परीक्षा के लिए पहुंचे छात्र

समाज | शिक्षा

क्यों अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के मामले में यूजीसी को ज़िद्दी नहीं ज़मीनी होने की जरूरत है

कोरोना महामारी के तेज़ी से बढ़ते प्रकोप के बीच यूजीसी सितंबर तक विश्वविद्यालयों के अंतिम वर्ष की परीक्षाएं संपन्न करवा देना चाहता है

अभय शर्मा | 03 अगस्त 2020 | प्रतीकात्मक फोटो: यट्यूब

बीती छह जुलाई को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने स्नातक और परास्नातक के अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को लेकर नए दिशा निर्देश जारी किए. इन दिशा निर्देशों में कहा गया है कि देश के सभी विश्वविद्यालयों में 30 सितंबर 2020 तक अंतिम वर्ष या अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएं करा ली जाएं. यूजीसी के इस आदेश का पूरे देश में विरोध हो रहा है. छात्रों और शिक्षाविदों के बाद दिल्ली, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र की राज्य सरकारों ने भी परीक्षा करवाने में असमर्थता जाहिर करते हुए यूजीसी से अपने फैसले को वापस लेने की मांग की है. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस बाबत केंद्र सरकार को पत्र भी लिखा है.

हालांकि, विरोध के बावजूद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने अंतिम वर्ष या अंतिम सेमेस्टर की परीक्षा सितंबर के अंत में कराने के अपने निर्णय को उचित ठहराया है. उसने उच्चतम न्यायालय से कहा है कि देश भर में छात्रों के शैक्षणिक भविष्य को बचाने के लिए ऐसा किया गया है. आयोग ने अदालत से कहा है कि उसने यह फैसला गहन अध्ययन और चर्चा के बाद लिया है. उसके मुताबिक इस साल जून में कोविड-19 महामारी की स्थिति को देखते हुए उसने विशेषज्ञ समिति से 29 अप्रैल के दिशा-निर्देशों पर फिर से विचार करने का अनुरोध किया था. अप्रैल के दिशा-निर्देशों में विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों से कहा गया था कि वे अंतिम वर्ष की परीक्षाएं जुलाई 2020 तक आयोजित करें. यूजीसी के अनुसार इसके बाद विशेषज्ञ समिति ने काफी विचार विमर्श और हालातों की समीक्षा करने के बाद आखिरी सेमेस्टर की परीक्षाएं जुलाई की जगह सितंबर तक कराये जाने का निर्णय लिया. हालांकि समिति ने यह सिफारिश भी की है कि कोविड की स्थिति को देखते हुए विश्वविद्यालय ये परीक्षाएं ऑफलाइन, ऑनलाइन या मिश्रित प्रक्रिया के तहत करवा सकते हैं.

यूजीसी के परीक्षाएं करवाने के अपने निर्णय पर अटल रहने के बाद देश के 13 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के विश्वविद्यालयों के 31 छात्रों ने सुप्रीम कोर्ट से यूजीसी के आदेश पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने की अपील की है. सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की अगली सुनवाई 10 अगस्त को होनी है.

यूजीसी के तर्कों में कितना दम?

यूजीसी ने बीती छह जुलाई को विश्वविद्यालयों में अंतिम वर्ष की परीक्षा के लिये जो दिशा निर्देश जारी किये, उनमें 30 सितंबर तक हर हाल में परीक्षा करवाने को कहा गया है. आयोग का तर्क है कि अंतिम वर्ष या अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएं करवाना इसलिए जरूरी है क्योंकि इस परीक्षा का महत्व स्नातक के शुरुआती दो वर्षों से कहीं ज्यादा है. यूजीसी के सचिव प्रोफेसर रजनीश जैन एक समाचार चैनल से बातचीत में कहते हैं, ‘अंतिम वर्ष या अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएं इसलिए सबसे महत्वपूर्ण हो जाती हैं क्योंकि ये टर्मिनल पॉइंट एग्जाम हैं, जिसके आधार पर छात्र डिग्री लेकर जाएगा और यह मार्कशीट हमेशा उसके साथ रहेगी. वह जब कभी नौकरी या आगे की उच्च शिक्षा के लिए आवेदन करेगा तो टर्मिनल पॉइंट एग्जाम की मार्कशीट उसके सबसे ज्यादा काम आएगी, इसलिए परीक्षा करवा कर इस मार्कशीट की प्रमाणिकता जांचना बेहद जरूरी हो जाता है.’

