नेहरू का मत था कि लोकतांत्रिक गणराज्य में संस्कृति के विविध रूपों को परोसना-बढ़ाना और उसके लिए अवसर सुलभ कराना राज्य की ज़िम्मेदारी है
अशोक वाजपेयी | 21 नवंबर 2021 | फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स
नेहरू की सांस्कृतिक दृष्टि
पिछले सातेक साल से, नये निज़ाम के सक्रिय समर्थन से, नेहरू को अवमूल्यित करने और उन्हें तरह-तरह से अनेक विफलताओं के लिए ज़िम्मेदार ठहराने का एक सुनियोजित लेकन दुष्ट अभियान चल रहा है. दिलचस्प यह है कि यह सब उनके द्वारा किया जा रहा है जो भारतीय संस्कृति का अपने को पक्षधर मानते हैं और जिनके पास कुल मिलाकर एक बेहद छिछली-सतही और अधिकतर प्रतिशोधक दृष्टि और समझ है. बहरहाल, इस सबके चलते यह याद करना ज़रूरी है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री की सांस्कृतिक दृष्टि क्या थी.

नेहरू को इसका गहरा अहसास था कि उनकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी बंटवारे और औपनिवेशिक शोषण से त्रस्त टूटे-बिखरे भारत को एक आधुनिक राष्ट्र में गठित और गतिशील करने की है. ऐसा कर पाना बिना सजग सांस्कृतिक दृष्टि के संभव नहीं है इसका विवेक उनमें था. ऐसी दृष्टि का पहला कारक तत्व था भारत की सांस्कृतिक बहुलता का स्वीकार और उसका हर तरह से पोषण और प्रक्षेपण. नेहरू समझते थे कि यह विविधता कई धाराओं के संगम से रची गयी थी जो आंतरिक और बाहर से आयी दोनों ही थीं. सभी धर्मों, सम्प्रदायों आदि से इस बहुलता को रचने-पोसने में अपना योगदान दिया है. शास्त्रीय, पारम्परिक, लोक और आदिवासी आदि कलाओं ने मिलकर भारतीय कला परिदृश्य रचा है. भारत एक सभ्यता है जिसमें कई संस्कृतियां हैं जो सक्रिय और समरस रही हैं.
यह सभ्यता अपने में बद्धमूल होते हुए बाहर से प्रभाव और संवाद करने के प्रति हमेशा खुली रही है. भारतीय आधुनिकता को भारतीय परम्परा और विवेक से निरन्तर सर्जनात्मक और आलोचनात्मक संबंध और संवाद में रहना होगा. नेहरू यह भी मानते थे कि भारतीय अध्यात्म, उसकी बहुलता और जटिलता से भारतीय आधुनिकता बेमेल नहीं हो सकती. उनका यह मत था कि लोकतांत्रिक गणराज्य में राज्य को, बिना किसी वैचारिक हस्तक्षेप किये, संस्कृति के विविध रूपों को परोसना-बढ़ाना चाहिये और उसके लिए आवश्यक भौतिक ढांचा और अवसर सुलभ कराना राज्य की ज़िम्मेदारी है. वे यह भी चाहते थे कि भारतीय संस्कृति को अपनी सर्जनात्मकता, गतिशीलता और बौद्धिक सघनता से विश्व संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिये. उन्होंने नयी सांस्कृतिक सजगता के लिए वैज्ञानिक स्वभाव, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अनिवार्य माना. नेहरू स्वयं विकास को संस्कृति के लिए आवश्यक मानते थे.
