स्वामी विवेकानंद का राजनीतिक प्रतीक की तरह इस्तेमाल उनके जीवन और विचारों के तटस्थ मूल्यांकन में एक बड़ी बाधा है
अव्यक्त | 04 जुलाई 2020
हर दौर में दुनिया में ऐसी कई ऐतिहासिक शख़्सियतें हुई हैं, जिन्होंने अपेक्षाकृत कम उम्र में ही समाज में हलचलें पैदा कर दीं. सुदूर अतीत में ईसा मसीह और शंकराचार्य हुए जिनका जीवनकाल बहुत छोटा रहा. हाल के इतिहास में छोटी उम्र के बड़े क्रांतिकारियों में भगत सिंह, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और स्वामी विवेकानंद जैसे उदाहरण सामने आते हैं.
स्वाभाविक है कि यदि छोटे से जीवन में बड़े काम हुए हैं, तो उनका जीवन भी नाटकीय घटनाओं से भरा रहा होगा. परिस्थितियों के मारे उनमें तेजी से आनेवाले बदलावों की एक श्रृंखला रही होगी. उनके व्यक्तित्व का कोई ऐसा अनोखा पहलू रहा होगा, जो उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता होगा. यह सब कुछ मिलकर उनके जीवन को किंवदंती बनाता होगा.
बाद की पीढ़ियों में ऐसे लोगों की ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवियां लोकमन में बनने लगती हैं. उनकी वैचारिक विरासतों को समझने, सहेजने और आगे बढ़ाने का सिलसिला भी चल पड़ता है. उनके सूत्र वाक्यों को उद्धरणों के रूप में बार-बार पेश किया जाता है. समाज को इसका थोड़ा फायदा भी मिल जाता है. लेकिन ऐसी शख़्सियतों का दोहन जब सियासी प्रतीकों के रूप में होने लगता है, तो उनके जीवन का तटस्थ मूल्यांकन नहीं हो पाता. इससे नए अध्येताओं के लिए भी भटकाव की पूरी संभावना बन जाती है. हमारे यहां के कई अन्य ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की तरह स्वामी विवेकानंद के साथ भी ऐसा ही होता दिख रहा है.
39 वर्ष के उनके जीवनकाल के अंतिम दस वर्ष लगातार भ्रमण और सार्वजनिक उद्बोधन वाले रहे. लेकिन लगभग नास्तिकता के कगार पर पहुंच चुके नरेंद्र के आध्यात्मिक विवेकानंद बनने की प्रक्रिया को समझे बिना हमें उनकी सच्ची थाह नहीं मिल सकती. एक भावुक, जिद्दी और जोशीले, लेकिन आजीवन तनावग्रस्त रहने वाले युवक को गेरुआधारी स्वामी या अष्ट-सिद्धियां प्राप्त कर लेने वाले चमत्कारी महामानव के रूप में ही देखने से हम अभिभूत भले हो जाएं, लेकिन उनके व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक अनुभवों का लाभ हम नहीं ले पाएंगे.
पिता की अचानक मृत्यु के बाद एक बीए पास बेरोजगार नरेंद्र पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का पहाड़ टूट पड़ता है. खर्चीले ठाट-बाट में रहने वाले पिता एक मकान के अलावा कुछ भी संपत्ति छोड़कर नहीं जाते हैं. घर का खर्च, दो छोटे भाई और एक बहिन की परवरिश और फिर अपना सामाजिक स्टेटस बनाए रखने का दबाव उसे बेचैन कर देता है. रही-सही कसर तब पूरी हो जाती है जब खानदान ही एक व्यक्ति उसके परिवार को बेघर करने के लिए मुकदमा दायर कर देता है. उसे और उसके परिवार को कई बार भूखा तक रहना पड़ता है. नरेंद्र तो कई बार भूख के मारे बेहोश तक हो जाता. वह नंगे सिर और नंगे पैर दिन भर कलकत्ते में नौकरी के लिए दर-दर भटकता और शाम को खाली हाथ टूटे मन से घर लौट आता है.
ये दुष्कर परिस्थितियां कभी-कभी तो नरेंद्रनाथ में इतना द्रोहभाव भर देतीं कि वह बिल्कुल ही नास्तिक हो जाता. और जब विपत्ति में कुछ नहीं सूझता तो तर्कवादी नरेंद्र एक सामान्य आस्तिक की भांति रामकृष्ण देव के पास जाकर हाथ जोड़कर कहता – ‘गुरुदेव! कालीजी से निवेदन कर दीजिए कि हमारे मां, बहिन, भाई को दो दाने खाने को मिलने लगें.’
