सैयद हैदर रज़ा की कला-निष्ठा में दूसरों के लिए सम्मान और प्रोत्साहन भी शामिल थे और इसीलिए इस कलाकार ने आधुनिक कला के इतिहास को शायद दूसरों से सबसे अधिक दिया
अशोक वाजपेयी | 20 फरवरी 2022 | फोटो: फेसबुक/रज़ा फाउंडेशन
सौ वर्ष
हमने यह कभी नहीं सोचा था कि सैयद हैदर रज़ा का सौवां वर्ष इस तरह की घरबन्दी और तरह-तरह के भय उपजाते-पोसते निज़ाम में होगा. हम लाचार हैं और ऐसा हो रहा है. जिस देश की मिट्टी को वे अपने सिर से लगाने वाले मुसलमान थे, उन मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान किया जा रहा है. रज़ा का निपट भारतीय हृदय और कला-मनीषा इससे बेहद आहत हो रही होगी: जहां वे हैं वहां उन्हें दिलासा दे सकने का कोई उपाय हम नहीं कर सकते. वे दिवंगत ज़रूर हैं, पिछले लगभग साढ़े पांच बरसों से, पर वे कालजयी भी हैं. इस कालजयिता के कई पहलू धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं. उनका उत्तरजीवन याने मरणोत्तर जीवन उनके भौतिक जीवन से कई गुना लंबा होगा, इसमें संदेह नहीं. उनकी कला में वैसे भी समय को अतिक्रमित किया गया था: उनकी कृतियां और उनके पीछे सक्रिय विचारदृष्टि समयातीत को संबोधित थीं. रज़ा ने समय को मानों अपने रास्ते से, कला-मार्ग से, हटा दिया था और सीधे काल की ओर रूख़ किया था. उनकी प्रिय थीमें जैसे कि धरती, प्रकृति, आवर्तन, पुनरागमन, कुण्डलिनी, बिन्दु, नादबिन्दु, शान्ति आदि समय-मुक्त हैं. यह, अलबत्ता, सही है कि समय को अतिक्रमित करने का कोई दावा उन्होंने कभी किया नहीं.
रज़ा की निष्ठा कला-निष्ठा अपने आप में एक प्रतिमान ही बन गयी. मण्डला-नरसिंहपुर के जंगलों में, एक वनग्राम में पैदा हुए व्यक्ति ने 20 बरस की उमर होने तक यह तय कर लिया था कि उसे चित्रकर होना है, तब जब कला कोई भरोसेमन्द व्यवसाय नहीं थी. जीवन के लगभग 75 वर्ष रज़ा ने चित्र बनाते बिताये: चित्र बनाने और जीवन बिताने के बीच अन्तर कम होते-होते इतना कम हो गया कि वह अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में सिर्फ़ चित्र बनाने के लिए जीने और जीने के लिए चित्र बनाने लगे. इस असाधारण कला-निष्ठा में आत्मनिष्ठा भर शामिल नहीं थी: उसमें दूसरों की कला-निष्ठा के लिए सम्मान और प्रोत्साहन भी शामिल थे. इसीलिए रज़ा ऐसे कलाकार भी हुए जिन्होंने आधुनिक कला के इतिहास को शायद दूसरों से सबसे अधिक दिया. इसी का एक सांस्थनिक रूप रज़ा फ़ाउण्डेशन है. किसी और समृद्ध-वरिष्ठ कलाकार ने कला से अपनी अर्जित धनराशि दूसरों के लिए इस उदारता से विनिवेशित नहीं की. रज़ा-शती, इसलिए, निष्ठा और उदारता की, युवा प्रतिभा और भविष्य की संभावनाओं में अटल विश्वास की भी शती है.
अब तक यह भी स्पष्ट हो चला है कि रज़ा ने आधुनिकता के विश्वकेन्द्र पेरिस में साठ दशक बिताते हुए अपनी कला में एक वैकल्पिक आधुनिकता विकसित की जो संसार में शान्ति, लय, सुसंगति, मौलिक अभिप्राय खोजने और एक तरह से संसार का, होने का श्रृंगार करती आधुनिकता थी. वह समावेशी होने के साथ-साथ अपनी प्रेरणा में भारतीय और किसी हद तक आध्यात्मिक थी.