उसी दृष्टि का प्रतिफल था कि तीन राष्ट्रीय अकादेमियों की स्थापना की गयी और साहित्य, ललित कला और संगीत-नृत्य-नाटक को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकारों को भी ऐसी संस्थाएं स्थापित करने के लिए प्रेरित किया गया. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और भारतीय नृतत्व सर्वेक्षण को सशक्त और विस्तृत किया गया. गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय लोक नृत्य समारोह का आयोजन शुरू हुआ जिसमें भारत की संस्कृति में लोक कलाओं के योगदान को रेखांकित करना था. नेहरू अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के ऐसे राजनेता थे जिनका अलबर्ट आइन्स्टीन, आन्द्रे मालरो आक्तावियो पाज़ जैसे दिग्गजों से संवाद था. मुझे याद है कि शायद 1961 में सप्रू हाउस में ताल्स्ताय की पचासवीं पुण्यतिथि समारोह के उद्घाटन सत्र में नेहरू ने कहा था कि महानताएं दो तरह की होती हैं: पहली वह जो आपको आक्रांत करती है और उसके सामने आपकी तुच्छता का अहसास कराती है. दूसरी वह जो आपको ऊंचा उठाती और अपने में शामिल करती है. ताल्स्ताय की महानता दूसरी तरह की थी. अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ अंग्रेज़ी कवि-संपादक स्टीफ़ेन स्पेण्डर ने कहा कि वे संसार भर के बड़े राजनेताओं से मिलते रहे हैं और नेहरू के अलावा ऐसी गहरी बौद्धिक बात कोई और राजनेता नहीं कह सकता.
रूसी लेखक बोरिस पास्तरनाक को जब नोबेल पुरस्कार मिला था तो इससे नाराज़ सोवियत संघ की सरकार उन्हें देश निकाला देने की तैयारी कर और उन्हें पुरस्कार लेने नहीं जाने दिये जाने की बंदिश लगा रही थी. आलहुआस हक्सले के अनुरोध पर नेहरू ने हस्तक्षेप किया और उनके अनुरोध पर खुशचॉफ़ ने उन्हें देशनिकाला दिये जाने का निर्णय रद्द कर दिया. चीनी आक्रमण के सिलसिले में जब राष्ट्रीय बचाव निधि के लिए राशि एकत्र की जा रही थी तो कर्णाटक गायिका एमएस शुभलक्ष्मी ने अपने सारे आभूषण एक संगीत सभा में उतार कर नेहरू को दिये तो उन्होंने कहा कि आप संगीत की साम्राज्ञी हैं, मैं तो सिर्फ़ प्रधानमंत्री भर हूं. राहुल सांकृत्यायन को दिया जाने वाला साहित्य अकादेमी पुरस्कार इस आधार पर कि वे साम्यवादी हैं अध्यक्ष के निर्णय के लिए लंबित था. अध्यक्ष नेहरू ने निर्णय दिया कि जूरी के निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिये और किसी की विचारधारा को पुरस्कार देने या न देने का आधार नहीं बनाया जा सकता. नाबोकोव के उपन्यास ‘लोलिता’ को कस्टम अधिकारियों ने अश्लीलता के आरोप में रोक लिया था. नेहरू ने उसे इन्दिरा जी से पढ़वाकर उसकी प्रतियां भारत में प्रसारित करने की छूट दी. निराला को उनकी आर्थिक दशा के आधार पर सरकारी पेंशन दिये जाने के लिए उन्होंने अपने शिक्षा-संस्कृति मंत्री से अपनी हस्तलिपि में एक लम्बा नोट लिखकर अनुरोध किया. शांति वर्धन की नृत्यनाट्य संस्था रंगश्री लिटिल बेले ट्रूप को निजी चेक भेजकर वित्तीय सहायता की. ऐसे सैकड़ों प्रसंग हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि नेहरू के मन में हमारी संस्कृति के लिए कितना प्यार, लगाव और आदर था.
भारतीय संस्कृति के लिए यह बड़ा कुसमय है जिसकी बहुलता, निर्भयता, विचारशीलता और सृजनशीलता पर हर रोज़ संस्कृति के नाम पर ही हमले हो रहे हैं. सत्तारूढ़ राजनीति यह भूल जाती है कि भारतीय सभ्यता के लम्बे इतिहास में उसके द्वारा फैलायी जा रही संकीर्णता-घृणा-हिंसा इस सभ्यता की अपराजेयता को कितना ही क्षत न कर ले, उसे नष्ट नहीं कर सकती. झूठ पर आधारित राजनीति फ़ौरी तौर पर भले सफल हो, अन्ततः बचेगी संस्कृति ही— उजली, उदात्त, समावेशी और प्रश्नवाची, उदार और मानवीय जैसी कि नेहरू के मन और आचारण में थी.
