संगीत के 'बौद्धिक' जानकार मुकेश की गायकी को सादा बताकर उसे उनकी सीमित प्रतिभा कहते थे लेकिन आम आदमी खुद को इसी आवाज के सबसे करीब पाता था
अंजलि मिश्रा | 22 जुलाई 2020 | फोटो: मनीषा यादव
मुकेश के हिस्से में शायद ही कभी मस्तीभरे गाने आए हों लेकिन अपने गानों के मिजाज से अलग वे मासूमियत भरे मजाक करने में कभी चूकते नहीं थे. यहां तक कि उन्हें खुद पर मजाक करने से भी गुरेज नहीं था. कहते हैं कि वे जब स्टेज परफॉर्मेंस के लिए जाते थे तो अक्सर वहां लता मंगेशकर का जिक्र करते थे. वे श्रोताओं से कहते कि ‘लता दीदी’ (मुकेश फिल्म उद्योग और उम्र में भी लता मंगेशकर से काफी सीनियर थे लेकिन उन्हें दीदी कहते थे) इतनी उम्दा और संपूर्ण गायिका उनकी वजह से समझी जाती हैं क्योंकि युगल गानों में वे खुद खूब गलतियां करते हैं ऐसे में लता मंगेशकर लोगों को ज्यादा ही भाने लगती हैं.
इस मजाक के साथ मुकेश एक तरह से अपने ऊपर होने वाली उस छींटाकशी को स्वीकार कर लेते थे कि वे ‘सीमित प्रतिभा के गायक’ हैं. हालांकि यह संगीत की बौद्धिक समझ रखने वालों की ईजाद की गई शब्दावली है जिससे शायद ही कभी आम संगीत प्रेमियों को फर्क पड़ा हो. उनके लिए तो मुकेश उनकी भावनाओं को सबसे सच्ची आवाज देने वाले गायक थे और यही बात मुकेश को आज भी लोकप्रिय बनाए हुए है.
हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में 1950 और उसके बाद के तीन दशकों के दौरान यदि सबसे लोकप्रिय रहे पुरुष गायकों के नाम किसी से पूछे जाएं तो जेहन में सबसे पहले चार नाम आते हैं – मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मुकेश और मन्ना डे. ऐसा नहीं है कि इस दौर में और किसी ने गाने नहीं गाए लेकिन ये चार नाम अक्सर एक साथ लिए जाते हैं. शायद इसलिए कि ये लोकप्रियता में एक दूसरे के आसपास ही ठहरते हैं.
इन चारों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि इनका गाने का अंदाज एक दूसरे से इतना अलहदा रहा है कि संगीत के जानकार उसी के चलते इन्हें चार खानों में बांटते हैं. रफी को विविधता भरा गायक माना जाता है तो किशोर को विद्रोही. इनमें मन्ना डे की शास्त्रीय संगीत की शिक्षा और समझ बाकियों से ज्यादा थी. संगीत के जानकार इस वजह से उन्हें संपूर्ण गायक का दर्जा देते हैं. मुकेश के बारे में आम राय रही कि वे बहुत ‘सादा’ गाते थे. यहां सादे का मतलब बोझिल नहीं बल्कि सरल गाने से है और बौद्धिक संगीतविशारद इसी सादगी को लंबे समय तक उनकी सीमित प्रतिभा कहते रहे. लेकिन यही वह आवाज थी जिसने फिल्मी गीतों के माध्यम से हमारे जीवन में पैदा होने वाली उदासी और दर्द को सबसे असरदार तरीके से साझा किया.
