समाज | उस साल की बात है

हिंदू कोड बिल : महिलाओं को अधिकार दिलाने की इस ईमानदार पहल पर आरएसएस को क्या ऐतराज़ था?

1955 में आए और समाज में बड़े बदलावों की वजह बने हिंदू कोड बिल को लेकर कांग्रेस के भीतर भी कम विरोध नहीं था

अनुराग भारद्वाज | 10 दिसंबर 2021

भारतीय संविधान कहीं-कहीं बहस के लिए लोच छोड़ देता है. और जब वे मुद्दे बड़े होते हैं तो बहस घंटों या दिनों नहीं, सालों साल चला करती है और कई बार राजनैतिक अवसरवादिता का भी शिकार हो जाती है. संविधान के 44वें अनुच्छेद के साथ भी ऐसा हुआ है. इसमें कहा गया है, ‘राज्य भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा.’ यह अनुच्छेद एक ऐसा उदाहरण बन गया है जिसे लगभग हर सरकार ने अपने-अपने हिसाब से इस्तेमाल किया है.

लेकिन जब संविधान लागू किया गया था तब निर्माताओं की मंशा ऐसी नहीं थी. वे इसे पूर्ण प्रारूप में ही लागू करना चाहते थे. पर ऐसा नहीं हो पाया. 1955 में हिंदू सिविल कोड आधा-अधूरा ही पारित हो पाया. फिर भी यह एक सकारात्मक पहल थी.

यहां पर यह समझना जरूरी है कि अनुच्छेद 44 मौलिक अधिकार नहीं है बल्कि यह नीति निदेशक तत्वों के तहत आता है. इसीलिए आज तक इस पर प्रयास ही किए जा रहे हैं.

‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि जवाहरलाल नेहरू और डॉ भीमराव अंबेडकर हिंदुस्तान में यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता लागू करवाना चाहते थे. जब इस मुद्दे पर बहस छिड़ी तो संविधान समिति लगभग बिखर ही गयी.

सबसे ज़्यादा प्रतिरोध मुस्लिम लीग के सदस्यों ने किया. उनकी दलील थी कि जब पिछले 200 सालों से अंग्रेजों ने ऐसी कोई हिमाक़त नहीं की तो अब इसकी क्या ज़रूरत है. एक मुस्लिम सदस्य ने दलील दी कि उनके यहां शादियां, तलाक, जायदाद आदि बातों पर फ़ैसले शरियत के मुताबिक़ लिए जाते हैं और जो मुद्दे बहुसंख्यकों पर लागू होते हैं, अल्पसंख्यकों पर लागू नहीं किये जा सकते. कुछ ने कहा कि यूनिफार्म सिविल कोड लगाने का यह सही वक़्त नहीं है.

इसके उलट अंबेडकर, कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी और कृष्णस्वामी अय्यर ने इसकी पैरवी की. उनका मानना था कि पर्सनल लॉ देश को आगे नहीं ले जा पाएंगे. लेकिन बात बनती न देख अंबेडकर ने प्रस्ताव दिया कि इस पर आम सहमति से आगे बढ़ा जाए. उन्होंने आश्वासन भी दिया कि समान नागरिक संहिता बनेगी पर तब भी इसे जबरन लोगों पर लादा नहीं जाएगा. कुल मिलाकर बात यह हुई कि मुस्लिम समुदाय के रहनुमाओं ने समाज को इससे दूर कर दिया.

हालांकि सती प्रथा जैसी कुप्रथा पर पहले ही अंकुश लगा दिया गया था पर हिंदुओं की जीवन पद्दति में एकरूपता और सुधार लाने के प्रयास अंग्रेजी शासन आख़िरी सालों में शुरू हुए. काफ़ी अड़चनों के बाद भी ये प्रयास रुके नहीं.

