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जो मांसाहार को अहिंदू और अभारतीय मानते हैं वे इस बारे में कम जानते हैं

मांसाहारी भोजन

अब के साल चैत्र नवरात्रों के दौरान तेज हुई शाकाहार बनाम मांसाहार की बहस रामनवमी वाले दिन एक अनचाहे और दुखद मुकाम पर पहुंच गई. उस दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली (जेएनयू) में दो छात्रसमूहों के बीच हिंसा [1] देखने को मिली. दक्षिण और वाम विचारधारा वाले छात्रों के बीच हुई इस हिंसा की सतही वजह हॉस्टल कैंटीन में नॉन-वेज खाना परोसा जाना था.

भले ही इस बार इस विवाद का केंद्र जेएनयू या राजधानी दिल्ली बने हों लेकिन ऐसे कई [2] उदाहरण [3] आसानी से दिए जा सकते हैं जो बताते हैं कि शाकाहार बनाम मांसाहार की बहस न केवल देशव्यापी है बल्कि अलग-अलग स्वरूपों में लंबे समय से चलती रही है. बीते कुछ सालों से हमारे देश में खानपान, पहनावा और पूजा पद्धतियां सिर्फ निजी चुनाव की चीज़ रहने के बजाय राजनीतिक चुनावों को साधने के उपकरण भी बनते गये हैं.

क्या वेदों में मांसाहार करने से मना किया गया है?

शाकाहार बनाम मांसाहार वाली इस बहस की प्रवृत्ति पर आएं तो मांसाहार की आलोचना करते हुए सबसे पहले कहा जाता है कि यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ है. इसका कारण यह है कि सनातन यानी हिंदू धर्म अहिंसा की बात करता है. इसमें किसी भी जीव-हत्या को महापाप माना गया है और अपने भोजन के लिए किसी जीव को मार देना तो निकृष्टतम कर्म है. साथ ही यह तर्क भी दिया जाता है [4] कि वेदों में मांस खाने को प्रतिबंधित किया गया है इसलिए इसे भारतीय जीवनशैली के तौर पर अपनाया जाना या उसका हिस्सा बनाया जाना उचित नहीं है. इसके अलावा इसके विदेश से आयातित होने की बात कहकर भी इसे अभारतीय ठहरा दिया जाता है.

लेकिन अगर भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली की सबसे प्रमाणिक और प्राचीन शाखाओं में शामिल आयुर्वेद की तरफ देखें तो एक अलग ही कहानी पता चलती है. शरीर और मन के स्वास्थ्य को साधने की सीख देने वाली आयुर्वेद की किताबों में न केवल दवा के रूप में बल्कि आहार के रूप में भी मांस का सेवन करने की बात बहुत स्पष्टता से और बार-बार कही गई है. लेकिन इसके उदाहरणों पर विस्तार से चर्चा करने से पहले एक बात का जिक्र करना जरूरी हो जाता है. चूंकि आयुर्वेद अथर्ववेद का उपांग है (वेदों की शाखा बताने वाले स्त्रोतों में से केवल ‘चरणव्यूहस्त्रोतम’ में आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपांग बताया गया है) इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हमारे वेदों में भी मांसाहार करने की बात कही गई है. हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक आयुर्वेदीय वांग्मय का इतिहास ब्रह्मा, इन्द्र, धन्वंतरि जैसे देवों से जुड़ा हुआ है. यानी भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में विश्वास और श्रद्धा रखने वालों को इसके हजारों साल पुराना होने पर कोई संशय नहीं होना चाहिए. मतलब मांसाहार देश में मुस्लिम आक्रांताओं या पश्चिमी उपनिवेशवादियों द्वारा लाया और लोकप्रिय बनाया गया है, ऐसा कहना भी सही नहीं होना चाहिए.

आयुर्वेद के किन ग्रंथों में मांसाहार का जिक्र है? 

आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में से सबसे प्रमुख तीन ग्रंथ – चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांगहृदयम – हैं. सुश्रुत ऋषि द्वारा रची गई सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा पर अधिक जोर है. वहीं अन्य दो ग्रंथों के रचनाकार चरक ऋषि और वाग्भट, आहार-विहार के नियमों और स्वस्थ जीवनशैली के लिए ज़रूरी ज्ञान देते हैं. यहां पर ये जान लेना जरूरी है कि शारीरिक स्वास्थ्य के संदर्भ में आयुर्वेद का ज्ञान शरीर के तीन दोषों – वात, पित्त और कफ – को संतुलित रखने के उपायों पर आधारित है. वहीं, मानसिक स्वास्थ्य का अकलन इस बात से किया जाता है कि मन के तीन गुणों – सत, रज और तम – में से रज और तम गुण कम हों और सतोगुण प्रभावी हो. एक लाइन में इन गुणों का समझें तो रजोगुण को आसक्ति से, तमोगुण को आलस्य से और सत्व गुण को आत्मज्ञान से जोड़कर देखा जाता है.

आयुर्वेद की पुस्तकों में मांसाहार के जिक्र पर विस्तार से चर्चा करें तो सबसे पहले चरक संहिता का संदर्भ दिया जा सकता है. चरक संहिता के सत्ताइसवें अध्याय में अन्नपान की व्याख्या की गई है. यानी यह अध्याय बताता है कि हमारे आहारद्रव्यों (भोजन या डाइट) में क्या-क्या शामिल होना चाहिए. इन आहारद्रव्यों को बारह वर्गों में बांटा गया है – शूकधान्यवर्ग (अनाज), शमीधान्यवर्ग (दालें), मांसवर्ग, शाकवर्ग, फलवर्ग, हरितवर्ग (सलाद), मद्यवर्ग, जलवर्ग, दुग्धवर्ग, इक्षुवर्ग (गुड़, शक्कर शहद), कृतान्नवर्ग (सूप, सत्तू वगैरह), आहारोपयोगी वर्ग (मसाले). अगर इनके क्रम पर ध्यान दें तो मांसाहार तीसरे नंबर पर आता है, इससे जुड़ा एक श्लोक भी है –

शरीरबृंहणे नान्यत् खाद्यं मांसाद् विशिष्यते
इति वर्गस्तृतीयोअयं मांसानां परिकीर्तितः

(चरक संहिता, सूत्रस्थानम अध्याय 27 – श्लोक 87)

अर्थात, शरीर को मोटा करने या ताकतवर बनाने में कोई भी और भोजन मांस से बढ़कर नहीं है. इसलिए यहां पर अन्न और दालों के बाद तीसरा मुख्य भोजन मांसवर्ग में आने वाली चीजों को बताया गया है.

चरक ऋषि की तरह ऋषि वाग्भट भी अष्टांगहृदयम के छठे अध्याय अन्नस्वरूपविज्ञान में खाने-पीने की इन चीजों को सात समूहों में बांटते हैं जिसमें मांसवर्ग को चौथा स्थान दिया गया है. इससे जुड़ा श्लोक कुछ इस तरह है – 

शूकशिम्बीजपक्वान्नमांसशाकफलौषधैः

(अष्टांगहृदयम, सूत्रस्थानम अध्याय 6 – श्लोक 172) 

इन पुस्तकों में मांसाहार का यह जिक्र मांस का सेवन करने तक सीमित नहीं है. ये अलग-अलग तरह के मांस को खाने का शरीर और मन पर क्या असर पड़ता है, इस पर भी विस्तार से बात करती हैं. चरक संहिता के उत्तरभाग – चिकित्सास्थान में बीमारियों के इलाज पर बात की गई है. इसमें अनगिनत रोगों के इलाज के लिए पथ्य के रूप में किस जीव का मांस किस तरह से पकाकर खाना है इसकी भी जानकारी दी गई है. यह जानना दिलचस्प लग सकता है कि आज मांसाहार की बहस जहां चिकन-मटन से होते हुए बीफ या अधिकतम मछली और झींगे पर जाकर रुकने लगती है, वहीं आयुर्वेद में आठ प्रकार के मांस का वर्णन किया गया है. इनका वर्गीकरण इन नामों से किया गया है – मृग, विष्किर, प्रतुद, बिलेशय, प्रसह, महामृग, जलचर पक्षी और मत्स्यवर्ग.