दर्द भरे गाने मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद और किशोर कुमार जैसे उस समय के दिग्गज गायकों ने भी कम नहीं गाए. फिर ऐसा क्या है कि मुकेश की आवाज में, जो उनके गाए उदासी भरे गीत इतने लोकप्रिय हुए कि उन्हें दर्द की आवाज ही मान लिया गया. इस सवाल का सबसे सही जवाब शायद इन गानों को सुनकर ही मिल सकता है. मुकेश को सुनते हुए उनकी आवाज में दर्द की गहराई और उसकी टीस महसूस की जा सकती थी. मुकेश के गानों से जुड़ी एक दिलचस्प बात है कि जब वे ‘जिंदगी हमें तेरा ऐतबार न रहा…’ गाते हैं तो बेहद धीरे-धीरे गहरी हताशा की तरफ ले जाते हैं, वहीं एक दूसरे गाने ‘गर्दिश में तारे रहेंगे सदा…’ गाते हुए बहुत-कुछ खत्म होने बाद भी थोड़ा बहुत बचा रहने की दिलासा भी देते हैं. हताशा और दिलासा का यह दर्शन मुकेश के कई गानों में है. ये दोनों भाव निकलते दर्द से ही हैं, उस दर्द से जो हम सबके जीवन का अनिवार्य हिस्सा है. इसलिए हर शब्द जो मुकेश के गले से निकलता है हमारे आसपास से गुजरता हुआ महसूस होता है.
1960-70 के दशक में यह तो स्थापित हो गया था कि मुकेश दर्द भरे गानों के लिए बेहतर आवाज हैं लेकिन उनके साथ संगीत या फिल्म निर्देशक प्रयोग करने से हिचकते थे. कुछ ऐसा ही वाकया राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर से भी जुड़ा हुआ है. मुकेश राज कपूर के लिए फिल्मों में उनकी आवाज थे लेकिन जब इस फिल्म के गाने ‘जाने कहां गए वो दिन’ के लिए गायक चुनने की बारी आई तो राज कपूर भारी असमंजस में पड़ गए. उन्हें यकीन नहीं था कि मुकेश इस गाने के साथ न्याय कर पाएंगे. राज कपूर का कहना था कि दर्द में डूबे स्वर और होते हैं (जैसे गानों में मुकेश को महारथ हासिल थी) और किसी के लिए भर चुके जख्म को याद करने की पीड़ा कुछ और. यह गाना इसी पीड़ा को सुर देता है. हालांकि राज कपूर बाद में मुकेश के नाम पर ही सहमत हुए और मुकेश ने इस गाने को जिस तरह गाया, उसकी कल्पना अब किसी दूसरी आवाज में मुमकिन ही नहीं है.
संगीत के जानकार मानते हैं कि मुकेश के स्वरों में मोहम्मद रफ़ी के स्वरों सा विस्तार नहीं था, मन्ना डे जैसे श्रेष्ठ सुर नहीं थे और न ही किशोर कुमार जैसी अय्यारी थी लेकिन इसके बावजूद उनमें एक अपनी तरह की मौलिकता और सहजता थी. एक बातचीत में संगीतकार कल्याण जी ने मुकेश की इस खूबी को उनकी सबसे बड़ी खासियत बताते हुए कहा था, ‘जो कुछ भी सीधे दिल से आता है, आपके दिल को छूता है. मुकेश की गायकी कुछ ऐसी ही थी. उनकी गायकी की सरलता और सादापन जिसे कुछ लोगों ने कमी कहा, हमेशा संगीत प्रेमियों पर असर डालती थी.’
मुकेश के गायन में शामिल यह सहजता ओढ़ी हुई नहीं थी. यह उनके व्यवहार में भी शामिल थी. एक मशहूर रेडियो प्रोग्राम में मुकेश को याद करते हुए गायक महेंद्र कपूर ने उनसे जुड़े कुछ किस्से सुनाए थे. पहला किस्सा कुछ यूं था कि महेंद्र कपूर को उनके गीत ‘नीले गगन के तले’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला तो किसी और गायक ने उन्हें इस बात के लिए बधाई तक नहीं दी जबकि मुकेश बधाई देने खुद उनके घर पहुंचे थे. मुकेश ऐसा तब कर रहे थे जब महेंद्र कपूर उनसे सालों जूनियर थे. यह मुकेश की सहजता ही थी जो उनके लिए जूनियर-सीनियर का भेद पैदा नहीं होने देती थी. इसका एक और उदाहरण हम ऊपर देख ही चुके हैं – लता मंगेशकर फिल्म उद्योग में भी उनसे जूनियर थी और उम्र में भी, लेकिन मुकेश उन्हें हमेशा दीदी कहा करते थे.
