साहित्य

समाज | कभी-कभार

यह समय साहित्य की व्यर्थता को स्वीकार करने का भी है

आज समाज में जो घृणा-व्यापार है वह अकाट्य साक्ष्य है कि साहित्य समाज के पढ़े-लिखे हिस्से को भी मानवीय बनाने में सफल नहीं हो सका है

अशोक वाजपेयी | 11 अप्रैल 2021

टूट-फूट के समय में

यह टूट-फूट का समय है. भारतीय समाज लगातार टूट रहा है कुछ अपनी चुप्पियों और निष्क्रियताओं से, कुछ राजनीति, धर्म, बाज़ार और मीडिया की लगातार हिंसाओं-क्रूरताओं-संवेदनहीनताओं से. आपसदारी, मेलजोल, मिलाप आदि धीरे-धीरे हाशिये पर जा रहे हैं. एक ऐसा समाज बचा है जिसे तरह-तरह की घृणाएं संचालित-प्रेरित कर रही हैं. हर दिन सार्वजनिक आचरण और संवाद, अभद्रता और नीचता में, नफ़रत और भाषायी हिंसा में दो सीढ़ियां और नीचे उतर जाता है. हम हर दिन अवनत होते, गिरते समाज हो गये हैं.

सत्ताएं हर दिन हमारा जीना मुश्किल करने की नयी विधियां खोज रही हैं. सब कुछ उनकी निगरानी में है और उन पर निगरानी कोई संस्था या मर्यादा नहीं कर रही है. हम अब इस हालत में पहुंच गये हैं कि समाज पर किसी का विश्वास नहीं रह गया है. सत्ता स्वयं को समाज मानकर मनमानी कर रही है. सब कुछ अब उसके मन की बात हो कर रह गया है. जाति-सम्प्रदाय-धर्म आदि की विषमताओं में जकड़ा भारतीय समाज, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से, अपने को लोकतांत्रिक समाज में बदलने की जो चेष्टा करता आ रहा था वह चेष्टा, लगता है, लगातार कमज़ोर पड़ रही है. अगर हमने, समय रहते, इन वृत्तियों का प्रतिरोध न किया तो धीरे-धीरे हम एक ऐसा विभाजित, टूटा-बिखरा समाज हो जायेंगे जो न तो भारतीय होगा न ही लोकतांत्रिक. यह अन्दाज़ लगाना कठिन है कि हममें से कितने और कहां इन ख़तरों के प्रति सजग हैं. हम निरन्तर झूठों में मुदित मन जकड़े हुए लोग हैं. इतने असत्य-मुग्ध हम अपने इतिहास में शायद ही पहले, इतने व्यापक स्तर पर, हुए हों!

इस टूटे-फूटे समय में साहित्य क्या करे या क्या कर सकता है यह प्रश्न उठता तो है पर उस का कोई एक उपयुक्त उत्तर सम्भव नहीं लगता. यह प्रतिप्रश्न, उचित ही, किया जा सकता है कि क्या हम स्वयं इस टूट-फूट के गवाह भर हैं या उसमें हमारी भी हिस्सेदारी रही है? क्या हममें इतना नैतिक और सर्जनात्मक बल है कि हम इस सबके लिए अपनी ज़िम्मेदारी भी, एक तरह से निहत्थे होकर स्वीकार करें. सही है कि बहुत पहले से साहित्य प्रतिरोध का साहित्य रहा है और उसमें इस टूट-फूट के विरुद्ध चेतावनियां भी हैं. पर अगर समाज ऐसे रसातल में पहुंच गया और साहित्य उसे थाम नहीं सकता तो अपने प्रयत्न की व्यर्थता हमें स्वीकार करनी पड़ेगी.

