राज्य, पुलिस, सेनाएं आदि जितना बचाते हैं उतना ही नष्ट भी करते हैं जबकि अपनी साधारण मनुष्यता को एक बार फिर सत्यापित करते हुए, लोग ही लोगों को बचाते हैं
अशोक वाजपेयी | 20 मार्च 2022
तैयारी के बिना
कोरोना प्रकोप के दौरान लम्बे समय तक हममें से अधिकांश को एक तरह के लाचार एकान्त में रहना पड़ा है. पढ़ना-लिखना-बोलना ही हमारा सहारा बने. संवाद बनाये रखने के लिए बड़ी संख्या में ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित होते रहे हैं- कई बार तो एक दिन में ही पांच-सात. शायद उससे ज़्यादा भी, जिनकी ख़बर मुझ तक नहीं आयी. कई बार जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर लेखकों या कलाकारों के बारे में, कई बार अन्य व्यापक विषयों या नवप्रकाशित पुस्तकों पर. मैंने भी यथाशक्य कुछ में भाग लिया हालांकि अभ्यस्त न होने के कारण हर बार मुझे यह माध्यम कुछ अटपटा लगता रहता है.
ऐसे आयोजनों में बोलने के पहले हममें से हरेक के पास प्रायः काफ़ी समय होता है. पर यह देखकर थोड़ी निराशा होती है कि कई बार वक्ता-लेखक समुचित तैयार कर नहीं बोलते और एक क़िस्म की चालू बतकही से काम निकालते हैं. यह श्रोताओं के साथ ज़्यादाती करना है जो उत्सुकता के साथ और कुछ कोशिश कर आपको सुनने जुड़ते हैं. यह विषय के साथ अन्याय होता है क्योंकि कोई गहरी या नयी बात हड़बड़ी में आप नहीं कह पाते. चूंकि यह माध्यम दृश्य-श्रव्य एक साथ है उसकी कुछ अपेक्षाएं होती हैं और कुछ सीमाएं भी. आप उस पर लिखित कुछ पढ़ें यह तो ठीक है पर वह लिखित बोलेजाने पर जीवन्त या दिलचस्प न लगे तो उससे ऊब होती है. संक्षेप में सटीक ढंग से अपनी बात कह सकना अभ्यास, अनुभव और दृष्टि से ही संभव हो पाता है. कई बार कुछ लेखक-अध्यापकों को इस तरह सुन कर कुछ सन्देह सा होता है कि वे अपनी कक्षाओं में अपने छात्रों का ध्यान कैसे- कितना केन्द्रित कर पाते होंगे.
इन कार्यक्रमों को अभी तक बहुत गंभीर विचार-विमर्श का मंच बनने में देर है. अगर वे विचार का मंच बन जायें, भले विमर्श का नहीं, तो ग़नीमत है. लगता यह है कि ऑनलाइन माध्यम बातचीत, संवाद और वक्तव्य का आगे भी एक ज़रूरी मंच रहने जा रहा है. उसकी सहज व्याप्ति उसे उपयोगी बनाती भी है. तब तो और ज़रूरी है कि हम अपनी भाषिक और वैचारिक संपदा को इस माध्यम के अनुकूल ढालें और यथासंभव अधिक सम्प्रेषणीय और बिना वैचारिक सरलीकरण के, बातचीत के नज़दीक ले जायें. नपा-तुला, संक्षेप में, सघन-उत्कट, विचारपूर्वक बोलना बातचीत की लय में निश्चय ही सम्भव है. हम ख़बरची नहीं हैं, लेखक हैं और हमारे पास भाषा की क्षमता और ज़िम्मेदारी दोनों हैं. उनको सतर्कता से सक्रिय कर सकना हमें आना चाहिये. ऐसे कार्यक्रमों को देख-सुनकर दर्शकों-श्रोताओं भाषा के नये स्वाद, नयी संभावनाएं मिलना चाहिये. आज के झगड़ालू-आक्रामक सार्वजनिक शोर-शराबे में हमारी आवाज़ अलग और शान्त, विनम्र लेकिन उग्र, सघन लेकिन स्पष्ट लग सकना चाहिये.