यूजीसी के सचिव के इस तर्क को न केवल कई छात्र बल्कि शिक्षा क्षेत्र से जुड़े जानकार भी सही नहीं ठहराते. इन लोगों का कहना है कि स्नातक हो या फिर परास्नातक दोनों में ही हर सेमेस्टर का बराबर का महत्व है. और जब कोई छात्र आगे नौकरी के लिए या फिर उच्च शिक्षा के लिए आवेदन करता है तो उसे हर सेमेस्टर के प्राप्तांकों (मार्क्स) का लेखा-जोखा देना पड़ता है. परास्नातक के बाद पीएचडी कर चुकीं डॉक्टर शिवानी ढोढ़ी सत्याग्रह से बातचीत में कहती हैं, ‘पीएचडी में प्रवेश लेने के दौरान दसवीं कक्षा से लेकर परास्नातक तक के प्राप्ताकों की जरूरत होती है. प्रवेश परीक्षा से पहले आपको इनकी जानकारी देनी होती है. स्नातक या परास्नातक के प्राप्तांक सभी सेमेस्टरों में मिले प्राप्तांकों के औसत से निकाले जाते हैं, ऐसे में जाहिर है कि पहला सेमेस्टर हो या आखिरी सभी की अहमियत बराबर है.’ शिवानी आगे कहती हैं कि प्लेसमेंट या नौकरी के दौरान भी यह औसत ही आपको बताना पड़ता है.

काफी समय से छात्रों के अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे वरिष्ठ अधिवक्ता और महाराष्ट्र छात्र संघ के संस्थापक अध्यक्ष सिद्धार्थ इंगले ने 17 मार्च को बॉम्बे हाईकोर्ट में कोविड-19 के चलते परीक्षाएं रद्द करने की याचिका दायर की थी. इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने परीक्षाएं रोक दी थीं. सिद्धार्थ इंगले भी सत्याग्रह से बातचीत में सभी सेमेस्टर्स को बराबर अहमियत दिए जाने की बात कहते हैं. वे इससे जुडी एक अहम जानकारी भी साझा करते हैं. सिद्धार्थ कहते हैं, ‘2009 में यूजीसी ने शिक्षा व्यवस्था में कई रिफॉर्म किये थे. इनके तहत छात्रों के मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन करने से जुडी नीति में च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम (सीबीसीएस) और ग्रेडिंग सिस्टम सहित कई तरह की नयी व्यवस्थाओं को शामिल किया गया था. उस समय ही सेमेस्टर पैटर्न को भी लागू किया गया और हर सेमेस्टर को बराबर महत्व दिया गया. 2014 के बाद इन रिफॉर्म को महाराष्ट्र और देश के अन्य राज्यों में स्थित (यूजीसी से संबद्ध) सभी विश्वविद्यालयों में लागू कर दिया गया था.’ सिद्धार्थ इंगले भी आगे कहते हैं, ‘अगर स्नातक करने के बाद कोई छात्र आगे कहीं उच्च शिक्षा में प्रवेश लेता है तो उसे स्नातक के हर सेमेस्टर के मार्क्स दिखाने पड़ते हैं, केवल आखिरी वर्ष या आखिरी सेमेस्टर के मार्क्स से काम नहीं चलता.’

सिद्धार्थ यूजीसी के फैसले से जुड़े वर्तमान विवाद को लेकर यह भी कहते हैं जब हर सेमेस्टर की अहमियत बराबर है तो आखिरी सेमेस्टर को टर्मिनल एग्जाम या विशेष परीक्षा की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. उनके मुताबिक इसे इस तरह से देखने की जरूरत है कि स्नातक के आखिरी साल का छात्र पांच सेमेस्टर की परीक्षायें पहले ढाई साल में दे चुका है और अब महज उसे एक सेमेस्टर में ही बिना परीक्षा के प्रोमोट किया जा रहा है. वे जोड़ते हैं कि जब सौ साल की सबसे बड़ी महामारी आयी हुई हो और लोगों का जीवन दांव पर लगा हो तब तो ऐसा किया ही जा सकता है.