यह आपत्ति की जा सकती है कि यह पूरा आकलन अतिरंजित है. न तो इतनी टूट-फूट हो रही है और न ही साहित्य से इतनी अधिक अपेक्षा की जाना चाहिये. मेरी बूढ़ी-थकी आंखों और मन्दमति को जो दीख रहा है सो कह रहा हूं. यह समय इस टूट-फूट को, और साहित्य की व्यर्थता को स्वीकार करने का है. अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो, अब भी, कुछ सार्थक साहित्य में हम पायेंगे ऐसा मुझे लगता है. हो सकता है कि यह एक गलतफ़हमी हो. बेहद नाउम्मीदी के समय में साहित्य उम्मीद की विधा होती है. पर उम्मीद का नया स्थापत्य गढ़ने का धीरज-जतन और उत्साह अब कितनों के पास है! अपनी व्यर्थता को स्वीकार कर उम्मीद गढ़ना आसान नहीं है, कभी नहीं रहा.

विश्व कविता

यों विश्व की लगभग हर सभ्यता में कविता, किसी न किसी रूप में, हमेशा रही है. लेकिन यह अहसास कि विश्व कविता जैसी कोई चीज है और उसकी कोई अवधारणा डेढ़ सौ साल से ज़्यादा पुराने नहीं हैं. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में विभिन्न कारणों से, जिनमें उपनिवेश बनने और सुदृढ़ होने जैसे तत्व भी शामिल थे, विश्व के विभिन्न हिस्सों में विश्व की कविता का अवबोध होना शुरू हुआ. बाद में संचार सुविधाएं बढ़ने, विचारधाराओं के विस्तार, अनुवाद को प्रोत्साहन मिलने, नोबेल पुरस्कार की स्थापना आदि ने इस अवबोध को व्यापक और गहरा किया. बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में कई देशों की दिलचस्पी दूसरे देशों के प्राचीन और मध्यकालीन साहित्यों तक सीमित न रहकर आधुनिक साहित्यों में होना शुरू हुई तो विश्व कविता की अवधारणा सशक्त होने लगी. यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अंग्रेज़ी भाषा ने अपनी उदार और खुली आतिथेयता से इसमें बड़ी भूमिका निभायी. विश्व की प्रायः सभी भाषाओं की कविता का, कुछ न कुछ, अंग्रेज़ी में अनूदित और प्रकाशित होकर अन्यत्र फैला है.

छायावाद तक हिन्दी में विश्व कविता के नाम पर हम अधिकतर अंग्रेज़ी कविता को ही जानते-पढ़ते थे. यूरोप के अन्य देशों की कविता से हमारा परिचय क्षीण था. 1949 में अज्ञेय ने अपने कवितासंग्रह ‘इत्यलम्’ में पहली बार फ्रेंच कवि बोदेलेयर का उद्धरण दिया है. पर अगले दस वर्षों में हिन्दी में यूरोप और लातीनी अमरीकी कवियों के अनुवाद होने लगे, उनके अंग्रेज़ी अनुवादों से ही, और विश्व कविता का पहला संचयन ‘देशान्तर’ धर्मवीर भारती ने छठवें दशक के लगभग मध्य में प्रकाशित किया. अज्ञेय, शमशेर से लेकर धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, कुंवर नारायण, कमलेश, विष्णु खरे आदि हिन्दी के कई प्रसिद्ध कवियों ने लगातार विश्व की कई भाषाओं के कवियों के अनुवाद किये हैं.  इनके जरिये हमने कविता में फ्रांस, जर्मनी, पोलैण्ड, इटली, ग्रीस, रूस, मैक्सिको, चिली, नार्वे, स्वीडेन, हंगारी, चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया आदि को जानना-पहचानना शुरू किया. इस वृत्ति का एक बड़ा मुक़ाम भारत भवन द्वारा 1986 में आयोजित विश्व कविता समारोह था जिस के अवसर पर भारत की अठारह भाषाओं की पत्रिकाओं ने विश्व कविता विशेषांक प्रकाशित किये. एक बड़ा संचयन ‘पुनर्वसु’ नाम से राजकमल से छपा. हाल ही में, रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत, विश्व कविता का एक बड़ा संचयन तीन बड़े खण्डों में सम्भावना प्रकाशन से आया है. पिपरिया जैसी छोटी जगह से निकलने वाली पत्रिका ‘तनाव’ ने लगातार कई दशकों से विश्व कविता के चुने हुए कवियों के अनुवाद प्रकाशित किये हैं. जिज्ञासा की जिस वृत्ति ने हमें विश्व कविता की ओर आकर्षित किया था वह इधर कुछ मन्द पड़ती नज़र आ रही है.