कुछ लोग मानते हैं कि बचपन में घर के गाड़ीवान ने बालक नरेंद्र के सामने वैवाहिक जीवन के पचड़ों का दुःखपूर्ण और घृणास्पद चित्रण किया था, जिसकी वजह से उसने विवाहित सीता और राम की पूजा तक करनी छोड़ दी थी. लेकिन घर-गृहस्थी और कुल-खानदान का दुःखद अनुभव नरेंद्र को स्वयं भी हो चुका था और यहीं से अब वास्तविक वितृष्णा की धारा फूट पड़ी. पहले तो अटॉर्नी ऑफिस में काम करके, फिर कुछ अनुवाद का काम और स्कूल में पढ़ाकर घर की स्थिति थोड़ी पटरी पर लाई, लेकिन आगे अपने लिए कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. पश्चिमी दर्शनशास्त्र को खूब चाव से चाटकर पढ़ जानेवाले नरेंद्र को उसमें भी कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था. वह थक-हार कर बार-बार रामकृष्ण देव के पास पहुंच तो जाता, लेकिन उनके तौर-तरीकों पर उसको श्रद्धा नहीं बन पाती.
फिर भी रामकृष्ण में जो बात उसे आकर्षित करती थी, वह था उनका सरल लेकिन रहस्यमयी व्यक्तित्व. भयानक शारीरिक कष्ट में भी रामकृष्ण के मस्तमौला बने रहने की अदा भी उसको खूब भाती. धन और सांसारिक जीवन को पूरी तरह त्यागकर जिस किसी भांति आम लोगों की सेवा में जुट जाने की रामकृष्ण की धुन से वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता. और ऊपर से रामकृष्ण उसे बार-बार कहते रहते कि तेरे हाथों कुछ और होना है, तू इस कंचन और कामिनी के चक्कर में न पड़. लेकिन स्वयं भावुक होने के बावजूद नरेंद्र को यह सब भावातिरेक में कही गई बातें ही लगती.
अपने जीते-जी तो रामकृष्ण उसके लिए एक सहानुभूति और सामान्य मार्गदर्शन का बहाना बने रहे. लेकिन नरेंद्र को असली धक्का तब पहुंचा जब अनमने ढंग से ही सही लेकिन गुरु मान लिया गया यह बाबा जल्दी ही संसार छोड़कर चला गया. इससे एक तरफ तो उसे अनाथ होने जैसा बोध होने लगा और दूसरी ओर रामकृष्ण की जिम्मेदारियां अपने ऊपर उठा लेने का साहस भी पैदा हो गया. सांसारिक ऊहापोह में फंसे नरेंद्र के आध्यात्मिक विवेकानंद में कायांतरित हो जाने की वास्तविक घड़ी यही थी.
यह एक अजीब बात थी कि जिस व्यक्ति से उन्हें शास्त्रीय ज्ञान या योगविद्या इत्यादि सीखने को न मिले, उसे ही उन्होंने आजीवन अपना गुरु माना. बाद में जिस किसी से भी उन्होंने अष्टाध्यायी (संस्कृत व्याकरण), उपनिषद् और योगविद्या इत्यादि सीखी, उसे वे अपने गुरु का दर्जा न दे सके. 1890 में एक बार गाजीपुर के एक योगी संत पवहारी बाबा से योग की दीक्षा लेने की बात उनके मन में आई, तो उन्हें तुरंत ही बहुत ग्लानि भी महसूस होने लगी. उन्हें याद आ गया था कि वे पहले ही रामकृष्ण को अपना गुरु मान चुके हैं.
भारत भ्रमण पर निकलने के बाद जब विवेकानंद ने एक तरफ धार्मिक मठों और मंदिरों की अन्यायकारी व्यवस्था देखी, और दूसरी ओर देश के गरीबों और दबे-कुचलों की दयनीय स्थिति देखी, तो उनका हृदय करुणा से भर गया. लेकिन स्वयं अपने जीवन में जिस ताप से उनका रोम-रोम जल चुका था, वह उनके हृदय में कहीं न कहीं गड़ा हुआ था. इसलिए यथास्थिति पर जब भी उनका मुंह खुलता, तो कठोर भाषा ही निकलती. अप्रिय परिस्थितियां पैदा करने वाले लोगों और संगठनों के लिए उनके मुंह से ‘कीड़ों’, ‘कायरों’, ‘मूर्ख’ और ‘सड़े-गले मुर्दों’ जैसे शब्द ही आम तौर पर निकला करते.