इसी रेडियो प्रोग्राम में महेंद्र कपूर ने मुकेश से जुड़ा एक और किस्सा साझा किया था. एक बार उनके बेटे के स्कूल प्रिंसिपल ने उनसे अनुरोध किया कि वे स्कूल के एक कार्यक्रम में मुकेश को बुलवाना चाहते हैं और यदि महेंद्र कपूर चाहें तो यह हो सकता है. महेंद्र इसके तैयार हो गए. उन्होंने मुकेश से कार्यक्रम में आने के लिए बात की और साथ ही यह भी पूछा कि वे इसके लिए कितने पैसे लेंगे. कार्यक्रम में आने पर मुकेश ने सहमति जता दी और पैसों की बात पर कहा, ‘मैं तीन हजार लेता हूं.’
इसके बाद मुकेश उस कार्यक्रम में गए, गाना गाया और मजेदार बात यह रही कि बिना रुपये लिए ही वापस आ गए. बकौल महेंद्र ‘अगले दिन जब उन्होंने बताया कि कल बच्चों के साथ बहुत मजा आया तब मैंने पूछा कि आपने रुपये तो ले लिए थे न? तो उन्होंने आश्चर्य जताते हुए पूछा कैसे रुपये? मैंने कहा कि आपने जो कहा था कि तीन हजार रुपये. इस पर वे बोले कि मैंने कहा था कि तीन हजार लेता हूं पर यह नहीं कहा था कि तीन हजार लूंगा.’ महेंद्र कपूर ने भावुक होते हुए इस वाकये को कुछ इस तरह आगे सुनाया था, ‘मुकेश जी ने मुझ से कहा कि कल को अगर नितिन (मुकेश के पुत्र नितिन मुकेश) तुम्हें अपने स्कूल में बुलाएगा तो क्या तुम उसके लिए पैसे लोगे?’
मुकेश की गायकी को आसान समझकर उनकी नक़ल करने वालों की गिनती भी कम नहीं है. इनमें कुछ तो बहुत अच्छे गायक भी रहे लेकिन उनके गायन में इतनी गहराई नहीं थी कि मुकेश जैसा असर पैदा कर पाएं. इन गायकों में बाबला मेहता का नाम सबसे ऊपर आता है लेकिन आवाज को नाक से निकालकर अगर कोई भी मुकेश बन सकता तो फिर मुकेश बनने या होने की गुंजाइश ही ख़तम हो जाती है.
किसी कालजयी गायक की सबसे बड़ी पहचान यही होती है कि उसके गाने सुनते हुए आप उन्हें गुनगुनाने से खुद को रोक नहीं पाते. मुकेश भी ऐसे ही गायक रहे हैं. जैसा कि हमने शुरू में जिक्र किया था मुकेश के हिस्से में हताशा और उसी गहराई के साथ दिलासा देने वाले कई गाने हैं. जैसे फिल्म ‘कभी-कभी’ में उन्होंने गाया है ‘पल दो पल का शायर हूं’ इसी गाने में एक जगह बोल हैं, ‘वो भी इक पल का किस्सा थे, मैं भी इक पल का किस्सा हूं, कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा जो आज तुम्हारा हिस्सा हूं…’ उदासी भरा यह गाना सुनते हुए लगता है जैसे मुकेश यह गाना खुद के लिए गा रहे हैं. हम आज भी इस गाने को सुनते हुए इसके दर्शन की पूरी कद्र करते हैं और यह मानने सा लगते हैं कि होगा कोई जो मुकेश से बेहतर कहेगा, और हमसे बेहतर सुनेगा. लेकिन हम आज भी घंटों का वक्त खर्च कर मुकेश को न सिर्फ सुनते हैं बल्कि याद भी करते हैं. तभी तो इसी गाने के दूसरे संस्करण में मजबूरन उन्हें भी कहना पड़ता है ‘…हर इक पल मेरी हस्ती है, हर इक पल मेरी जवानी है.’
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