सवाल जो या तो आपको पता नहीं, या आप पूछने से झिझकते हैं, या जिन्हें आप पूछने लायक ही नहीं समझते
अंजलि मिश्रा | 15 अगस्त 2021
कवर पर लगी तस्वीर वैसे तो अब किसी परिचय की मोहताज की नहीं है लेकिन फिर भी बताना ज़रूरी है कि ये हाल ही में टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले एथलीट नीरज चोपड़ा हैं. इस तस्वीर में नीरज को पदक के साथ देखकर ऐसा लग रहा है जैसे वे या तो इसे चूमने जा रहे हैं या फिर कुतरने. ओलंपिक या ऐसी अन्य खेल प्रतियोगिताओं के दौरान इस तरह की सैकड़ों तस्वीरें आती हैं जिनमें खिलाड़ी अपने पदक को होठों के बीच दबाए दिखते हैं. ये तस्वीरें देखते हुए आपके भी मन में यह ख्याल आ सकता है कि आखिर सारे विजेता अपने मेडल को काटते हुए तस्वीरें क्यों खिंचवाते हैं? सिर-पैर के सवाल में इस बार इसी पर चर्चा करते हैं कि पोडियम पर मेडल को काटने का यह रिवाज कब, कैसे और क्यों शुरू हुआ?
ज्यादातर ओलंपिक खिलाड़ियों का कहना है कि वे ऐसा फोटोग्राफर्स के कहने पर करते हैं. ओलंपिक हिस्टोरियन डेविड वलेकीन्स्की भी अपनी किताब द कम्पलीट बुक ऑफ द ओलंपिक्स में लिखते हैं, ‘मुझे लगता है कि खेल पत्रकार इसे आइकॉनिक तस्वीर की तरह देखते हैं, कुछ ऐसा जिसे वे बेच सकते हैं. खिलाड़ी शायद ही कभी खुद से ऐसा करते होंगे.’ इस तरह ओलंपिक इतिहासकार और खिलाड़ियों का यह बयान मेडल काटने वाली तस्वीरों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय फोटो पत्रकारों को दे देता है.
हालांकि इस चलन की शुरुआत पर नजर डालें तो पता चलता है कि ऐतिहासिक रूप से इसका इस्तेमाल जालसाजी से बचने के लिए किया जाता था. यह उस दौर की बात है जब चीजों की खरीद-फरोख्त के लिए करेंसी की जगह सोने या चांदी के सिक्कों का इस्तेमाल किया जाता था. कोई सिक्का असली है या नकली, यह परखने के लिए व्यापारी उसे दांतों से दबाकर देखते थे कि कहीं यह सोने की ही तरह दिखने वाला दूसरा खनिज पाइराइट तो नहीं है.
दरअसल सोना हमारे दांतो की अपेक्षा मुलायम होता है इसलिए दांत गड़ाए जाने पर उस पर निशान बन जाता था जबकि पाइराइट दांतों की तुलना में कठोर होता है इसलिए उस पर कोई असर नहीं होता. इस तरह उस जमाने में सिक्कों के असली या नकली होने की पहचान करने के लिए व्यापारी उन्हें कुतरकर देखते थे. यही चलन बाद में ओलंपिक की परंपरा का हिस्सा भी बन गया.
अब स्वर्ण पदकों की चर्चा हो रही है तो आपको यह भी बताते चलते हैं कि खेल प्रतियोगिताओं में मिलने वाले पदक पूरी तरह सोने के नहीं होते. उदाहरण के लिए ओलंपिक में दिए जाने वाले गोल्ड मेडल में सोने की मात्रा केवल डेढ़ प्रतिशत के करीब यानी छह ग्राम होती है. इसके अलावा बाकी का पदक सिल्वर और कॉपर धातु से बना होता है जिसमें करीब छह प्रतिशत कॉपर और 93 प्रतिशत सिल्वर का हिस्सा होता है और एक पदक का वजन 500 ग्राम के करीब होता है. ऐसा केवल तीन ओलंपिक प्रतियोगिताओं (1904, 1908 और 1912) में हुआ जब सोने के असली पदक खिलाड़ियो को दिए गए थे.
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