भारतीय समाज की तत्कालीन दुर्दशा देखर उनपर प्रायः एक बेचैनी और अधीरता हावी रहती. इसलिए उनकी आध्यात्मिक साधना भी तत्कालीन भारत की सामाजिक जरूरतों के हिसाब से ढल गयी. यह एक बात उन्हें उस समय के सारे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आंदोलनों से अलग करती थी. चाहे वह ब्रह्म समाज हो, आर्य समाज हो या थियोसोफिकल सोसायटी हो. पाठ करते-करते वे अचानक गीता को बंद करके एक ओर रख देते और कहते – ‘क्या होगा गीता पाठ करके’. ‘गीता’ का विलोम ‘त्याग’ चाहिए.
आज भले ही कुछ लोगों को विवेकानंद ठेठ हिंदूवादी प्रतीत होते हों, लेकिन यह हिंदूवाद उनके अपने तरह का था जिसे शायद आज का राजनीतिक हिंदूवाद भुनाना चाहता है. वास्तव में, सार्वजनिक जीवन में आने के बाद विवेकानंद को एक ओर आध्यात्मिक वेदांत की विराटता अपनी ओर खींचती तो दूसरी ओर सामाजिक परिस्थितियां उन्हें उद्वेलित और विचलित कर देती थीं. और जैसे ही उन्हें इसके लिए जिम्मेदार कुछ दिखाई देता, वे तैश और प्रतिक्रिया से भर उठते. कलकत्ता जो ब्रह्म समाजियों का गढ़ था, वहां इस संस्था ने ‘हिंदू’ शब्द और हिंदू समाज को लगातार कोसने का रवैया अपना लिया था. दूसरी ओर ईसाई मिशनरी भी सांप्रदायिकतावश हिंदू समाज की कटु आलोचना बारंबार करते रहते थे. इसी से क्षुब्ध होकर विवेकानंद ने समसामयिक समाज में थोड़ा आत्मविश्वास भरने के लिए हिंदू शब्द का सहारा लेना शुरू किया.
लेकिन इस पर अपनी स्थिति को अच्छी तरह से स्पष्ट करने के लिए एक बार उन्होंने कहा था — ‘मुझे जो कुछ कहना है, मैं उसे अपने ही भावों में कहूंगा. मैं अपने वाक्यों को न तो हिंदू ढांचे में ढालूंगा, न ईसाई ढांचे में और न किसी दूसरे ढांचे में ही.’ दुनिया भर की सभ्यताओं और ज्ञान-विज्ञान के प्रति उनका आकर्षण जगजाहिर था. उन्होंने भारत के लोगों को अरब के मुसलमानों से साफ-सफाई और स्वच्छता सीखने को कहा था जो रेगिस्तानी कारवां में भी अपने खाने पर धूल नहीं पड़ने देते.
विवेकानंद के साहित्य का सबसे बड़ा हिस्सा जातिवाद और पुरोहितवाद के खिलाफ ही है. समाजवाद ने भी उन्हें सहज ही आकर्षित किया था. नवंबर, 1894 में न्यूयॉर्क से अलासिंगा पेरुमल को वे चिट्ठी में लिखते हैं- ‘अन्न! अन्न! मुझे इस बात का विश्वास नहीं है कि वह भगवान जो मुझे यहां पर अन्न नहीं दे सकता, वह स्वर्ग में मुझे अनंत सुख देगा. राम कहो! भारत को उठाना होगा, गरीबों को खिलाना होगा, शिक्षा का विस्तार करना होगा और पौरोहित्य की बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वे चकराती हुई एकदम अटलांटिक महासागर में जाकर गिरें.’
जापान से अपने मद्रासी मित्रों को लिखे एक पत्र में वे कहते हैं – ‘आओ मनुष्य बनो. उन पाखंडी पुरोहितों को जो सदैव उन्नति में बाधक होते हैं, बाहर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा. उनके हृदय कभी विशाल न होंगे. उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षों के अंधविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है. पहले इनको जड़मूल से निकाल फेंको.’
