पीसी महालनोबिस के दिमाग की उपज दूसरी पंचवर्षीय योजना को उस समय दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज माना गया था
अनुराग भारद्वाज | 29 जून 2020 | फोटो: ट्विटर
2016 में नोटबंदी के दूरगामी परिणाम होने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जॉन मेनार्ड कींस की पंक्तियां दोहराई थीं. इस महान अर्थशास्त्री ने कभी कहा था, ‘इन द लॉन्ग रन वी आर आल डेड.’ नसीहत आज की मुसीबतों को सहकर दूर भविष्य के फायदे गिनाने वालों के लिए थी कि दूर भविष्य में तो हममें से कोई नहीं होगा.
यहां एक ऐसे शख्स का ज़िक्र हो रहा है जिसने दूर भविष्य में नहीं बल्कि बहुत जल्द देश की आर्थिक तस्वीर बदलने की ठानी थी. वे थे सांख्यिकी के विद्वान और भारत की दूसरी पंचवर्षीय योजना के सूत्रधार प्रशांत चंद्र महालनोबिस. जवाहरलाल नेहरू और पीसी महालनोबिस की जोड़ी कुछ ऐसी थी जैसी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की. बस फ़र्क इतना ही है कि महालनोबिस वित्त मंत्री नहीं थे.
शुरूआती जीवन
रबींद्रनाथ टैगोर के साहित्य की व्याख्या ख़ुद टैगोर से बेहतर करने वाले प्रशांत चंद्र महालनोबिस की शुरुआती शिक्षा बंगाल में हुई. विज्ञान में स्नातक करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए घरवालों ने उन्हें यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन भेज दिया. बताया जाता है कि एक बार वे केंब्रिज शहर घूमने गए. वहां उन्हें किंग्स कॉलेज भा गया. उसी रात उनकी वापसी की ट्रेन छूट गयी. अगले दिन उन्होंने किंग्स कॉलेज में दाख़िला ले लिया और वहां से भौतिकी में डिग्री हासिल की.
पीसी महालनोबिस का भारत वापसी का सफ़र उनके जीवन का एक निर्णायक मोड़ था. पहला विश्व युद्ध शुरू हो चुका था. समुद्री रास्ते कुछ और मुश्किल हो गए थे. जिस जहाज से उन्हें हिंदुस्तान आना था, उसे कुछ दिनों की देर हो गई. वक़्त गुज़ारने के लिए कैंब्रिज पुस्तकालय महालनोबिस की पसंदीदा जगह थी. वहां उन्होंने बायोमेट्रिक्स से जुड़ी एक क़िताब पढ़ी और फिर वापसी के सफ़र के लिए बायोमेट्रिक्स पर पूरा साहित्य ही उठा लाये. कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में उन्हें पार्ट टाइम नौकरी मिल गई. यह साल था 1922. बायोमेट्रिक्स पढ़कर सांख्यिकी से उनका जो लगाव हुआ, वह फिर ताउम्र रहा.
सांख्यिकी से प्रेम
सांख्यिकी गणित की वह शाखा है जिसमें आंकड़ों का संग्रहण, प्रदर्शन, वर्गीकरण और उनके गुणों का आकलन-अध्ययन किया जाता है. अकादमिक अनुशासन से लेकर प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, मानविकी और कारोबार जैसे तमाम क्षेत्रों में इसका खूब इस्तेमाल होता है. इसी विज्ञान से महालनोबिस को इतना ज़बर्दस्त प्रेम हो गया कि फिर ताज़िंदगी छूटा नहीं.
1920 की बात है. महालनोबिस विज्ञान कांफ्रेस में भाग लेने पुणे गए थे. वहां स्थित ज़ूलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के निदेशक ने उन्हें कलकत्ता में रहने वाले ऐंग्लो इंडियन लोगों पर शोध करने को कहा. इस शोध में उन्होंने ‘महालनोबिस दूरी’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया. यह एक तरह की सांख्यिकीय माप है जिसका इस्तेमाल जनसंख्या संबंधी अध्ययन के लिए किया जाता है. इसी तरह के कुछ और काम करके वे पूरे भारत में मशहूर हो गए. 1931 में उन्होंने भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना की और अगले साल ‘सांख्य’ नाम से पत्रिका भी निकालना शुरू किया.