परीक्षा से छात्रों को होने वाली परेशानी और उस पर यूजीसी की प्रतिक्रिया

यूजीसी के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे कई छात्रों का कहना है कि 30 सितंबर तक परीक्षा करवाने के आदेश को लेकर सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश में हर दिन कोरोना वायरस के मामले बढ़ते जा रहे हैं, ऐसे में कॉलेज जाकर परीक्षा देना खतरे से खाली नहीं है. अगर कोई छात्र परीक्षाओं के दौरान कोरोना संक्रमित हो गया या उसके घर में कोई संक्रमित पाया गया तो फिर छात्र को क्वारंटीन होना पड़ेगा और उसकी परीक्षाएं बीच में छूट जाएंगी. बहुत से छात्र ऐसे भी हैं, जिन्हें कई बीमारियां हैं और कोविड-19 की चपेट में आने पर उन्हें जान का भी खतरा है. कुछ लोगो का यह भी कहना है कि कई राज्यों ने अपने कुछ इलाकों में अभी भी लॉकडाउन लगा रखा है, साथ ही यातायात के पर्याप्त साधन भी नहीं हैं, ऐसे में छात्र परीक्षा स्थल तक कैसे पहुंचेंगे? इसके अलावा बिहार, असम और कुछ अन्य पूर्वोत्तर राज्य इस समय बाढ़ में डूबे हुए हैं. जाहिर है कि ऐसी स्थिति में कई छात्रों का परीक्षा केंद्र तक पहुंचना सम्भव नहीं हो सकेगा.

यूजीसी के आदेश के विरोध में दाखिल कई याचिकाओं में ऑनलाइन परीक्षा पर भी सवाल उठाये गए हैं. इनमें कहा गया है, ‘यूजीसी का कहना है कि अगर छात्र परीक्षा केंद्र तक आने में असमर्थ हैं तो परीक्षाएं ऑनलाइन भी कराई जा सकती हैं. लेकिन कश्मीर सहित देश के कई हिस्से ऐसे हैं, जहां मोबाइल इंटरनेट बैंडविड्थ 2जी नेटवर्क तक ही सीमित है या फिर खराब इंटरनेट कनेक्टिविटी है. देखा जाए तो पूरी भारतीय आबादी में से केवल एक तिहाई आबादी के पास ही ठीक-ठाक इंटरनेट कनेक्टिविटी उपलब्ध है. ऐसे में ऑनलाइन मोड के माध्यम से ऐसी परीक्षाएं आयोजित करना, अधिकतर छात्रों (दो तिहाई) को समान अवसर से वंचित करने देने के अलावा कुछ भी नहीं है.’ कानून के कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि जब यूजीसी को पहले से पता है कि तमाम दिक्कतों की वजह से लाखों छात्र परीक्षा में नहीं बैठ पाएंगे, फिर भी परीक्षाएं करवाना मौलिक अधिकारों से जुड़े संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का खुला उल्लंघन है.

हालांकि, इस मामले में यूजीसी का कहना है कि अगर कोई छात्र किसी भी वजह से 30 सितंबर तक परीक्षा नहीं दे पाता है तो उसे आगे परीक्षा देने का मौका मिलेगा. यूजीसी के सचिव रजनीश जैन के मुताबिक जब भी परस्थितियां सुधरेंगी विश्वविद्यालय उन छात्रों के लिए परीक्षा का आयोजन करेगा, जो छात्र सितंबर 2020 में परीक्षा नहीं दे पाए थे.

यूजीसी के इस तर्क पर भी विवाद खड़ा होता दिखाई दे रहा क्योंकि जानकारों का कहना है कि इस तरह से तो कई छात्रों की परीक्षाएं बहुत ज्यादा देर में होंगीं जिसका उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है. सिद्धार्थ इंगले सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘सितंबर में परीक्षा करवाने का मतलब है कि रिजल्ट दिसंबर तक आएगा. अगर परीक्षा में कुछ छात्र फेल होते हैं तो उन्हें आगे फिर परीक्षा (बैक एग्जाम) देनी होगी. इस पूरी प्रक्रिया में छात्रों का काफी समय बरबाद होगा और आखिर में कई छात्रों के हाथ में एक साल बाद डिग्री आयेगी. यानी अगर आप देखो तो सिर्फ एक सेमेस्टर के लिए छात्रों का पूरा एक साल बरबाद हो रहा है. ऐसे छात्र नौकरी पाने के लिए भी एक साल लेट हो जाएंगे और कई मौके उनके हाथ से निकल जाएंगे.’ सत्याग्रह से बातचीत में कुछ छात्रों ने ये माना भी है कि अंतिम वर्ष की मार्कशीट और डिग्री नहीं होने के कारण वे कई नौकरियों के लिए आवेदन नहीं कर सके हैं.