किसी समय में वर्णाश्रम की वैज्ञानिक व्यवस्था को अंशतः स्वीकारते हुए भी उन्होंने जाति-व्यवस्था की इतनी कटु भाषा में आलोचना की है, जितना उनके समकालीनों में महात्मा जोतिबा फुले के अलावा और शायद किसी ने नहीं की है. जाति से ब्राह्मण नहीं होने की वजह से स्वयं विवेकानंद को भयंकर भेदभाव का शिकार होना पड़ा. इतना कि कलकत्ते में उनके लिए सार्वजनिक सभा तक करना मुश्किल हो गया और कुछ समय के लिए उन्होंने प्रण किया कि वे केवल व्यक्तिगत प्रवचन ही करेंगे.
एक स्थान पर वे कहते हैं- ‘स्मृति और पुराण सीमित बुद्धिवाले व्यक्तियों की रचनाएं हैं और भ्रम, त्रुटि, प्रमाद, भेदभाव और द्वेषभाव से परिपूर्ण हैं. …राम, कृष्ण, बुद्ध, चैतन्य, नानक, कबीर आदि सच्चे अवतार हैं, क्योंकि उनके हृदय आकाश के समान विशाल थे. …पुरोहितों की लिखी हुई पुस्तकों में ही जाति जैसे पागल विचार पाए जाते हैं.’ लेकिन बाद में चालाकी से कुछ लोगों ने उनकी एक ऐसी छवि गढ़ी जिससे वे भी भगवा-वस्त्रधारी हिंदूवादी साबित हो जाएं. यही कारण है कि न तो प्रगतिशीलों ने उन्हें अपनाया, न समाजवादियों ने और न ही जाति-विरोधी आंदोलनों ने. उनको हड़पा भी तो किसने – राजनीतिक हिंदूवादियों ने. असली विवेकानंद को जानने पर यह एक बहुत बड़ा विरोधाभास नजर आता है.
जीवन के एक पड़ाव पर आकर वे वेदांत की विराटता के अनंत आनंद को महसूस करने लगे थे औऱ उसके सामने कई बार बाकी सब कुछ उन्हें तुच्छ और छोटा नज़र आने लगता. इस समय उनकी भाषा में एक अभिभावकपना भर जाता, मानो वे बाकी सबको अपना बच्चा समझ रहे हों. ‘बच्चे’, ‘मेरे पुत्रो’ ‘वत्स’ जैसे संबोधन का इस्तेमाल तो वे अक्सर ही करते थे, और ऐसा सहज होता हुआ दिखता था.
विवेकानंद लगातार सीखते रहे और बदलते रहे. उन्हें जब जो सही लगा उसे बिना लाग-लपेट के और जोरदार तरीके से कहा. इसलिए कई बार वे अपने निर्णय और विचारों को तुरंत ही पलट देते थे. उसका एक नमूना यहां दिया जा रहा है: जून 1894 में शिकागो से शशि नाम के अपने एक गुरुभाई को वे चिट्ठी में लिखते हैं – ‘चरित्र-संगठन हो जाए, फिर मैं तुम लोगों के बीच आता हूं, समझे? दो हजार, दस हजार, बीस हजार संन्यासी चाहिए, स्त्री-पुरुष दोनों, समझे? चेले चाहिए चेले, जिस तरह भी हों. गृहस्थ चेलों का काम नहीं, त्यागी चाहिए – समझे? …केवल चेले मूड़ो, स्त्री-पुरुष जिसकी भी ऐसी इच्छा हो – मूड़ लो, फिर मैं आता हूं. बैठे-बैठे गप्पें लड़ाने और घंटी हिलाने से काम नहीं चलेगा. घंटी हिलाना गृहस्थों का काम है.’
लेकिन एक महीने के भीतर अपने इसी गुरुभाई को लिखे दूसरे पत्र में वे अपनी राय बदल देते हैं, और वह भी उतने ही जोरदार तरीके से. वे लिखते हैं – ‘हममें एक बड़ा दोष है – संन्यास की प्रशंसा. पहले-पहल उसकी आवश्यकता थी, अब तो हम लोग पक गये हैं. उसकी अब बिल्कुल आवश्यकता नहीं. समझे? संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद न देखेगा, तभी तो यथार्थ संन्यासी है.’
