नेपोलियन कहता था, ‘दुनिया में दो ही सबसे ताक़तवर चीज़ें हैं- आत्मा और तलवार, अंत में आत्मा तलवार से जीत जाएगी’
अनुराग भारद्वाज | 05 मई 2020 | फोटो; पिक्साबे
‘स्याह टीले पे तनहा खड़ा वो सुनता है,फिजां में गूंजती हुई अपनी शिकस्त की आवाज़
निगह के सामने मैदाने कारज़ार (लड़ाई का मैदान) जहां
जियाले (निडर) ख्वाबों के पामाल (रोंदे हुए) और ज़ख़्मी बदन
पड़े हैं बिखरे हुए चारों सम्त
बेतरतीब बहुत से मर चुके
और जिनकी सांस चलती है
सिसक रहे हैं
किसी लम्हा मरने वाले हैं
ये उसके ख़्वाब, उसके जरी (बहादुर)‘
(जावेद अख्तर की एक नज़्म- उन्वान ‘शिकस्त’)
नेपोलियन बोनापार्ट फ्रांस की क्रांति की पैदाइश था, जिसने यूरोप के राजाओं और ज़ारों की सत्ता को ललकारा था. उसका जीवन 1769 से लेकर 1821 तक, कुल 52 साल का रहा, पर उसकी कहानी अनंत सी लगती है. इस कहानी के सिर्फ दो ही हिस्से थे- जीत या हार. कहीं ऐसा पठार नज़र नहीं आता जहां यह कहा जा सके कि वो कुछ देर ठहरा… नेपोलियन हर वक्त सिर्फ चढ़ा या उतरा.
‘पेटी कारपोरल’ का उद्भव
एचजी वेल्स ने नेपोलियन को ऐसा साहसिक लुटेरा कहा था जिसने यूरोप को बहुत नुकसान पहुंचाया लेकिन जैसा हर महत्वाकांक्षी और उद्दांत लड़ाका होता है, वो वैसा ही था. ईश्वर ने उसे ज़बरदस्त आत्मविश्वास, ऊर्जा और कल्पनाशीलता से नवाज़ा था. जीतने की उसमें असीम इच्छा थी.
24 साल की उम्र में उसने अंग्रेजों के खिलाफ़ तुलों (फ्रांस में एक जगह) की लड़ाई में पहली जीत हासिल की थी. 1796 में फ्रांस की डायरेक्टरी, पांच सदस्यों का समूह जो फ्रांस की सुरक्षा का ज़िम्मेदार था, ने उसे इटली की सेना का कमांडर बना दिया. इस दौरान उसके रणनीतिक कौशल से पूरा यूरोप चौंक गया. उसने थकी-हारी और अभावों से जूझती फ्रांसीसी सेना को नए ख्व़ाब दिखाए. ख़्वाबों और हौसले के बूते उसे ऐल्प्स की पहाड़ियों के पार इटली ले गया. इटली के लोगों को उसने आजादी का भरोसा दिलाया और आसानी से इटली जीत लिया. हर जीत के साथ नेपोलियन की शौहरत बढ़ रही थी. वो लोगों और सैनिकों का विश्वास जीत रहा था. सिपाही उसे पिता तुल्य समझते और प्यार से ‘पेटी कारपोरल’ (फ्रांसीसी सेना का एक ओहदा) कहकर बुलाते थे.