मृग और प्रसह समूह में जहां हिरण, गाय, सांभर, खरगोश. मुर्गा, बकरा, भेड़ वगैरह आते हैं. वहीं विष्किर और प्रतुद समूह में तीतर, मोर, कबूतर, गौरैया समेत कई तरह के पक्षी शामिल हैं. छोटे जीवों के समूह की बात करें तो वे बिलेशय कहे जाते हैं. इनमें बिल में रहने वाले जीव चूहा, सांप वगैरह शामिल हैं. जलचर पक्षियों में हंस, सारस, बगुले वगैरह आते हैं तो मत्स्यवर्ग में तमाम तरह की मछलियां, झींगे, शैवाल और कछुए सम्मिलित हैं. इन सबसे अलग महामृग समूह बड़े जीवों जैसे सुअर, भैंसा, हाथी वगैरह को शामिल कर लेता है.

आयुर्वेद की मांसाहार पर क्या राय है?

जीवों का इस तरह वर्गीकरण कर वागभट्ट और चरक ऋषि ने अपने ग्रंथों में यह स्पष्ट किया है कि किस जीव का मांस खाने से शरीर में वात, वित्त या कफ की मात्राओं पर क्या असर पड़ता है. किन लोगों को मांस खाने की जरूरत है और किन्हें नहीं और कौन सा रोग या कमी होने पर किस जीव का मांस खाना चाहिए. उदाहरण के लिए, आयुर्वेद यह ज़ोर देकर कहता है कि अधिक वजन के लोगों को मांसाहार करने से बचना चाहिए. या फिर, बच्चे को जन्म देने के बाद महिलाओं को कम से कम 12 दिनों तक मांसाहार नहीं करना चाहिए.

इसके अलावा, आयुर्वेद में अच्छे मांस की पहचान भी बताई गई है. यह कहता है कि अगर मांस में नीली रेखाएं दिखाई देती हैं तो उसे नहीं पकाया जाना चाहिए, वह जहरीला हो सकता है. सामान्य परिस्थितियों में किस तरह का मांस खाना चाहिए इससे जुड़ा श्लोक कुछ इस तरह है –

मांसं सद्योहतं शुद्धं वयःस्थं च भजेत् त्यजेत्
मृतं कृशं भृशं मेद्यं व्याधिवारिविषैर्हतम्

(अष्टांगहृदयम, सूत्रस्थानम अध्याय 6 – श्लोक 68)

अर्थात, तुरंत मारे गए, युवा प्राणी के ठीक तरह से साफ किए गए मांस का सेवन करना चाहिए. खुद से मरने वाले, बहुत कमजोर, बहुत चर्बी वाले जानवरों और किसी बीमारी से, पानी में डूबकर या किसी भी तरह के जहर से मरने वाले जीव का मांस नहीं खाना चाहिए.

आज के समय में नॉनवेज मेन्यू के कुछ प्रचलित विकल्पों के बारे में आयुर्वेद की राय देखें तो चिकन और मछली के बारे में आयुर्वेद कहता है कि यह मांस चिकनाहट से भरा, तासीर में गर्म, ताकत और वजन बढ़ाने वाला होता है. इन्हें कफ बढ़ाने वाला और पचने में भारी बताया गया है. इसलिए यह उन लोगों के लिए उपयुक्त भोजन बन जाता है जिनके शरीर में वात अधिक होता है. वहीं, मटन यानी बकरे के मांस को आयुर्वेद में सबसे उपयुक्त बताया गया है जिससे जुड़ा श्लोक इस तरह है –

नाशीतगुरूस्निग्धं मांसमाजमदोषलम्
शरीरधातु सामान्यादनभिष्यदन्दि बृंहणम्

(चरकसंहिता, सूत्रस्थानम अध्याय 27 – श्लोक 61)

अर्थात, बकरे का मांस न तो तासीर में बहुत ठंडा, न बहुत देर से पचने वाला और न ही बहुत अधिक चिकनाई वाला होता है. इसलिए बकरे का मांस शरीर में किसी भी दोष को नहीं बढ़ाता है. मनुष्य और बकरे के मांस के गुण समान होने के चलते यह मांस सबसे उपयुक्त है.