नेहरू से नजदीकी
1949 में महालनोबिस मानद सांख्यिकी सलाहकार नियुक्त किये गए. अगले साल तक, यानी 1950 तक उन्होंने नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) और केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) की स्थापना की. महालनोबिस की जीवनी लिखने वाले अशोक रूद्र का मानना है कि एनएसएस और सीएसओ की वजह से ही जितना भरोसेमंद डाटा भारत सरकार को मिलता है, उसकी विश्व में कहीं और मिसाल नहीं है. यहीं से महालनोबिस जवाहरलाल नेहरु की नज़र में आ गए.
आजादी के नौ साल पहले, यानी 1938 में, नेहरू की अंतरिम सरकार ने उनकी ही अध्यक्षता में देश के आर्थिक विकास के लिए योजना आयोग की स्थापना की, और पंचवर्षीय योजानाओं की शुरुआत हुई. नेहरु देश के विकास के मॉडल में तर्क, विज्ञान और समाज का समावेश चाहते थे. इसके लिए उन्होंने कुछ लोगों को चिन्हित किया. इनमें से एक थे महालनोबिस. नेहरू उनसे इतने प्रभावित थे कि उन्हें योजना आयोग में ले आये. कुछ समय बाद महालनोबिस योजना आयोग के सदस्य के साथ-साथ पचास के दशक में हिंदुस्तान के सबसे अहम व्यक्तियों में से एक बन गए. 1959 में संसद के एक अधिनियम द्वारा भारतीय सांख्यिक संस्थान को राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान का दर्जा दे दिया गया.
दूसरी पंचवर्षीय योजना और महालनोबिस
समाजवादी सोच के महालनोबिस ने देश की दूसरी पंचवर्षीय योजना का मसौदा या ड्राफ्ट तैयार किया था. हालांकि, वे अर्थशास्त्र के बड़े जानकार नहीं थे, पर अपनी इस कमी को उन्होंने विकसित देशों के अर्थशास्त्रियों और अन्य लोगों से मिलकर पूरा किया. रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी में लिखते हैं कि दरअसल यह एक प्रोपेगैंडा था. महालनोबिस विदेशी अर्थशास्त्रियों से मिलकर, उनसे नज़दीकी दिखाकर समकालीन भारतीय अर्थज्ञानियों में अपनी योजना की सहमति चाहते थे. उन्होंने अमेरिका, चीन, रूस आदि देशों में जाकर उनके आर्थिक मॉडल समझे थे. इनमें से रूस के मॉडल ने उन्हें सबसे ज़्यादा प्रभावित किया था.
1954 में पीसी महालनोबिस ने दूसरी पंचवर्षीय योजना का ड्राफ्ट योजना आयोग को दिया. इसमें कहा गया था कि अगर देश में त्वरित औद्योगिक तरक्की करनी है तो सरकार के सार्वजानिक उपक्रम अहम् भूमिका निभाएंगे और भारी उद्योग, जैसे स्टील, सीमेंट आदि पर ध्यान केंद्रित करना होगा. पूंजीगत वस्तुएं (कैपिटल गुड्स) के निर्माण की भी इसमें बात की गयी जिससे त्वरित रोज़गार उत्पन्न हो. इसके लिए बांध और फैक्ट्रियों के निर्माण की योजना बनाई गई. महालनोबिस का कहना था कि रोज़गार से उपभोक्ता वस्तुओं के इस्तेमाल को बढ़ावा मिलेगा और देश में तरक्की आएगी. उनकी इस पूरी योजना को ‘महालनोबिस मॉडल’ कहा गया. उनकी सोच के चलते पहली पंचवर्षीय योजना में जहां खनिज और उद्योग के लिए 179 करोड़ रुपये आवंटित किये गए थे, वहीं दूसरी योजना में ये बढ़कर 1075 करोड़ रुपये हो गए थे.
दुनिया भर के अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक महालनोबिस मॉडल से अभिभूत थे. ब्रिटेन के जीव विज्ञानी जेबीएस हैलदेन तो इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा, ‘अगर कोई निराशावादी सोच भी रखता हो, और यह मान ले कि इस प्लान के असफल होने में 15 फीसदी भागीदारी पाकिस्तान और अमेरिका की है, 10 फीसदी रूस और चीन का हस्तक्षेप है, 20 फीसदी राजनीति और ब्यूरोक्रेसी है, और पांच फीसदी हिंदू सोच है, तो भी इसके सफल होने के 50 फीसदी आसार हैं. और ये इतने हैं कि दुनिया का इतिहास ही बदल जाएगा’. मशहूर अंग्रेजी लेखक गुरचरण दास ‘इंडिया अनबाउंड’ में लिखते हैं कि दूसरी पंचवर्षीय योजना को दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज मान लिया गया था.