विवेकानंद किसी भी प्रकार की कट्टरता के खिलाफ थे. जीवन-चर्या को लेकर भी वे किसी कठोर अनुशासन के पक्षधर नहीं थे. उन्हें स्वयं भी मांसाहार और धूम्रपान से परहेज नहीं था. हालांकि उन्होंने इन सब चीजों का कभी महिमांडन भी नहीं किया. जातिभेद के प्रसंग में उन्होंने अपने धूम्रपान से जुड़ी एक घटना का जिक्र अवश्य किया. आगरा और वृंदावन के बीच के रास्ते में उन्होंने तंबाकू पीने के लिए किसी से चिलम मांगी. उस आदमी ने कहा – ‘महाराज, मैं मेहतर हूं.’ विवेकानंद एकबार को तो आगे बढ़ गए, लेकिन तभी उनके मन में विचार उठने लगे कि मैंने तो जाति, कुल, मान सब त्यागकर संन्यास लिया है, तो मेहतर को नीच क्यों समझूं. वे वापस लौटे और मेहतर के हाथों से चिलम लेकर धूम्रपान किया.
महिलाओं के कल्याण के बारे में विवेकानंद के विचार अपने समय के नारीवादियों से कहीं आगे के थे. चीन, जापान अमेरिका और यूरोप जहां कहीं भी वे गए, उन्होंने वहां की महिलाओं की स्थिति का खासतौर पर अध्ययन और विश्लेषण किया. सिस्टर निवेदिता से संगति और लगातार बहस ने भी उन्हें महिलाओं की स्थिति समझने में मदद की. इसलिए उन्होंने भारत की महिलाओं के उत्थान के बारे में जोरदार तरीके से अपनी बात रखी. 25 सितंबर 1894 को अपने प्रिय मित्र शशि (स्वामी रामकृष्णानंद) को न्यूयॉर्क से लिखी चिट्ठी में वे कहते हैं – ‘मैं इस देश की महिलाओं को देखकर आश्चर्यचकित हो जाता हूं. …ये कैसी महिलाएं हैं, बाप रे! मर्दों को एक कोने में ठूंस देना चाहती हैं. मर्द गोते खा रहे हैं. …मैं स्त्री-पुरुष भेद को जड़ से मिटा दूंगा. आत्मा में भी कहीं लिंग का भेद है? स्त्री और पुरुष का भेदभाव दूर करो, सब आत्मा है.’
एक अन्य संन्यासी शिष्य को फटकारते हुए उन्होंने कहा था- ‘तुम लोग स्त्रियों की निंदा ही करते रहते हो, परंतु उनकी उन्नति के लिए तुमने क्या किया, बताओ तो? स्मृति आदि लिखकर, नियम-नीति में बांधकर इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम बच्चा पैदा करने की मशीन बना डाला है. …सबसे पहले महिलाओं को सुशिक्षत बनाओ, फिर वे स्वयं कहेंगी कि उन्हें किन सुधारों की आवश्यकता है. तुम्हें उनके प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है? …उन्नति के लिए सबसे पहले स्वाधीनता की आवश्यकता है. …महिलाओं के प्रश्न को हल करने के लिए आगे बढ़ने वाले तुम हो कौन? अलग हट जाओ. अपनी समस्याओं की पूर्ति वे स्वयं कर लेंगी.’
विवेकानंद के हृदय में समूची मानवता के प्रति अगाध प्रेम और दया थी. लेकिन अपनी भावुकता में वे बात करते-करते उग्र हो जाते थे. आंसू भी बहाने लगते थे. सब कुछ बदल डालने की धुन और जल्दी उनपर सवार थी. एकबार तो उनके मन में आया कि वे अमेरिका से बहुत सारा पैसा कमाकर लाएंगे और भारत का उद्धार कर देंगे. मोटिवेशनल स्पीच की एक कंपनी ने देखा कि विवेकानंद के भाषण को सुनने के लिए अमरीकी टूट पड़ते हैं. विवेकानंद ने भी पैसे कमाकर भारत का कल्याण करने की धुन में उस कंपनी से पैसों के एवज में भाषण देने का करार कर लिया. उनके भाषणों से उस कंपनी ने तो खूब डॉलर कमाए, लेकिन विवेकानंद को तय रुपये नहीं दिए. विवेकानंद को भी ग्लानि हुई और उन्होंने फिर से निःशुल्क भाषण देना शुरू किया. हालांकि रामकृष्ण मिशन के रूप में उनका प्रयास यही रहा कि खोखले भाषण नहीं, बल्कि वास्तविक सेवा का कार्य कर वे देश की स्थिति में ठोस सुधार लाएं.