कविता-प्रेमी
यह बात अलक्षित तो नहीं गयी है कि रज़ा ने अपनी बहुत सी कलाकृतियों में कविता की पंक्तियां अंकित की हैं. पर जो बात बहुतों को पता नहीं है कि उनका हिन्दी कविता से प्रेम दमोह में एक सरकारी मिडिल स्कूल में शुरू हुआ: उसका श्रेय जाता है उनके हिन्दी के अध्यापक गौरीशंकर लहरी को. जो उन्हें पढ़ाते थे, स्वयं कवि थे और जिनकी बतायी कई कविताएं रज़ा को जीवन भर याद रहीं. अपने इस अध्यापक से उनकी विभोर-विह्वल भेंट मुझे याद है जो भोपाल में हुई थी. सूर, तुलसी, निराला, महादेवी आदि की कविताएं, जिनमें से कई की पंक्तियों का अंकन रज़ा ने अपने चित्रों में बाद में किया, स्कूल के दिनों में ही उन्हें मुखाग्र हो गयी थीं. अपने स्कूल के अध्यापकों को रज़ा पेरिस में लगभग हर दिन याद करते थे, कुछ के धुंधले फ़ोटो उनके पेरिस के स्टूडियो में थे और दिल्ली में उनके ‘अन्तिम स्टूडियो’ में भी रखे हुए हैं.
रज़ा ने उस समय उनकी प्रेयसी और बाद में पत्नी फ्रेंच कलाकार जानीन मोंज़िला को लिखे गये अपने प्रेमपत्रों में फ्रेंच कवि बोदेलेयर, पाल वैलरी आदि के उद्धरण दिए हैं. उन्होंने जर्मन भाषा के कवि रिल्के को फ्रेंच अनुवाद में पढ़ा था और उनकी कई कविता-पंक्तियां उन्हें कण्ठस्थ थीं. रिल्के के ही एक कवितांश का, वे हर दिन अपने स्टूडियों में काम शुरू करने के पहले, मंत्र की तरह उच्चारण करते थे. उनकी डायरियों में कई विचारों के अलावा अंग्रेज़ी में फ्रेंच में कविताएं या कवितांश दर्ज़ है. हिन्दी, संस्कृत और उर्दू की कई कविताएं भी.
रज़ा ने लगभग सौ चित्रों पर कवितांश अंकित किये हैं पर महात्मा गांधी के एक कथन को छोड़कर जो अंग्रेज़ी में है, सभी अंकन देवनागरी में हैं. वे, वैसे भी, यह कई बार कहते थे कि उनकी मातृभाषा हिन्दी है. यह दिलचस्प है कि रज़ा ने फ्रांस में साठ बरस बिताने के बावजूद कभी फ्रेंच या अंग्रेज़ी कविता से कोई अंकन, मेरे जाने, नहीं किया. एक स्तर पर देवनागरी में अंकन उनका अपनी मातृभूमि को याद करने जैसा था मानों वे फिर एक बार अपनी मां को चिट्ठी लिख रहे हों. उपनिषद्, कबीर, सूर, तुलसी, मीर, ग़ालिब, निराला, महादेवी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह, फ़ैज़, साहिर लुधियानवी आदि कवियों के कवितांशों को उनके चित्रों में रज़ा की अपनी सुन्दर हस्तलिपि में अंकित किये जाने का गौरव मिला. तुलसी, निराला आदि की पूरी कविताएं ही उन्होंने अपने हाथ से लिखकर चित्रों की तरह प्रस्तुत कीं. मेरे उनके निकट आने का एक बड़ा कारण मेरा हिन्दी कवि होना था. मेरे भी कई कवितांश उन्होंने अंकित किये. इसके साथ ही यह याद करना ज़रूरी है कि उनके अन्तिम चरण में अधिकांश कलाकृतियों के नाम उन्होंने हिन्दी में ही रखे. ‘पन्थ होन दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला’ (महादेवी) और ‘इस तमशून्य में तैरती है जगत्समीक्षा’ (मुक्तिबोध) जैसी पंक्तियों का अंकन उन्होंने एकाधिक बार अपने चित्रों में किया. सच तो यह है कि हिन्दी कविता को उसके इतिहास में, रीतिकाल के दौरान मिनिएचर कला को छोड़कर, उसकी आधुनिक कविता को एक महान् कलाकार ने इतने अनुराग और आदर ने अपनी कला का हिस्सा बनाया.