लगभग पांच करोड़
मैंने कभी इसका अंदाज़ नहीं लगाया था कि हमारे देश में कितने लोग ऐसे हैं जिन्हें सार्वजनिक धन से वेतन मिलता है और जो प्रशासन, पुलिस, सेना, न्यायालयों आदि से लेकर अस्पतालों, स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालय, पंचायत, रेलवे, बैकिंग आदि अनेक क्षेत्रों में सक्रिय सार्वजनिक सेवक हैं. रिटायर्ड सिविल सेवक एनएन वोरा ने हाल ही में दिये एक भाषण में, कुल मिलाकर, ऐसे सार्वजनिक सेवकों की संख्या लगभग पांच करोड़ बतायी है. कैबिनेट सचिव से लेकर ग्राम सेवक तक इस गिनती में शामिल हैं. हमारी जनसंख्या एक सौ तीस करोड़ के लगभग है और उसमें से लगभग पाँच करोड़ हमें विभिन्न सेवाएं देने के काम में लगे हैं. एक तरह से देश इनसे चलता, घिसटता, रेंगता या दौड़ता है. सेवाओं के लिए जो वेतन और अन्य सुविधाएं इन सेवकों को दी जाती हैं वे सभी टैक्स और अन्य वसूलियां जो हमसे होती हैं उनसे वित्त पोषित होती हैं.
जिन अनेक क्षेत्रों में भारत ने सफलता पायी है जैसे साक्षरता, कृषि उत्पादन, जीवनदर आदि उसका काफ़ी हद तक श्रेय इस वर्ग को दिया जा सकता है. लेकिन साथ ही यह भी नोट किया जाना चाहिये कि इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार, आलस्य, लालच, संकीर्णता, अभद्रता, स्वार्थ, चापलूसी आदि अवगुणों से भी ग्रस्त रहा है. अनेक रोक-थाम के अधिकरणों के बावजूद भ्रष्टाचार और टालमटोल हर स्तर पर तेज़ी से बढ़ते गये हैं और सार्वजनिक सेवाओं में ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, पारदर्शिता, व्यापक जनहित, साहस और निर्भीकता आदि इस समय अपवाद ही हो गये हैं. एक बड़ा हिस्सा, ज़मीनी स्तर से लेकर नीति-निर्णायक स्तर तक, दुर्भाग्य से, राजनीति और हिंसा-अपराध में लिप्त है और सांसारिक अर्थों में सफल भी है. संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनेवाले अधिकांश सिविल सेवक उसे जल्दी ही भूल जाते हैं और फिर अपने समूचे कार्यकाल में उन्हें उसकी याद ही नहीं आती. यह कार्यकाल औसतन तीस से पैंतीस वर्षों का होता है और अधिकांश को सेवा निवृत्ति के बाद अच्छी पेंशन भी मिलती है.
हमारा लोकतंत्र जिस दुश्चक्र में आज फंसा हुआ है उसकी बड़ी ज़िम्मेदारी तो राजनीति की है पर वैसी ही ज़िम्मेदारी सार्वजनिक सेवाओं की भी बनती है. यह अतिशयोक्ति करने का मन करता है कि कुल मिलाकर सार्वजनिक सेवाएं लोकतंत्र को सशक्त करने, हर स्तर पर अनुभवपरक बनाने और नागरिक ज़िम्मेदारी की भावना पुष्ट करने में विफल रही हैं. मैं भी ऐसी ही एक सार्वजनिक सेवा में पैंतीस वर्ष था और जो गहरा विफलता-बोध मुझे है उसमें इस सेवा में अंततः विफल होने का तीख़ा बोध भी शामिल है.
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