विनम्र उपलब्धि, तिकड़मी दक्षता
भारत सरकार हर वर्ष गणतन्त्र दिवस पर जिन पद्म पुरस्कारों की घोषणा करती है, वे प्रायः विवाद का विषय बनते हैं. जब-तब कुछ पुरस्कृत व्यक्ति इस तरह के पुरस्कार लेने से इनकार सरकार की भद उड़ा देते हैं. ऐसे लोगों में जिन्होंने पुरस्कार स्वीकार नहीं किये, कृष्णा सोबती, जगदीश स्वामीनाथन, शिशिर कुमार भादुड़ी, सन्ध्या मुखर्जी, रोमिला थापर जैसी नामचीन हस्तियां शामिल हैं. धीरे-धीरे, कम से कम साहित्य के क्षेत्र में पद्म पुरस्कार, जिसे मिलता है उसकी अपने क्षेत्र में साख कुछ घट जाती है और ऐसे लेखक को सत्ता के निकट समझा जाकर अपने लेखकीय स्वाभिमान और गरिमा से दूर जाता माने जाना लगता है.
दूसरी तरफ़, इन पुरस्कारों को जैसे-तैसे पाने की शास्त्रीय संगीत और शास्त्रीय नृत्य के क्षेत्र में होड़ सी लगी रहती है. यों राजनीति से अपने को दूर रखनेवाले कई शास्त्रीय कलाकार राजनेताओं से तिकड़म करते हैं और सफल-विफल होते रहते हैं. जिन्हें ये पुरस्कार मिल जाते हैं वह अपेक्षा और नियम के विपरीत इनका स्वयं अपने नाम के साथ उल्लिखित करने का उपक्रम करते रहते हैं.
लोककलाएं ऐसा क्षेत्र हैं जिनमें इन पुरस्कारों की बड़ी प्रतिष्ठा है. वे ऐसी कलाएं हैं जिनका क्षेत्र बहुत सीमित होता है और ऐसे पुरस्कार उन्हें राष्ट्रीय मान्यता का प्रणाम लगते हैं. उनका अपने क्षेत्र में प्रभाव और मान्यता दोनों बढ़ जाते हैं. मुझे एक उदाहरण याद आता है. राई नामक थोड़ा ऐन्द्रिय लोकनृत्य बुन्देलखण्ड में सामाजिक लांछन का शिकार था. उसके एक अद्भुत कलाकार रामसहाय पाण्डे को जब मध्यप्रदेश शासन का शिखर सम्मन मिला तो उसे एक तरह की सामाजिक प्रतिष्ठा और लांछन से मुक्ति मिल गयी. थोड़े ही दिनों बाद पता चला कि बुंदेलखण्ड की कई जगहों पर राई नृत्य-समूह सक्रिय होने लगे और उनकी संख्या जल्दी ही पचास-साठ के पार हो गयी. दूसरा उदाहरण पण्डवानी का है. उसकी उत्कृष्ठता तो झाडूराम देवांगन से और हबीब तनवीर के उसके अपने रंगमंच में प्रयोग से स्थापित हुई थी पर तीजन बाई के कारण पण्डवानी को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय लोकप्रियता मिली: उन्हें भी मध्यप्रदेश का शिखर सम्मान, पद्म श्री और पद्मविभूषण मिले हैं. सरगुजन की लोकशिल्पी सोना बाई, झाबुआ-भोपाल की लोकशिल्पी भूरी बाई को भी उचित ही पद्म पुरस्कार मिले हैं. गोविन्द झारा और पेमा फात्या को भी ये पुरस्कार मिलने चाहिये थे जो कि शायद नहीं मिले.
चूंकि सैयद हैदर रज़ा की जन्मशती चल रही है, यह याद करने का अवसर है कि किसी चित्रकार को भारत रत्न नहीं दिया गया है जबकि कम से कम दो चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन और रज़ा इसके सर्वथा सुपात्र थे. यह भी नोट करना चाहिये कि लगभग सात सौ भाषाओं के देश में किसी साहित्यकार को भी भारत रत्न नहीं दिया गया है. साहित्य और सत्ता के संबंध में अनिवार्य प्रतिकूलता का यह प्रमाण है और कारण भी.