हिंदू कोड बिल का संसद में रखा जाना

मुसलमानों के विरोध का नतीजा यह हुआ कि हिंदू कोड बिल प्रस्तावित किया गया. सिक्ख, जैन और बौद्ध धर्म मानने वालों को भी इसकी परिधि में लाया गया. यह आज भी एक बहस का मुद्दा है.

हिंदू कोड बिल के रखे जाने के साथ ही इस पर तीखी बहस शुरू हो गई. विरोध करने वाले दो तबके थे- एक जो हिंदू जीवन पद्दति में किसी प्रकार का बदलाव नहीं चाहता था और दूसरा, जो इसके विरोध में सिर्फ इसलिए था कि सिर्फ हिंदुओं के लिए ही सुधार क्यों किया जा रहा है, मुसलमानों पर ऐसा कोई बिल लागू क्यों नहीं किया जा रहा? यानी कि वे सैद्धांतिक तौर पर इसे सुधार तो मान रहे थे पर चूंकि मुसलमानों पर ऐसा कोई प्रावधान लागू करने की बात नहीं थी, इसलिए इसके विरोध में थे.

किस बात पर विरोध और उसके तर्क

सबसे ज़्यादा विरोध हिंदू शादियों और संपत्ति के बंटवारे को लेकर था. महात्मा गांधी के आदर्शों के अनुसार छुआछूत को ख़त्म करने और महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में आगे लाने के लिए प्रयासों को आगे बढ़ाते इस बिल के अहम प्रावधान थे:

  • हिंदू विधवाओं और लड़कियों को पिता की संपत्ति में पुत्र के बराबर की हिस्सेदारी.  
  •  हिंदू पुरुष द्वारा उप-स्त्री रखने या पत्नी के प्रति क्रूर व्यवहार रखने या पुरुष के किसी वीभत्स बीमारी से ग्रसित होने की हालत में पत्नी को अलग होने और गुज़ारा भत्ता मिलने का अधिकार.  
  •  विवाह संबंधों में किसी भी प्रकार के जातीय भेदभाव को ख़त्म करना  
  •  अमानवीय व्यवहार, विवाहेत्तर संबंध, न ठीक होने वाली बीमारी की हालत में पति-पत्नी दोनों को तलाक मिलने का अधिकार.  
  •  अमानवीय व्यवहार, विवाहेत्तर संबंध, न ठीक होने वाली बीमारी की हालत में पति-पत्नी दोनों को तलाक मिलने का अधिकार. 
  •  सिर्फ एक जीवनसाथी रखने की छूट. 
  •  किसी अन्य जाति के बच्चे को गोद लेने का अधिकार.  

इस तरह देखें तो यह हिंदू जीवन पद्दति में काफ़ी बड़े बदलाव की पहल थी और इसीलिए इसका विरोध होना भी स्वभाविक था. कई हिंदू संगठन और रसूख वाले हिंदू इनके विरोध में खड़े हो गए. अंबेडकर ने शास्त्रों का हवाला देकर समझाया कि उनमें दूसरी शादी पर प्रतिबंध की बात कही गयी है, तथाकथित नीची जातियों में तलाक़ की व्यवस्था भी है और उसी प्रकार, कहीं-कहीं पुत्री को पिता की संपत्ति में चौथाई हिस्से की बात मानी गयी है. उन्होंने दलील की कि वे सिर्फ इस हिस्से को कुछ और बढ़ाकर बराबरी पर लाने की बात कह रहे हैं.

पर विरोध मुखर था. समाज लगभग दोनों ही तरफ़ खड़ा था. समस्या तब और बड़ी हो गयी जब संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के साथ सरदार पटेल भी इसके विरोध में हो गए और उनके साथ-साथ अन्य लोग भी आ गए.

जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री आमने-सामने हो गए

अपनी क़िताब ‘भारत का संविधान’ में ग्रेनविले ऑस्टिन लिखते हैं कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद नेहरू को ख़त लिखकर आगाह करना चाहते थे. वे लिखने वाले थे कि एक प्रांतीय सरकार को संसद में मिले सीमित बहुमत (तब तक आम चुनाव नहीं हुए थे) के आधार पर इतने संवेदनशील मुद्दे पर किसी कानून को मान्य नहीं किया जा सकता ,और अगर नेहरू फिर भी नहीं माने तो वे संविधान से प्राप्त अधिकारों का प्रयोग करके इसे खारिज करवा देंगे.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि जब डॉ. प्रसाद ने सरदार पटेल से राय मांगी तो उन्होंने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया. उन्होंने डॉ. प्रसाद से कहा कि अभी राष्ट्रपति का चुनाव होना बाकी है और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उनके प्रतिद्वंदी होंगे, ऐसे समय में नेहरू से दो-दो हाथ नहीं करने चाहिए. उन्होंने ऐसा ही किया.

ऑस्टिन लिखते हैं कि डॉ. प्रसाद से संभावित टकराव और संवैधानिक संकट होने की हालत में नेहरू ने संविधान विशेषज्ञों की इस पर राय मांगी तो उन्होंने प्रधानमंत्री के पास ज़्यादा शक्तियां होने की बात कही. यह बात डॉ. प्रसाद तक भी पहुंचा दी गयी जिससे उनका विरोध थोड़ा धीमा पड़ गया. चौतरफ़ा विरोध होने के चलते संविधान लागू होने (1950) तक इस बिल को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका था.

आरएसएस और अन्य संगठनों की राय

11 दिसंबर, 1949 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आरएसएस ने एक जनसभा का आयोजन किया था जहां एक के बाद एक वक्ताओं ने बिल की निंदा की. एक वक्ता ने इसे हिंदू धर्म पर परमाणु बम गिराने की बात कही. दूसरे ने इसकी औपनिवेशिक सरकार द्वारा लादे गए कठोर रॉलेट एक्ट कानून से तुलना की. उसका कहना था कि जैसे वह कानून ब्रिटिश सरकार के पतन का कारण बना, उसी तरह बिल के खिलाफ आंदोलन नेहरू के सरकार के पतन का कारण बनेगा.

अगले दिन आरएसएस के कार्यकर्ताओं के एक दल ने संसद के लिए मार्च निकाला. ये लोग हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद, पंडित नेहरू मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे. प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री और डॉ. अंबेडकर के पुतले जलाए और शेख अब्दुल्ला की कार में तोड़फोड़ भी की. स्वामी करपात्री महाराज जो बिल के एक धुर विरोधी नेता थे, ने डॉ. अंबेडकर पर जातिगत टिप्पणियां कीं और कहा कि एक पूर्व अछूत को उन मामलों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है जो साधारणतः ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित हैं.

दिल्ली और दूसरी जगहों पर दिए गए अपने भाषणों में स्वामी करपात्री ने डॉ. अंबेडकर को शास्त्रों की व्याख्या पर आम जनता के सामने बहस करने के लिए ललकारा. उनका कहना था कि किसी समुदाय के भीतर शादी या उत्तराधिकार जैसे मामलों में सरकार की दखलंदाज़ी ठीक नहीं है. यह भी कि जो हिंदू और मुसलमान अपने-अपने धर्मग्रंथों के प्रति वफ़ादार नहीं हैं, वे संविधान के प्रति भी वफादार नहीं हो सकते.

बाद में एक साक्षात्कार में संघ के तत्कालीन मुखिया माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने कहा था कि हिंदू कोड राष्ट्रीय एकता और एकसूत्रता की दृष्टि से पूर्णत: अनावाश्यक है. उनका ये भी कहना था कि स्थानीय रीति-रिवाजों को सभी समाजों द्वारा मान्यता प्रदान की है.