अज्ञेय की याद

चार अप्रैल अज्ञेय की पुण्यतिथि थी. अज्ञेय उन बिरले लेखकों में से थे जिन्होंने बहुत सारे लेखकों को सम्भव किया और साहित्य की अनेक नयी सम्भावनाओं का मार्ग दूसरों के लिए खोला. ऐसे लेखक-बन्धु होंगे तो इस वक्तव्य को लेकर नाक-भौं सिकोडेंगे और कुछ खौखिया कर उन्हें और मुझे समाज-विरोधी, अभिजात, कलावादी जैसे बौद्धिक रूप से दयनीय लांछन लगायेंगे. अज्ञेय के जीवनकाल में ऐसे लांछन लगते रहे और वे उनसे प्रभावित अपनी राह चलते रहे. वे अकेले पड़ते गये, हिन्दी समाज ने, साहित्य-समाज ने उन्हें अकेला छोड़ दिया. पर उन्होंने अपनी राह नहीं बदली.

अज्ञेय ने कहीं लिखा था: ‘कुछ साहित्य समाज को बदलने के काम आ सकता है, लेकिन श्रेष्ठ साहित्य समाज को बदलता नहीं उसे मुक्त करता है. फिर उस मुक्ति में समाज के लिए – और हां संस्कृति के लिए, मानव मात्र के लिए- बदलाव के सब रास्ते खुल जाते हैं.’ हमारे समय में परिवर्तनकारी होने का लगातार दावा करने वाले साहित्य का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है इस पर विचार किया जा सकता है. ऐसे साहित्य द्वारा समाज में जिस तरह का परिवर्तन अभीष्ट था उससे आज यही समाज कोसों दूर जा चुका है. ऐसा साहित्य समाज में परिवर्तन लाने में स्पष्ट ही विफल हो चुका है, भले वह यह मानने को तैयार नहीं है. आज हिन्दी समाज में जो घृणा-व्यापार है, धार्मिक उन्माद ओर सांप्रदायिकता का विस्तार है, जातिपरक विद्वेष और हिंसा है वह अकाट्य साक्ष्य है कि साहित्य इस समाज को, उसके पढ़े-लिखे हिस्से को भी, मानवीय, संवेदनशील, उदार और सहिष्णु बनाने में सफल नहीं हुआ. हालत तो यह है कि यह समाज, इसके द्वारा पोषित राज्य की तरह ही, हत्यारी और संकीर्ण मानसिकता की गिरफ्त में है.

अज्ञेय ने श्रेष्ठ साहित्य को समाज के लिए मुक्तिदायी बताया है. हम जिस समय और समाज में आज रह रहे हैं उसमें न तो यह मुक्ति नज़र आती है और न ही उससे खुलने वाली कई तरह की सम्भावनाएं ही. लगता यह है कि इस समय और समाज में दोनों तरह के साहित्य विफल और हाशिये पर हैं – परिवर्तनकारी साहित्य और श्रेष्ठ साहित्य. हमारा समाज एक अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण अर्थ में साहित्यातीत हो चुका है. पहले की अपेक्षा आज कहीं अधिक साहित्य निराशा का कर्तव्य है. अज्ञेय होते तो इसे स्वीकार करने में संकोच न करते.

इस समय, जैसे कि शायद हर समय, साहित्य की स्थिति ट्रैजिक है. वह उन शक्तियों में से नहीं रह गया है जो मानवीय स्थिति या समाज को बदल या मुक्त कर सकती है, पर वह लिखा ऐसे जाता है मानों उससे फ़र्क पड़ता, परिवर्तन होता या मुक्ति मिल सकती है.

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