फाइनल सेमेस्टर में छात्रों को बिन परीक्षा प्रोमोट करना ज्यादा तार्किक

कुछ जानकार कहते हैं कि किसी विश्वविद्यालय के लिए स्नातक प्रथम या द्वितीय वर्ष के छात्रों की तुलना में आखिरी सेमेस्टर के छात्रों को बिना परीक्षा प्रोमोट करना ज्यादा आसान काम है. आगरा विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर कहते हैं कि ‘इस समय प्रथम वर्ष के छात्र को उसके दूसरे सेमेस्टर में प्रोमोट किया गया है, यानी वह इससे पहले केवल एक सेमेस्टर की परीक्षा ही देकर आया है. इसी तरह द्वितीय वर्ष का छात्र तीन सेमेस्टर की परीक्षा देकर आया है. जबकि अंतिम वर्ष का छात्र पांच सेमेस्टर की परीक्षाएं दे चुका है. यानी कि पांच सेमेस्टर की परीक्षा दे चुके छात्र के बारे में यह ज्यादा आसानी से पता किया जा सकता है कि वह पढ़ने में कैसा है क्योंकि उसके पास सबसे ज्यादा पांच सेमेस्टरों का रिजल्ट है. और इस तरह आखिरी सेमेस्टर के छात्र को बिना परीक्षा करवाए प्रोमोट करना, प्रथम और द्वितीय वर्ष के छात्र से कहीं ज्यादा लॉजिकल है.’

कुछ छात्र इसी से जुड़ा एक तर्क और देते हैं. आईआईटी दिल्ली के एक छात्र आदित्य मिश्रा सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘ज्यादातर कंपनियां अंतिम सेमेस्टर की शुरुआत होने से पहले ही कॉलेज में प्लेसमेंट के लिए आ जाती हैं. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी विश्वसनीयता का अनुमान पिछले सेमेस्टरों द्वारा लगाया जा सकता है.’ आदित्य सवाल करते हुए आगे कहते हैं, ‘जब कंपनियां पिछले प्रदर्शन के आधार पर कैंपस प्लेसमेंट दे सकती हैं तो क्यों कोई यूनिवर्सिटी स्नातक के अंतिम सेमेस्टर के छात्र को उसके बीते पांच सेमेस्टर के आधार पर प्रोमोट नहीं कर सकती? यह काम तो प्रथम और द्वितीय वर्ष के छात्र की तुलना में और भी आसान है.’

कुछ प्रोफेसर परीक्षा को जरूरी भी मानते हैं

कुछ विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर आखिरी सेमेस्टर की परीक्षा को महत्वपूर्ण बताते हुए अलग-अलग तर्क देते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि सभी विश्वविद्यालय बीते मार्च से बंद हैं. ऐसे में अंतिम वर्ष के कई छात्रों ने बीते कई महीनों से अपने आखिरी सेमेस्टर के सिलेबस को नहीं देखा होगा. जबकि यह आगे उनके लिए काफी मददगार साबित होने वाला है. अगर परीक्षाएं नहीं कराई गयीं तो कई छात्र आखिरी सेमेस्टर की पढ़ाई ही नहीं करेंगे और उसके सिलेबस से पूरी तरह अंजान ही रह जाएंगे. ऐसे छात्रों को नौकरी के लिए किसी प्रवेश परीक्षा में इसका खामियाजा उठाना पड़ सकता है. ये लोग कहते हैं कि इसलिए परीक्षाएं करवाई जानी चाहिए जिससे कि छात्र अपने आखिरी सेमेस्टर के सिलेबस पर भी ध्यान दें.

राजस्थान स्थित वनस्थली विद्यापीठ में होम साइंस विभाग की प्रमुख डॉक्टर इंदु बंसल सत्याग्रह से बातचीत में कहती हैं, ‘अगर परीक्षाएं नहीं होती हैं तो इससे अच्छे छात्रों का नुकसान हो सकता है क्योंकि अच्छे छात्र हमेशा परीक्षा देना ही चाहते हैं. जो छात्र पढ़ाई में अच्छे नहीं होते हैं परीक्षा न होने से उनका फायदा हो जाएगा क्योंकि जब बिना परीक्षा के किसी छात्र का मूल्यांकन होगा तो शायद ही कोई छात्र फेल किया जाए.’