अंबेडकर का इस्तीफ़ा और नेहरू की बढ़ती मुश्किलें

उधर 1951 में डॉ. अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफ़ा देकर नेहरू की मुश्किलें और बढ़ा दी. इस्तीफे देने के कई कारण थे. इनमें से एक उन्होंने बताया, नेहरू का हिंदू कोड बिल पर ढुलमुल रवैया. वहीं, हिंदू कोड बिल के विरोध में नेहरू को उनके ही संसदीय क्षेत्र इलाहाबाद से एंटी हिंदू बिल कोड कमेटी के एक नेता ने चुनौती पेश की. ये भगवाधारी प्रभु दत्त ब्रह्मचारी थे. संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रभु दत्त का समर्थन जनसंघ, हिंदू महासभा और राम राज्य परिषद कर रहे थे. उन्होंने प्रधानमंत्री के खिलाफ अपनी परंपराओं में हस्तक्षेप का आरोप लगाते हुए पर्चे छापे और उन्हें एक खुली बहस के लिए आमंत्रित किया. नेहरू समझदार थे, बहस में नहीं पड़े.

1952 के आम चुनाव और नेहरू को मिली ताक़त

इस सबके बावजूद जवाहरलाल नेहरू ने काफी बड़े अंतर से अपनी सीट पर जीत दर्ज की. कांग्रेस को भी पूरे देश भर में आसानी से बहुमत मिला. कांग्रेस की कुछ महिला सांसदों ने इस बिल को पारित किये जाने की इच्छा जताई. जैसे ही चुनावों के बाद संसद का गठन हुआ, नेहरू ने फिर हिंदू कोड बिल को पेश किया.

हिंदू कोड बनाने वाला लोकसभा में नहीं था

आम चुनावों में अंबेडकर दक्षिण मुंबई (तब बॉम्बे) की सीट पर एक मामूली कद के कांग्रेसी से हार गए थे. आपको बताते चलें कि बॉम्बे का यह इलाका, श्रेष्ठि वर्ग का इलाका कहा जाता है. यह देश के सबसे बड़े कानूनविद और देशभक्तों में से एक शख्स की हार थी या दलित बनाम-श्रेष्ठिसमाज की जंग में अंबेडकर की हार, यह बहस का मुद्दा है.

जब नेहरू ने हिंदू कोड बिल को निचले सदन में पेश किया तो इसे बनाने वाले- डॉक्टर भीमराव अंबेडकर मौजूद नहीं थे. बाद में वे राज्यसभा के ज़रिये संसद में पहुंचे पर तब वे सिर्फ एक दर्शक की हैसियत से इस पर हो रही बहस को देख रहे थे.

नेहरू ने रणनीति बदली

पहले के विरोध को ध्यान में रखते हुए, अब की बार नेहरू ने असली बिल को कई भागों में बांट दिया था. 1955 में इसके पहले भाग- ‘हिंदू मैरिज एक्ट’- को बहुमत से पारित करवाकर उन्होंने इस पर कानून बनवा दिया. आने वाले सालों में ‘संपत्ति का अधिकार’, ‘गोद लेने का अधिकार’ और कुछ अन्य कानून भी आने वालों सालों में पारित हो गए.

हिंदू संगठनों से ज़्यादा समाज ने इस अपनाकर एक मिसाल पेश की और उसके एक बहुत बड़े तबके ने अपने प्रगतिशील होने के सुबूत दिए जो देश के लिए शुभ संकेत थे. गांधीवादी चिंतक और लेखक कनक तिवारी लिखते हैं कि धार्मिक सुधारों का सबसे बड़ा फ़ायदा महिला वर्ग को होता है. बात सौ फ़ीसदी सही है. पिछले एक दशक में हिंदू समाज में काफ़ी तेज़ी से सुधार हुए हैं.

हाल ही में तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम समुदाय कुछ संगठनों ने भी आरएसएस जैसा ही बर्ताव दिखाया था. पर समाज के सकारात्मक नज़रिए ने देश में महिलाओं के अधिकारों के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता पर अपनी भी मुहर लगा दी है.

हालांकि अभी रास्ता लंबा है.

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