‘बैटल ऑफ़ पिरामिड’ और हिन्दुस्तान का ख्व़ाब
फ्रांस वापस आने से पहले नेपोलियन ने उत्तरी इटली, ऑस्ट्रिया और वेनिस सब जीत लिए. फ्रांस की सत्ता उसकी जेब में आने को तैयार थी पर उसका इरादा कुछ और ही था. पूरब उसे हमेशा ही लुभाता. उसने कहा था, ‘पूर्व में महान साम्राज्य और अहम बदलाव हुए हैं. पूर्व में जहां 60 करोड़ लोग बसते हैं, उनके मुकाबले यूरोप एक तिल के समान है.’ अपने इस ख्व़ाब को पूरा करने के लिए भूमध्य सागर में ब्रिटिश जंगी बेड़े से बचता हुआ नेपोलियन मिस्र जा पहुंचा. कैरो (मिस्र की राजधानी) का मामलुक सुल्तान उसके सामने ज़्यादा देर टिक नहीं पाया. वह दिन था इक्कीस जुलाई, 1798. फ्रांसीसी सेना चार हजार साल पुराने मिस्र के पिरामिडों के सामने खड़ी थी. कारपोरल ने सैनिकों से कहा, ‘सैनिकों, चालीस शताब्दियां तुम्हें देख रही हैं.’ नेपोलियन ‘बैटल ऑफ पिरामिड’ जीत गया था
‘चले थे घर तो कितनी ज़मीं जीती थी
झुकाए थे कितने मगरूर बादशाहों के सर
फ़सीलें (दीवारें) टूट कर गिरके सलाम करती थीं
थर्रा के आप खुलते थे,
तमाम किलों के दरवाज़े, सारे महलों के दर.’ (‘शिकस्त’)
‘बैटल ऑफ़ नील’ : जहां नेपोलियन को हार मिली थी
मिस्र की जीत के बाद उसने हिंदुस्तान की तरफ आने का इरादा कर लिया. मैसूर के टीपू सुल्तान से उसने संपर्क भी साध लिया. लेकिन इस मकसद के सामने दो अड़चनें थीं, उसकी कमज़ोर नाविक शक्ति और इंग्लैंड का महान सेनापति होराशियो नेल्सन, जिसकी वीरता और साहस लड़ाइयों में अपनी एक आंख और एक बाज़ू खोने के बाद भी कहीं से कम न हुए थे. एक अगस्त, 1798 को नेल्सन ने नेपोलियन की सेना पर धावा बोलकर उसे चौंका दिया. दो दिन के अन्दर नेल्सन ने बाज़ी मार ली. नेपोलियन किस्मत का धनी था. वो नेल्सन के हाथों हारकर भी बच गया, लेकिन अब उसने हिन्दुस्तान आने का ख्वाब छोड़ दिया था.
वह दौर जब फ्रांस के साथ-साथ आसपास के राज्यों की सत्ता भी उसके सामने नतमस्तक हो गई
फ्रांस लौटकर नेपोलियन ने देखा कि डायरेक्टरी पूरी तरफ से असफल हो चुकी है. देश की जनता ने अब उसमें भरोसा जताया. नवम्बर, 1799 में उसने तख़्तापलट करके सत्ता हथिया ली. जिस ताक़त की चाह में वो लड़ता रहा, वह अब उसकी जेब में थी. नया संविधान लिखा गया जिसमें वो ‘पहला कौंसिल’ नियुक्त हुआ. फिर बाकायदा चुनाव हुए और लोगों ने उसे भरपूर समर्थन दिया. जैसा ऊपर कहा गया था कि नेपोलियन क्रांति की पैदाइश था, लोगों ने उसे आजादी और ख़ुशी देने वाला मसीहा समझा, पर वो धीरे-धीरे बदल रहा था. वो तानाशाह बनता जा रहा था. उसे दस सालों के लिए पहला कौंसिल बनाया गया था पर 1802 में ही उसने खुद को ‘ कौंसिल फॉर लाइफ’ नियुक्त करवा लिया. नेपोलियन अब खुद एक राजा बन गया जिसके हाथ में असीमित शक्तियां थीं.
‘नज़र में उन दिनों मंज़र सजीला था,
ज़मीं सुनहरी थी औ’ आस्मां नीला था.’ (‘शिकस्त’)
सन 1804 में फ्रांस में उसने ‘कोड नेपोलियन’ लागू करवाया जो फ्रांस की क्रांति की मूलभूत बातों का सार था. यह आने वाले सौ सालों तक यूरोप का एक मॉडल कोड था. इसमें औरतों को समान अधिकार दिए गए थे.