यह पूछने पर कि जब प्रथम वर्ष और द्वितीय वर्ष के छात्रों को बिना परीक्षा प्रोमोट कर दिया गया तो अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए परीक्षा देना जरूरी क्यों है? इसके जबाव में इंदु बंसल कहती हैं, ‘अगर प्रथम वर्ष और द्वितीय वर्ष के छात्रों को बिना परीक्षा प्रोमोट करने पर कुछ अच्छे छात्रों का नुकसान हो भी जाता है तो उन्हें इस बात की तसल्ली रहती है कि उनके पास आगे (दो से चार) सेमेस्टर बाकी हैं, जिनमें वे नुकसान की भरपाई कर सकते हैं. लेकिन आखिरी सेमेस्टर वाले छात्र के पास ऐसा मौका नहीं होता है. अगर सीधे प्रोमोट करने पर आखिरी साल या आखिरी सेमेस्टर के छात्र का कुछ नुकसान हुआ तो वह फिर इसकी भरपाई नहीं कर पायेगा.’

डॉक्टर बंसल अपनी बात के समर्थन में आगे जोड़ती हैं, ‘हम लोग क्लॉस में अक्सर आखिरी सेमेस्टर के छात्रों से कहते भी हैं कि अपनी मार्कशीट बेहतर करने का उनके पास यह आखिरी मौका है. और इसलिए उन्हें ज्यादा मेहनत करनी चाहिए.’

समस्या का समाधान क्या हो सकता है?

डॉक्टर इंदु बंसल और शिक्षा क्षेत्र के कुछ अन्य जानकार इस समस्या के समाधान के तौर पर कुछ विकल्प भी सुझाते हैं. ये लोग कहते हैं कि यूजीसी छात्रों को ‘परीक्षा देने या न देने’ का विकल्प दे सकता है. इसमें जो छात्र सीधे प्रोमोट होने के इच्छुक हैं और कोविड-19 के चलते परीक्षा नहीं देना चाहते हैं, वे परीक्षा न देने का विकल्प चुनें और उन्हें पिछले प्रदर्शन के आधार पर प्रमोट कर दिया जाए. इसके अलावा जो छात्र परीक्षा देना चाहते हैं, वे ऑनलाइन या ऑफलाइन परीक्षा देने के विकल्प का चुनाव कर सकते हैं. जानकार कहते हैं कि इस तरह से सभी (परीक्षा देने और न देने के इच्छुक) छात्रों को संतुष्ट किया जा सकता है.

कुछ लोग लगभग ऐसा ही तर्क देते हुए कहते हैं कि अभी अंतिम सेमेस्टर के सभी छात्रों को उनके पिछले सेमेस्टरों के प्रदर्शन के आधार पर प्रोमोट कर दिया जाए. इसके बाद जब कोरोना महामारी से छुटकारा मिल जाए तो उन छात्रों के लिए परीक्षाएं आयोजित करवा दी जाएं जिन्हें लगता है कि वे परीक्षा के जरिये प्रोमोट होने के दौरान मिले अंकों से बेहतर अंक पा सकते हैं.

क्या विश्वविद्यालय अपने स्तर पर ही डिग्री दे सकते हैं?

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 की धारा 22(1) के अनुसार ‘उपाधियां प्रदान करने या देने के अधिकार का प्रयोग किसी केंद्रीय अधिनियम, प्रांतीय अधिनियम या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित या निगमित किसी विश्वविद्यालय द्वारा या धारा 3 के अधीन विश्वविद्यालय समझी जाने वाली किसी संस्था द्वारा या संसद के किसी अधिनियम द्वारा उपाधिया प्रदान करने या देने के लिए विशेषत: सशक्त किसी संस्था द्वारा ही ऐसा किया जाएगा.’ इस आधार पर पर कई जानकार मानते हैं कि विश्वविद्यालय अपने स्तर पर भी डिग्री का वितरण कर सकता है. सिद्धार्थ इंगले बताते हैं कि इसके अलावा कुछ राज्यों जैसे महाराष्ट्र में ‘पब्लिक यूनिवर्सिटी एक्ट’ भी बना हुआ है. इसमें कहा गया है कि अगर किसी वजह से हालात बेकाबू हो जाते हैं तो विश्वविद्यालय अपने स्तर पर एक रिपोर्ट बनाये और इसे राज्य सरकार और चांसलर को भेजे. इसके बाद चांसलर और सरकार मिलकर इस बारे में फैसला ले सकते हैं.

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