लोगों का शरण्य लोग
ऐसे लोग अब भी दुनिया में हैं जिनका जन्म तब हुआ जब दूसरा विश्वयुद्ध या तो होनेवाला था या कि शुरू हो चुका था. इन लोगों ने जब होश सम्हाला तब तक संसार भर युद्धों के विरूद्ध और विश्व शान्ति के बड़े आन्दोलन चल रहे थे और ऐसा लगने लगा था कि मनुष्य और देश युद्ध से अन्ततः छुटकारा पा लेंगे. यह दुराशा ही सिद्ध हुआ: भले दुनिया कई बार विश्वयुद्ध की कगार पर पहुंची जैसे वियतनाम में, कोरिया में, ईराक में. लेकिन युद्धों को सीमित किया जा सका. इस बीच संसार का शस्त्रीकरण तेज़ी से और व्यापक रूप से होता रहा और कई देशों ने आणविक हथियार तक बनाने की क्षमता विकसित कर ली. आणविक बम कई देशों के पास हैं लेकिन, सौभाग्य से, किसी ने उनका उपयोग आज तक नहीं किया है. हाल ही में रूस ने यूक्रेन पर पूरी तैयारी और चेतावनी देने के बाद हमला किया है और उसके विदेश मंत्री ने आणविक हथियारों का ज़िक्र किया है. यूक्रेन में हज़ारों लोग बमबारी में मारे गये हैं और उसके कई शहर बरबाद हो गये हैं. हज़ारों भारतीय छात्र यूक्रेन में फंस गये हैं और उन्हें वहां से स्वदेश सुरक्षित लाने का एक सुनियोजित अभियान शुरू हो गया है. ‘आपदा में अवसर खोजने’ की वृत्ति के अन्तर्गत, उत्तर प्रदेश के चुनावों में, छात्रों को वापस लाने का बेशरम और फूहड़ श्रेय लेने का अभियान भी चल निकला है.
युद्ध सिर्फ़ लोगों को, उनकी रिहायशों-बस्तियों-बहरों को नष्ट नहीं करता बड़ी संख्या में लोगों को अपने देश से भागने पर मजबूर करता है. ऐसा अनुमान है कि लगभग 40 लाख यूक्रेनी नागरिक अपने पड़ोसी देशों में शरणार्थी होंगे. फिर, सौभाग्य से, पड़ोसी कई देशों ने अपनी सीमाएं और वहां आम तौर पर लागू सख़्तियां शिथिल कर दी हैं. ऐसी कहानियां आना शुरू हो गयी हैं जिनमें दूसरे देशों के लोग आगे आकर इन शरणार्थियों को शरण दे रहे हैं. हर समय सच यही है कि लोगों का शरण्य लोग ही हैं. राज्य, पुलिस, सेनाएं आदि जितना बचाते हैं उतना ही नष्ट भी करते हैं. कभी मैंने एक कविता-पंक्ति लिखी थी: ‘लोग पवित्र को बचाते हैं’ क्योंकि ‘पवित्र स्वयं अपने को बचा नहीं सकता’. अपने को जोखिम में डालकर भी, अपनी साधारण मनुष्यता को एक बार फिर सत्यापित करते हुए, लोग ही लोगों को बचाते हैं. युद्ध बहुत बरबादी लाता है, बहुत कुछ को नष्ट कर देता है. पर अन्ततः वह लोगों में रसी-बसी मनुष्यता को नष्ट नहीं कर पाता.
हालांकि बमबारी से दो भारतीय छात्रों की मृत्यु हो गयी है, यह ख़बर भी आयी है कि रायपुर का एक सिख छात्र अपनी जान की परवाह किये बिना दूसरे छात्रों को सुरक्षित पहुंचाने के कठिन काम में लग गया है. हमने कोरोना प्रकोप के दौरदान में सिखों द्वारा सामूहिक रूप से ऐसी सेवा के कई दृश्य देखे थे जबकि हमारा निज़ाम अक्षम्य निर्दयता और अद्भुत संवेदनहीलता से लाखों ग़रीब लोगों को अत्यन्त दारूण स्थिति में, भरी धूप में, कई बार नंगे पैर, यातायात के साधनों के बिना, अपने गांव-घर लौटने पर विवश कर रहा था. उस समय लोगों की मदद लोगों ने ही की, सरकार ने नहीं. लोग ही लोगों का सहारा बनते हैं.
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