तब भी अवशिष्ट उदात्त
कृष्णा सोबती के बारे में सोचते हुए लगता है कि वे मानवीय क्षति और मनुष्यता में तब भी अवशिष्ट उदात्त की गाथाकार थीं. उनके यहां उदात्त और जीवन के लालित्य के बीच कोई फांक नहीं है और उदात्त अवशिष्ट होते हुए भी सशक्त और ऊर्जस्वित है. उसे बीहड़ में जाने से संकोच नहीं होता सारी तोड़-फोड़ और क्षति के बावजूद वह बचा रहता है. कृष्णा सोबती ने उदात्त और लालित्य को अद्भुत कौशल और संवेदनाशीलता से साधा: उनका गद्य चमकता-दमकता गद्य है और उसमें मनुष्य होने की दीप्ति कभी धूमिल नहीं पड़ती.
शायद इस पर ध्यान कम गया है कि कृष्णा जी ने गद्य में, कथा में बहुत सारे प्रयोग किये. इस अदम्य प्रयोगशीलता की ज़द में उनके उपन्यास, कहानियां, व्यक्तिचित्र और संस्मरण, आलोचना, विचार सभी आये. इन सभी विधाओं को, एक स्तर पर, अगर प्रयोगशीलता जोड़ती है तो, दूसरे स्तर पर, मानवीय चिन्ता और ऊष्मा. ‘डार से बिछुड़ी’ उपन्यासिका का ट्रैजिक स्वर, ‘मित्रो मरजानी’ की स्त्री-निर्भीकता, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ में की गहरी ऐन्द्रियता, ‘ऐ लड़की’ में अन्तिम चरण की संवादशीलता, ‘समय सरगम’ की ठहरी हुई रौशनी आदि में आवेग, आत्मीयता, झिलमिलपन आदि तरह-तरह से रूपायित हुए हैं. एक तरह की प्रगीतात्मकतासे वे ज्योतित हैं. फिर ‘ज़िन्दगीनामा’ और ‘दिलो दानिश’ में विडम्बनाओं और अन्तविरोधों को समाहित करता महाकाव्यात्मक गद्य है, अपनी विशिष्ट कथा भाषा में. ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान तक’ फिर एक विचित्र कृति है, कथा-संस्मरण-फ़ोटोग्राफ़ आदि का रोमांचक मेल. अकेले कथा में कृष्णा जी के प्रयोगों की एक लम्बी परंपरा है.
‘हम हशमत’ नाम से चार खण्डों में प्रकाशित उनके व्यक्तिचित्र अनोखे हैं, चयन और अभिव्यक्ति दोनों में. अपना लगातार मज़ाक बनाते हुए कृष्णाजी अपने समकालीनों के अद्भुत चित्र खींचती हैं. उनके समकालीनों में ऐसे अनेक लोग शामिल हैं जो उनसे आयु और उपलब्धि में काफ़ी कम थे. किसी और लेखक ने इतने सारे लेखकों के बारे में ऐसी समझ, संवेदना और विनोद भाव से नहीं लिखा है. अपनी लेखक-बिरादरी को ऐसी जगह अपने लिखे में किसी और लेखक ने नहीं दी है.
कृष्णा जी की एक गद्य पुस्तक है: ‘शब्दों के आलोक में’. उनका यह स्पष्ट इसरार है कि शब्दों का अपना आलोक भी होता है. आलोचना, विचार आदि सब शब्दों में होते हैं और अगर वे शब्दों को आलोकित करते हैं तो स्वयं भी उनसे आलोक पाते हैं. किसी कथाकार द्वारा किसी कवि पर लिखी हिन्दी में एकमात्र पुस्तक है कृष्णा जी की मुक्तिबोध पर पुस्तक. वह भी आलोचना की भाषा और विधा में एक निराला प्रयोग है. कृष्णा जी अपने को लोकतंत्र का सजग नागरिक मानती थीं और इस हैसियत में उन्होंने कई बार अपने विचार स्पष्टता और निर्भीकता से व्यक्त किये. उनमें भी उनका तेवर, उनकी विशिष्ट भंगिमा, उनका निर्भय अन्तकरण ज़ाहिर हुए हैं. सुसंगति और प्रयोगशीलता का ऐसा जोड़ हमारे गद्य में कम ही संभव हुआ है.
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