वहीं, रामचंद्र गुहा, लिखते हैं कि यह मॉडल कुछ और नहीं बल्कि स्वदेशी मॉडल ही था जो महात्मा गांधी ने आजादी के दौरान शुरू किया था. बात को आगे समझाते हुए गुहा कहते हैं कि भारी उद्योगों के पनपने का मतलब था कि आयात में कमी. स्टील से लेकर मशीन तक सब यहीं बने. हमारी ज़मीन, हमारे संसाधन, हमारी तकनीक और हम स्वावलंबी बनें.
विरोध के स्वर भी उठे थे
कई भारतीय अर्थशास्त्री ‘महालनोबिस मॉडल’ से प्रभावित नहीं थे. इनमें से एक थे बीआर शेनॉय. उन्हें ये योजना अति महत्वाकांक्षी लगी जिसमें ख़र्च ज़्यादा होने की वजह से वित्तीय घाटे और मुद्रास्फीति के बढ़ने की संभावना थी. उनकी सुनी ही नहीं गई. दूसरे विरोधी थे, अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन. उन्हें यह मॉडल बहुत गणितीय लगा जिसमें पूंजीगत उत्पादन पर ज़ोर दिया गया था, न कि मानव संसाधनों पर. फ्रीडमैन का मानना था कि भारी उद्योगों के बनिस्बत छोटे और मंझोले उद्योगों से ज़्यादा रोज़गार उत्पन्न होता है.
महालनोबिस के प्लान के अलावा देश के पास एक और विकल्प था. गुरचरण दास लिखते हैं कि ये महालनोबिस के प्लान जैसा तड़क-भड़क भरा और पेचीदा न होकर भारतीय हालात के अनुकूल था. तो क्या थी यह योजना और किसने दी थी?
तब बंबई (अब मुंबई) के दो अर्थशास्त्रियों- सीएन वकील और पीआर ब्रह्मानंद ने सुझाया था कि देश के पास पूंजी कम है और मानव संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं और इनमें से ज़्यादातर बेरोजगार हैं. उनका मानना था कि इस पूंजी को ‘वेज गुड्स’ बनाने में खपाया जाए. ‘वेज गुड्स’ यानी कपड़े, खिलौने, स्नैक्स, साइकिल और रेडियो जैसे उत्पाद जिनमें कम पूंजी लगती है और जोख़िम भी नहीं होता. लोग इन्हें बनाते और अर्जित किये गये धन से इन्हें ख़रीदते. दोनों अर्थशास्त्रियों का मानना था कि इससे कृषि में निवेश बढ़ेगा, ग्रामीण आधारभूत ढांचा खड़ा होगा, कृषि संबंधित उद्योग और निर्यात बढ़ेगा. कुछ ऐसा ही फ़्रीडमैन ने कहा था. पर, सुनी गई सिर्फ महालनोबिस की और चली बस नेहरू की. सभी ने ‘महालनोबिस मॉडल’ पर अपनी मुहर लगाई और देश में ये लागू किया गया.
बाद का जीवन
महालनोबिस कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पदों पर रहे. 1968 में वे पद्म विभूषण से सम्मानित किये गए. अब तो खैर पंचवर्षीय योजनाएं भी बंद कर दी गयी हैं. आज बड़े आराम से हम यहां इन योजनाओं की आलोचना कर सकते हैं. पर तब वह दौर था, जब समाजवाद हर समस्या का हल माना जा रहा था. पूंजीवाद एक नकारात्मक व्यवस्था मानी जाती थी. महालनोबिस समाजवादी थे. नेहरु स्वप्नदृष्टा और फेबियन यानी ऐसे समाजवाद के हामी थे जो धीरे-धीरे लोकतांत्रिक तरीकों से समाज में समानता लाने की बात करता है. गांधी के स्वराज और विकास के मॉडल से उनका भावनात्मक जुड़ाव भी था, पर शायद उसमें यकीन उतना नहीं था. अंग्रेजों द्वारा खोखले कर दिए गये देश के आर्थिक पहिये को घुमाने के लिए उन्हें कुछ अलग, बड़ा करना था और जल्द ही करना था.
बात नेहरू-महालनोबिस और नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की जोड़ियों की हुई थी. इत्तेफ़ाक देखिये, कल, यानी 28 जून को नरसिम्हा राव का जन्मदिन था और कल ही महालनोबिस की पुण्यतिथि थी! आज उनका जन्मदिन है.
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