यह नेपोलियन के जीवन का उत्कर्ष काल था. राजकाज की हर एक गतिविधि में संलग्न फ्रांस का यह ‘बादशाह’ प्रशासक के तौर पर भी सफल था. ख़ुद से मुतमईन, वो कहता था, ‘जब भी मैं किसी विषय पर सोचना बंद करना चाहता हूं, अपने दिमाग में उस ‘दराज़’ को बंद कर देता हूं जहां वो विचार है, और किसी दूसरी ‘दराज़’ को खोल लेता हूं. जब मुझे सोना होता है, मैं सारी ‘दराजें’ बंद कर देता हूं.’ कहते हैं कि उसकी गज़ब की याददाश्त थी और खुद पर उतना ही बेहतरीन नियंत्रण भी. फ्रांसीसियों में उसके लिए अटूट विश्वास था. वे मानते थे कि उसी ने किसानों की ज़मीनों को पहले के शासकों से बचाया है. किसान ही उसकी ताक़त भी थे. ‘मुझे किसी की परवाह नहीं’ उसने कहा था, ‘ख़ासकर उनकी जो आलीशान घरों में रहते हैं. अगर किसी की राय मायने रखती है तो वो हैं मेरे किसान.’
अब नेपोलियन का परचम पूरे यूरोप में लहरा रहा था. वो जहां भी गया, मारेंगो, उल्म, ऑस्टरलित्ज़, जेना, एय्लाऊ, फ्राइडलैंड या वाग्राम सबको अपने अधीन करता गया. बड़े राज्य जैसे ऑस्ट्रिया, प्रशिया (जर्मनी) भी. सब के सब!
वो यूरोप को एक राज्य के तौर पर देखने लग गया था. उसकी निगाहें गिने चुने उन राज्यों पर टिक गईं, जो अब भी उसके झंडे तले नहीं थे. वो सब कुछ जीत लेना चाहता पर…
‘मगर ख्वाबों के लश्कर में किसे थी इसकी ख़बर,
के हर एक किस्से का इख़तिताम (ख़त्म) होता है,
हज़ार लिख दे कोई फ़तेह ज़र्रे-ज़र्रे पर
मगर शिकस्त का भी इक मुक़ाम होता है (‘शिकस्त’)
नेपोलियन के सामने कोई बाधा थी तो वह था – इंग्लैंड, और यही शिकस्त का पहला मुक़ाम था.
नेपोलियन का पराभव
जगह ट्राफलगर (स्पेन की सीमा के नजदीक समुद्री इलाका), दिन – 21 अक्टूबर, 1805. वही एक हाथ और एक आंख वाला होराशियो नेल्सन सामने खड़ा था. नेपोलियन के पास पहले से ज़्यादा बड़ी सेना थी. जंग शुरू होने से पहले नेल्सन ने जो कहा वो इतिहास में दर्ज हो गया है, उसके शब्द थे, ‘इंग्लैंड उम्मीद करता है कि हर एक शख्स जो यहां है वो अपना कर्तव्य निभाएगा.’ इंग्लैंड के सैनिक भी इसी जज्बे के साथ लड़े और नेपोलियन ट्राफलगर की जंग हार गया. हालांकि इस जंग में इंग्लैंड को अपने बेहतरीन सेनापति नेल्सन को खोना पड़ा.
इंग्लैंड जिसे कभी नेपोलियन ने ‘व्यापारियों का देश’ कहा था, हमेशा समुद्री लड़ाई में उससे इक्कीस रहा. और इसी वजह से उसकी सत्ता के अधीन नहीं आ पाया. साम्राज्य की चाह रखने वाले नेपोलियन की एक और समस्या थी, भाई-भतीजावाद. उसने अपने परिवार के लोगों को जीते हुए राज्यों का शासक बना दिया था. जबकि वे इसके काबिल नहीं थे और कुछ तो नेपोलियन के ख़िलाफ़ भी रहे.
रूस पर चढाई : जहां नेपोलियन जीत कर भी हार गया
सन 1812 में नेपोलियन ने विशाल सेना लेकर रूस पर चढ़ाई कर दी. शुरूआती जीत के साथ वो अन्दर धंसता चला गया. रूस की सेना पीछे हटती गयी. ज़ार ने हार मानने से पहले मॉस्को को जला डाला. लूट की इच्छा रखने वाला नेपोलियन हताश हो गया. उसने वापस जाने का निश्चय किया पर तब तक सर्दियों ने रूस में पैर पसार लिए! फ्रांस पहुंचते-पहुंचते नेपोलियन के साथ चंद लोग ही बचे थे! ‘पेटी कारपोरल’ अब थक चुका था, सेना लगभग ख़त्म हो चुकी थी.