अत्यधिक भावुकता की वजह से ही अपने अंतिम दिनों में वे बहुत अकेलेपन और निराशा के भी शिकार हुए. इससे उनके स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा असर पड़ा और दमे ने उन्हें बहुत परेशान कर दिया. इस दौरान वे कभी अपने शिष्यों से कहते – ‘प्यारे बच्चो! पूरे भारत पर टूट पड़ो’ (यानि जनसेवा के लिए फैल जाओ)। लेकिन जब अड़चनें सामने आती तो उद्विग्न और विचलित होकर कहते – ‘कुछ नहीं, अब मैं हिमालय जाना चाहता हूं, छोड़ो प्रपंच।’ उनकी भावुकता का एक अंतिम और अविश्वसनीय उदाहरण यह है कि संन्यास ग्रहण करने के बाद भी उन्हें अपने परिवार का आर्थिक सहयोग करने की चिंता रही. इसके लिए उन्होंने कई बार प्रयास भी किया.
विवेकानंद जब अंतिम बार बीमार पड़े तो मां ने कहा कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बचपन में विवेकानंद के स्वास्थ्य के लिए मानी गई एक मनौती उन्होंने पूरी नहीं की थी. मनौती थी कि ‘यदि मेरा बच्चा अच्छा हो जाए तो कालीघाट के काली मंदिर में विशेष पूजा करवाऊंगी और श्री मंदिर में बच्चे को लोटपोट कराऊंगी.’ पर यह बात माताजी भूल गई थीं. आजीवन टोने-टोटकों और अंधविश्वास का विरोध करनेवाले विवेकानंद भावनावश अपनी मां की बात काट नहीं सके. उन्होंने कालीघाट की आदि गंगा में स्नान करके गीले कपड़ों में ही काली-मंदिर में तीन बार लोट-पोट किया और फिर होम भी किया. इसके कुछ दिनों बाद ही – 4 जुलाई 1902 को – उनका देहांत हो गया. उनकी मां का निधन उनकी मृत्यु के नौ वर्ष बाद हुआ.
कुछ लोग मानते हैं कि विवेकानंद की यही भावुक क्रांतिकारिता उन्हें एक अलग प्रकार का उग्रपंथी विद्रोही तक बना सकती थी. लेकिन रामकृष्ण परमहंस ने उनके भीतर जल रही अनियंत्रित आग पर भक्ति और धर्म से भरी करुणा का जल छिड़क दिया. हालांकि ऐतिहासिक विश्लेषणों में ‘यूं होता तो क्या होता’ वाले चिंतन का कोई स्थान नहीं है, फिर भी विवेकानंद जैसे भावुक क्रांतिकारी की असमय मृत्यु जिस ऐतिहासिक मोड़ पर हुई उसे देखते हुए कुछ बातें सहज ही ध्यान में आती हैं:
उनके निधन के तेरह साल बाद गांधीजी भारत आये थे जो कमोबेश उनकी पीढ़ी के ही थे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पहले ही दस्तक दे चुकी थी. तिलक, राजगोपालाचारी और मौलाना आज़ाद जैसे पंडित पूरी तरह राजनीति में उतर चुके थे. सांप्रदायिक मुस्लिमवाद और हिंदूवाद का खुलकर उदय हो चुका था. दंगों का सिलसिला शुरू हो चुका था. भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे युवकों में सशस्त्र क्रांति को लेकर आकर्षण बढ़ चला था. बोल्शेविक क्रांति के बाद दुनिया भर में समाजवाद और साम्यवाद के नए रूप सामने आने लगे थे. पेरियार और अंबेडकर के रूप में जाति और पुरोहितवाद विरोधी आंदोलन एक नई शक्ल ले चुका था.
ऐसी परिस्थितियों में क्या यह देखना दिलचस्प नहीं होता कि विवेकानंद अगर थोड़े समय और होते तो क्या करते? बेशक, लगातार सीखने और तेजी से बदलने वाले धुन के पक्के विवेकानंद थोड़ा और जीते, तो शायद कुछ और ही होते!
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