मानते हैं कि मदर टेरेसा उस सहज सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा हो गई हैं जिसके तहत असाधारण हस्तियों को मिथक में तब्दील करके उन्हें सवालों से परे कर दिया जाता है. वरना वक्त में पीछे लौटें तो हम पाते हैं कि करुणा की पर्याय कही जाने वाली यह शख्सियत भी कम कठोर आलोचनाओं का शिकार नहीं रही है.

काम को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया

अरूप चटर्जी की चर्चित किताब मदर टेरेसा : द फाइनल वरडिक्ट मदर टेरेसा के काम पर कई सवाल उठाती है. पेशे से डॉक्टर और कुछ समय मदर टेरेसा की संस्था मिशनरीज ऑफ चैरिटी में काम कर चुके चटर्जी का दावा है कि मदर ने गरीबों के लिए किए गए अपने काम को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया. कोलकाता में ही पैदा हुए चटर्जी अब इंग्लैंड में रहते हैं. उनके मुताबिक मदर टेरेसा अक्सर कहती रहीं कि वे कलकत्ता की सड़कों और गलियों से बीमारों को उठाती थीं. लेकिन असल में उन्होंने या उनकी सहयोगी ननों ने कभी ऐसा नहीं किया. लोग जब उन्हें बताते थे कि फलां जगह कोई बीमार पड़ा है तो उनसे कहा जाता था कि 102 नंबर पर फोन कर लो.

चटर्जी के मुताबिक संस्था के पास कई एंबुलेंसें थीं लेकिन उनका मुख्य काम था ननों को प्रार्थना के लिए एक जगह से दूसरी जगह ले जाना. चटर्जी ने संस्था के इस दावे पर भी सवाल उठाया कि वह कोलकाता में रोज हजारों लोगों को खाना खिलाती है. चटर्जी की किताब के मुताबिक संस्था के दो या तीन किचन रोज ज्यादा से ज्यादा 300 लोगों को ही खाना देते हैं, वह भी सिर्फ मुख्य रूप से उन गरीब ईसाइयों को जिनके पास संगठन द्वारा जारी किया गया फूड कार्ड होता है.

जीवन से ज्यादा मृत्युदान के मिशन

अपने एक लेख में वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु नागर लिखते हैं, ‘यह कहना कि मदर टेरेसा सड़क पर पड़े, मौत से जूझ रहे सभी गरीबों की मसीहा थीं, गलत है. उन्होंने गरीबों-बीमारों के लिए 100 देशों में 517 चैरिटी मिशन जरूर स्थापित किए थे मगर ऐसे कई मिशनों का दौरा करने के बाद डॉक्टरों ने पाया कि ये दरअसल जीवनदान देने से ज्यादा मृत्युदान देने के मिशन हैं. इन मिशनों में से ज्यादातर में साफ-सफाई तक का ठीक इंतजाम नहीं था, वहां बीमार का जीना और स्वस्थ होना मुश्किल था, वहां अच्छी देख-रेख नहीं होती थी, भोजन तथा दर्द निवारक औषधियां तक वहां नहीं होती थीं.’

ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका लैंसेट के सम्पादक डॉ रॉबिन फॉक्स ने भी 1991 में एक बार मदर के कोलकाता स्थित केंद्रों का दौरा किया था. फॉक्स ने पाया कि वहां साधारण दर्दनिवारक दवाइयां तक नहीं थीं. उनके मुताबिक इन केंद्रों में बहुत से मरीज ऐसे भी थे जिनकी बीमारी ठीक हो सकती थी. लेकिन वहां सबको इसी तरह से देखा जाता था कि ये सब कुछ दिनों के मेहमान हैं और इनकी बस सेवा की जाए. एक टीवी कार्यक्रम [1] के दौरान अरूप चटर्जी का भी कहना था कि संस्था के केंद्रों में मरीजों की हालत बहुत खराब होती थी. वे रिश्तेदारों से नहीं मिल सकते थे, न ही कहीं घूम या टहल सकते थे. वे बस पटरों पर पड़े, पीड़ा सहते हुए अपनी मौत का इंतजार करते रहते थे.

पीड़ा से प्यार, ईसाइयत का प्रसार

अरूप चटर्जी के मुताबिक मदर टेरेसा की संस्था मिशनरीज ऑफ चैरिटी के केंद्रों में गरीबों का जानबूझकर ठीक से इलाज नहीं किया जाता था. मदर टेरेसा पीड़ा को अच्छा मानती थीं. उनका मानना था कि पीड़ा आपको जीसस के करीब लाती है जो मानवता के लिए सूली चढ़े थे. लेकिन जब वे खुद बीमार होती थीं तो इलाज करवाने देश-विदेश के महंगे अस्पतालों में चली जाती थीं. अपनी किताब में चटर्जी ने यह तक कहा है कि मदर टेरेसा बीमार बच्चों की मदद करती थीं, लेकिन तभी जब उनके मां-बाप एक फॉर्म भरने के लिए तैयार हो जाते थे जिसमें लिखा होता था कि वे बच्चों से अपना दावा छोड़कर उन्हें मदर की संस्था को सौंपते हैं.