उफ़ुक (क्षितिज) पर चुटियां रेंगी,
गनीम (दुश्मन) फ़ौजों ने,वो देखता है
कि ताज़ा कुमुक (रसद) बुलाई है
शिकारी निकले तो हैं उसके शिकार की ख़ातिर,
ज़मीं कहती है ये नरगा (घेरा) तंग होने को है,
हवाएं कहती हैं अब वापसी का मौसम है
पर वापसी का कहां रास्ता बनाया था
जब आ रहा था कहां ये ख़याल आया था (‘शिकस्त’)
इस समय तक दुश्मन मुल्कों ने चारों ओर से फ्रांस को घेर रखा था. सब के सब मुन्तजिर इस बात के कि कभी तो उनका दिन आएगा. नेपोलियन अब भी शानदार जनरल था पर अब किस्मत साथ नहीं दे रही थी. उसके ख़ास गाज़ी उसका साथ छोड़ रहे थे. किसान अब युद्ध के यज्ञ में अपने अपने बेटों की आहुति नहीं दे रहे थे. इन सबसे हारकर उसने 1812 में सत्ता छोड़ दी और यूरोप की ताक़तों ने उसे भूमध्य सागर में एल्बा नामक टापू पर नज़रबंद कर दिया. फ्रांस में दोबारा ‘नीले खून’ वालों ने सत्ता हथिया ली थी. किसानों के दिल फिर टूट गए…लेकिन
लेकिन एक रोज़ वो फिर उठ खड़ा हुआ और एल्बा टापू से भाग निकला. 26 फ़रवरी, 1815 के दिन नेपोलियन अपने किसानों के बीच में था. वो तैयार था लड़ने के लिए, खोई सत्ता हासिल करने के लिए. जब वो पेरिस पहुंचा तो राजा भाग गया. यूरोप के सत्ताधारियों में एक बार डर फिर काबिज़ हो गया लेकिन इस बार वे भी तैयार थे. जंग शुरू हो गयी. उसने कुछ एक जीती भीं. लेकिन उसके पेरिस पहुंचने के ठीक सौ दिन बाद ‘वॉटरलू’ की लड़ाई में किस्मत ने धोखा दे दिया और नेपोलियन बोनापार्ट हार गया. भागते हुए उसने ख़ुद को एक जहाज़ के कप्तान के हवाले कर दिया, इस उम्मीद में कि उसे इंग्लैंड में निर्वासित जीवन जीने दिया जायेगा. ऐसा कुछ नहीं हुआ. उसे संत हेलेना नामक टापू पर भेज दिया गया. तिल-तिल कर मरते हुए नेपोलियन की हर ख्वाइश नकार दी गयी. उसे अपने बेटे से भी नहीं मिलने दिया गया. अपनी मां से भी नहीं. पांच मई, 1821 को उसका इस दुनिया में आख़िरी दिन था.
‘पलट के देखता है सामने समन्दर है,
किनारे कुछ भी नहीं सिर्फ राख का ढेर,
ये उसकी किश्ती है, कल उसने ख़ुद जलाई थी.
क़रीब आने लगी क़ातिलों की आवाजें,
सियाह टीले पे तनहा खड़ा वो सुनता है ,
फिजां में गूंजती हुई अपनी शिकस्त की आवाज़ (‘शिकस्त’)
चलते-चलते
नेपोलियन जब भी किसी जनरल का चुनाव करता तो उसकी जंगों के बही खाते के अलावा एक बात ज़रूर पूछता; ‘क्या यह जनरल भाग्यशाली है?’ मरने से कुछ दिन पहले उसने कहा था, ‘दुनिया में दो ही सबसे ताक़तवर चीज़ें हैं : आत्मा और तलवार. अंत में आत्मा तलवार से जीत जाएगी.’
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