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बारिश का ही नहीं, यह बाबा नागार्जुन का भी मौसम है

बारिश

वर्षा की झड़ी लगी हुई हो, उसके थम जाने पर भी जब मेघ साथ नहीं छोड़ते हों तो दो कवि ऐसे हैं जो याद न आएं किसी हिंदी कविता के पाठक को, यह संभव नहीं. एक हैं निराला और दूसरे नागार्जुन. तब, प्रकृति भी अपने प्रिय कवि को, जो अब उसी में लीन है, अपनी ओर से मानो शुभाशंसा देती है.

मेघाच्छादित आकाश को देखकर नागार्जुन की कवि प्रतिभा जाग्रत हो उठती है. बादलों से या वर्षा से इनका रिश्ता तकल्लुफाना नहीं है. कवि को रूढ़ि के अनुसार इन पर लिखना चाहिए, ऐसा नहीं. वर्षारंभ की सूचना देने वाले मेघराज को वे बस जमे रहने के लिए कहते हैं, ऐसे जैसे किसी प्यारे मित्र से न जाने को कहा जाए:

झुक आए हो?/बस अब झुके ही रहना!

इसी तरह इत्मीनान से बरसते जाना हौले-हौले

हड़बड़ी भी क्या है तुमको!

कविता का अंत यों होता है:

देखो भाई महामना मेघराज,

भाग न जाना कहीं और अब

आए हो जमे रहना चार-छै रोज़

थोड़ी-बहुत तकलीफ तो होगी –

उसे हम खुशी-खुशी लेंगे झेल…

कविता और प्रकृति का संबंध पुराना और प्रत्येक भाषा में समान ही रहा है. आधुनिक समय में भी प्रकृति में कवियों की रुचि पहले जैसी ही बनी रही है. उसमें एक प्रवृत्ति प्रकृति के मानवीयकरण की है जो पुनः नई नहीं है. अज्ञेय ने कहा भी है कि मनुष्य हर चीज़ को अपनी शक्ल में ढाल देना चाहता है. अगर वह देखने में घोड़े की तरह होता तो उसके देवता भी अश्वमुख ही होते. इसलिए ताज्जुब नहीं कि उसे प्रकृति उन्हीं भावनाओं से संचालित प्रतीत होती है जिनसे वह प्रेरित होता है.

प्रकृति को लेकिन प्रकृति की तरह देखने का अभ्यास आसान नहीं है. प्रकृति की सोहबत में समय गुजारना और उस समय इंसानी समाज की याद से उसे गंदला नहीं, तो कम से कम धुंधला न करना हममें से हर किसी के लिए चुनौती है, आज के कवियों के लिए तो है ही.

बिना मनुष्य की याद किए कितनी देर तक प्रकृति के साथ रहा जा सकता है? मनुष्य केंद्रित ब्रह्मांडीय विचार इतना प्रभावशाली है कि हमें अभी भी लगता है कि प्रकृति का पूरा आयोजन ही हमारे लिए है. यह भूलते हुए कि प्रकृति मनुष्यनिरपेक्ष है. बल्कि मनुष्य की नियति में उसकी कोई रुचि भी नहीं है और अगर वह सोच या बोल सकती तो ज़रूर कहती कि वह उसकी दूसरी संतानों के मुकाबले अधिक स्वार्थी और हिंसक है.

जनाक्रांत प्रकृति किसी से अपना दुखड़ा नहीं रो सकती. हर संभव स्थल पर मनुष्य ने प्रकृति पर अपनी जीत का झंडा गाड़ने को अपना अधिकार ही मान लिया है. अब जाकर ज़रूर उसका नशा टूटता जान पड़ता है लेकिन उसके पीछे भी स्वार्थ है. जब उसे यह लगने लगा कि संसाधन के भंडार या स्रोत के रूप में पृथ्वी या प्रकृति अब चुक रही है और उससे मनुष्य का अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है तब उसे प्रकृति या पर्यावरण का ध्यान आया. वरना एक समझ तो यह भी रही है कि जब वर्ग युद्ध समाप्त हो जाएंगे तो मनुष्य का अंतिम युद्ध प्रकृति से ही होगा.

नागार्जुन का काव्यसंसार जनाकीर्ण माना जाता है. इसमें शक नहीं कि उनका मन अपने इर्द गिर्द के इंसानी समाज के नाटक में लगता है. राजनीतिक दुनिया के चरित्र उनके विशाल काव्य नाटक के पात्र हैं और वे उनका ख़ासा मज़ा लेते हैं. लेकिन जितना मनुष्य में उतना ही प्रकृति में भी कवि का मन रमता है. यह नहीं कि वे उससे निकल आना चाहें या सिर्फ़ मन बहलाने को उसके पास जाएं.