1994 में मदर टेरेसा पर बनी एक चर्चित डॉक्यूमेंटरी हैल्स एंजल [2] में भी कुछ ऐसे ही आरोप लगाए गए. ब्रिटेन के चैनल फोर पर दिखाई गई इस फिल्म की स्क्रिप्ट क्रिस्टोफर हिचेंस द्वारा लिखी गई थी. 1995 में हिचेंस ने एक किताब भी लिखी. द मिशनरी पोजीशन : मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस [3] नाम की इस किताब में हिचेंस का कहना था कि मीडिया ने मदर टेरेसा का मिथक गढ़ दिया है जबकि सच्चाई इसके उलट है. लेख का सार यह था कि गरीबों की मदद करने से ज्यादा दिलचस्पी मदर टेरेसा की इसमें थी कि उनकी पीड़ा का इस्तेमाल करके रोमन कैथलिक चर्च के कट्टरपंथी सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया जाए. इस किताब की खूब तारीफें हुईं तो आलोचनाएं भी. एक पाठक ने कहा कि अगर कहीं नर्क है तो हिचेंस अपनी इसी किताब के लिए उसमें जाएंगे.

80 के दशक में ब्रिटेन के चर्चित अखबार ब्रिटेन में छपे एक लेख में चर्चित नारीवादी और पत्रकार जर्मेन ग्रीअर ने भी कुछ ऐसी बातें कहीं थीं. ग्रीअर ने मदर टेरेसा को एक धार्मिक साम्राज्यवादी कहा था जिसने सेवा को मजबूर गरीबों में ईसाई धर्म फैलाने का जरिया बनाया.

परोपकार के लिए भ्रष्टाचार का पैसा और वह भी पूरा खर्च नहीं

चटर्जी की किताब में यह भी कहा गया है कि मदर टेरेसा को गरीबों की मदद करने के लिए अकूत पैसा मिला लेकिन, उसका एक बड़ा हिस्सा उन्होंने खर्च ही नहीं किया. चटर्जी ने इस पर भी सवाल उठाया कि मदर टेरेसा ऐसे लोगों से भी फंडिंग लेती थीं जिनकी आय के स्रोत संदिग्ध थे. इनमें भ्रष्ट तानाशाह और बेईमान कारोबारी भी शामिल थे. जैसे उन्होंने चार्ल्स कीटिंग से भी पैसा लिया जिन्होंने अमेरिका में अपने घोटाले से खूब कुख्याति पाई थी.

आपातकाल की तारीफ, गर्भपात की आलोचना

इससे पहले 1975 में भी मदर टेरेसा का एक बयान विवादों में रहा था. इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल पर उनका कहना था कि इससे लोग खुश हैं क्योंकि नौकरियां बढ़ी हैं और हड़तालें कम हुई हैं. गर्भनिरोधक उपायों और गर्भपात पर भी मदर टेरेसा के रुख ने आलोचनाएं बटोरीं. उनका मानना था कि संयम गर्भनिरोधक उपाय अपनाने से बेहतर है और गर्भपात तो सबसे बड़ी बुराई है जो हत्या के बराबर है. परिवार नियोजन और नारीवाद के पैरोकारों ने इस पर उनकी खूब आलोचना की थी.

आखिरी सांसें गिन रहे लोगों को बपतिस्मा

आखिर सांसें गिन रहे लोगों को बपतिस्मा देने के लिए भी मदर टेरेसा की खासी आलोचना हुई. बपतिस्मा यानी पवित्र जल छिड़ककर ईसाई धर्म में दीक्षा देने का कर्मकांड. आरोप लगे कि न तो उनका संगठन लोगों को यह बताता है कि इसका मतलब क्या है और न ही वह इसका ख्याल करता है कि उस व्यक्ति की धार्मिक आस्था क्या है. इस बारे में 1992 में अमेरिका के कैलीफोर्निया में एक भाषण के दौरान मदर टेरेसा का कहना था, ‘हम उस आदमी से पूछते हैं, क्या तुम वह आशीर्वाद चाहते हो जिससे तुम्हारे पाप क्षमा हो जाएं औऱ तुम्हें भगवान मिल जाए? किसी ने कभी मना नहीं किया.’

दिवंगत होने के बाद भी विवाद जारी रहे

मदर टेरेसा के 1997 में दिवंगत होने के बाद भी उन पर विवाद होते रहे. जिस कथित ‘चमत्कार’ के कारण 2003 में वेटिकन ने उन्हें धन्य घोषित किया उसे तर्कवादियों ने सिरे से ख़ारिज कर दिया था. कहा गया था कि पेट के ट्यूमर से जूझ रही पश्चिम बंगाल की एक महिला मोनिका बेसरा ने एक दिन अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उनका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया. लेकिन कई रिपोर्टों के मुताबिक जिन डॉक्टरों ने मोनिका बेसरा नाम की इस महिला का इलाज किया उनका कहना है कि मदर टेरेसा की मृत्यु के कई साल बाद भी मोनिका दर्द सहती रही. हालांकि वेटिकन के धर्मगुरूओं ने इस कथित चमत्कार को मान्यता दे दी थी.

कई लोग हैं जो मानते हैं कि मदर टेरेसा को संत बनाने के पीछे वेटिकन की मजबूरी भी है. चर्चों में लोगों का आना लगातार कम हो रहा है और ईसाई धर्म और इसके केंद्र वेटिकन में लोगों का विश्वास लौटाने के लिए ऐसा कदम उठाना जरूरी था.