बीफ यानी गाय या भैंस के मांस की बात करें तो यह मृगमांसों के समूह में आता है. भैंस के मांस को अधिक चिकनाई वाला, गर्म, देर से पचने वाला, मोटापा और नींद बढ़ाने वाला बताया गया है. आयुर्वेद व्याख्याकार यह दिलचस्प बात भी जोड़ते हैं कि कुम्भकर्ण का प्रिय भोजन भैंस का मांस था. वहीं, सबसे अधिक विवादित रहने वाले गौमांस के बारे में आयुर्वेद कहता है कि इसका सेवन करने से सूखी खांसी, जुकाम, कभी भी होने वाला बुखार, थकान, कमजोरी और वातरोग दूर होते हैं. लेकिन यह खूबियां बताने के बावजूद चरक ऋषि इसे मृग्मांसों में सबसे अधिक अपथ्य (प्रतिकूल भोजन) और वाग्भट निंदित भोजन कहकर इससे दूरी बनाने का सुझाव देते हैं.

इस आलेख में ऊपर बताए गए मांस के वर्गीकरण को देखें तो ऐसा लग सकता है कि आयुर्वेद मनुष्य को छोड़कर सामने पड़ने वाले किसी भी जीव को भोजन बना लेने की बात कहता है. लेकिन व्याख्याकारों के मुताबिक आयुर्वेद हर तरह के संतुलन की बात कहता है. इसमें अन्न, दूध और मांसाहार को अलग-अलग परिस्थितियों के हिसाब से खाने लायक बताया गया है. आवश्यक न होने पर इस शास्त्र में मांस तो दूर पानी भी पीने से मना किया गया है. चरक संहिता में इससे जुड़ा श्लोक कुछ इस तरह है –

अन्नं वृत्तिकारणां श्रेष्ठम, क्षीरं जीवनीयानां, मांसं बृंहणीयानां

(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् अध्याय 25 – श्लोक 40)

अर्थात, जीवन यापन के लिए अन्न सर्वश्रेष्ठ आहार है, जीवन देने में दूध सबसे अच्छा है और शरीर को बढ़ाने या ताकत देने में मांस सबसे उपयुक्त है.

लगभग सभी तरह के जीवों को भोजन के विकल्प की तरह बताए जाने पर लौटें तो आयुर्वेद कहता है कि मनुष्य अपनी शारीरिक जरूरत के मुताबिक उपयुक्त जीव के मांस का उपयोग दवा या पथ्य की तरह कर सकता है. जहां तक अपने भोजन के लिए जीवहत्या का सवाल है, आयुर्वेद की पुस्तकों में ऐसी कोई स्पष्ट टिप्पणी नहीं मिलती लेकिन व्याख्याकार एक अन्य धर्मपुस्तक मनुस्मृति के एक श्लोक का हवाला देते हैं जो कुछ इस तरह है – ‘भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बु्द्धिजीविनः’ . यानी, सभी तरह के अस्तित्वों में जीवधारी मुख्य हैं और सभी जीवधारियों में मनुष्य प्रधान है. इस तरह यह कहा जा सकता है कि हमारे धर्मग्रंथ मनुष्य के जीवन या भलाई के लिए अन्य जीव के बलिदान को तार्किक मानते हैं या कम से कम पाप की तरह नहीं देखते हैं. यहां पर यह बात जरूर ध्यान खींचने वाली है कि आयुर्वेद के ज्यादातर व्याख्याकार स्वाद के लिए मांसाहार करने को गलत ठहराते हैं लेकिन इसके मूल लेखकों द्वारा दिया गया ऐसा कोई श्लोक आयुर्वेद की पुस्तकों में नहीं मिलता है.