बारिश शुरू हो गई है. बाहर निकलना मुश्किल दीखता है, फिर भी जी ऊबने की नौबत नहीं :

अच्छी तरह घिरा हूं

घिरा हूं बुरी तरह

ऊदे ऊदे बादलों ने डाल दिया है घेरा

मुश्किल है अड्डे से निकलना मेरा

कभी मूसलधार, कभी रिमझिम कभी टिप टिप , कभी फुहारें, कभी झीसियां

कभी बरफ़ की-सी…हीरे के चूरन की सी महीन कनियां

सावनी घटाओं के अविराम हमले

झेल रहा हूं पिछले चार दिनों से

सावनी घटाओं के अविराम हमले झेलने में क्या सुख है!

जून-जुलाई की बारिश अलग है, हेमंत की अलग. गर्मियों के बाद की पहली-पहली बरसात क्या करती है, देखिए:

बादल बरसे, चमक रहे हैं नवल शाल के पात

मिली तरावट, मुंदी हुई पलकों पे उतरी रात

जलन बुझ गई, लू के झोंके हुए विगत की बात

कल निदाघ था, अभी उतर आई भू पर बरसात

बादल बरसे, चमक रहे हैं नवल शाल के पात

इस बरसात की याद उनको परदेस में सताती है. कष्टकारी प्रतीक्षा के बाद अब बरसात के आने की सुगबुगाहट है. नागार्जुन जो कि मैथिल यात्री हैं, बार-बार आसमान देखते हैं और अपनी गृहवासी प्रिया पत्नी को लिखते है. क्यों न उस पत्र को मैथिली में ही पढ़ने की कोशिश करें. हिंदी वालों का दावा है कि वह उसकी उपभाषा है. क्या वे बिना मैथिली भाषा जाने इस पत्र की वेदना का आनंद ले सकते हैं!

जेठ बीतल

भेल नहीं बर्खा

रहल नभ ओहिना खल्वाट

आइ थिक आषाढ़ वदि षष्ठी

उठल अछि खूब जोर बिहाड़ि

तकरा बाद

सघन कारी घन-घटांस

भए रहल अछि व्याप्त ई आकाश

आसमान को काली घटाओं से व्याप्त देखकर अब विश्वास होता है कि आज बारिश होगी ही:

आइ वर्षा हएत सजनि, होएत अछि विश्वास

भए रहल छथि अवनि पुलकित, लैत अछि निश्वास

धरती की पुलक और उसकी सांस का अनुभव करने वाले कवि के इस इंतजार की समाप्ति में जितना चैन है, उतनी ही ईर्ष्या और देस से बिछड़ने का दुःख भी जहां अब तक तो न जाने कितनी बार बारिश हो चुकी होगी:

मुदा अपना देस में तं हएत वर्षा भेल

सरिपहुं एक नहि,कए खेप!

कई खेप बारिश हो चुकी होगी, मुदित मन ग्रामीण मल्हार गा रहे होंगे, धान, साम, गम्हरी, मड़ुआ, मकई, मूंग, उड़द के साथ सावां, काओन, जनेर के साथ डूब और घास भी लहलहा उठी होगी.

जहां कवि हैं, सामने भागीरथी बहती हैं, जिससे इस भीषण गर्मी में थोड़ी राहत मिलती है और जान बची रहती है. लेकिन अब आखिरकार बारिश की आशा है. यह कैसे लगा? अलावा इसके कि बादल घिर आए है, कवि को मौसम बदलने का आभास होता है जब वह भोर में गंगा में स्नान करने जाता है:

भोरखन गंगा नहेबा काल

ठरल लागल पानि

बुझल तखनि,

हिमालयमे गलि अछि बर्फ

भ रहल अछि ग्रीष्म आब समाप्त-

बर्खा प्राप्त…

बारिश मिलने वाली है, ग्रीष्म अब समाप्त होने को है, भागीरथी में पांव डालते ही उसके जल में हिमालय की पिघलती बर्फ का अहसास यह सुखद समाचार देता है. मूसलाधार बारिश होगी, गर्मी से दुखता माथा शीतल होगा.

गर्मी आते ही अक्सर नागार्जुन अपने उसी हिमालय के किसी एकांत में जा चढ़ते थे. हालांकि जिस दिल्ली में बैठा यह याद कर रहा हूं, वहां भी उन्होंने कई गर्मियां इस प्रतीक्षा में गुजारी होंगी. लेकिन वह ग्रामवर्षा-स्मृतिपूरित प्रतीक्षा हम जैसों के भाग्य में कहां!