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सर्दी हो या गर्मी, उत्तर प्रदेश में किसानों की एक बड़ी संख्या अब खेतों में ही रात बिताती है

उत्तर प्रदेश के किसान गायों के डर से खेतों में ही अपनी रात गुज़ारते हैं.

उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले के कांट कस्बे में एक खेत में दस से पंद्रह गायें अचानक घुसती हैं. इस खेत से करीब 400 मीटर दूर खड़े अखिल कश्यप तुरंत फोन निकालकर किसी को इसकी सूचना देते हैं. पांच मिनट के अंदर एक सज्जन बाइक से उस खेत में आते हैं और इन गायों को भगाते हैं. जिस गेहूं के खेत में गायें घुसी थीं, यह कस्बे के ही विनोद त्रिगुणायत का खेत है और जो सज्जन गायों को भगाने आये थे वे विनोद के बेटे वीरू त्रिगुणायत हैं. गायों को भागने के बाद वीरू कहते हैं, ‘हम लोग तो दुखी हो गए हैं, इन गायों को भगाते-भगाते, सुबह से खेत पर ही बैठा था, अभी कुछ देर पहले जब ढाई बजे तो मैंने सोचा घर जाकर खाना खा आऊं. खाना खाकर उठा ही था कि अखिल का फोन आ गया… बस दौड़ा चला आया.’ वीरू का यह खेत चार बीघा में है. ‘चार बीघा के लिए दिन-रात का सुकून छिन गया है, पूरे खेत में तार लगाए हैं, लेकिन ये बड़े-बड़े बछड़े (गौवंश) कहीं न कहीं से घुस ही जाते हैं. एक घुसता है तो उसके पीछे सभी जानवर चले आते हैं.’ वीरू कहते हैं.

वीरू त्रिगुणायत के खेत के पास ही 55 वर्षीय देव नारायण राठौर का खेत है. देव नारायण भी छुट्टा गायों से काफी परेशान हैं. गायों पर चर्चा होती देख वे कहते हैं, ‘बीते तीन-चार सालों से यह समस्या इतनी बढ़ गयी है कि हम लोगों को खेत के अलावा कुछ दिखता ही नहीं. पहले हम लोग जुताई, बुवाई, फसल को पानी देने और कटाई के समय ही खेत पर आया करते थे, इसके अलावा हम लोगों को खेत से कोई मतलब नहीं था, लेकिन अब हर समय खेत की ही चिंता सताती है. यहीं बैठना पड़ता है.’ देवनारायण सत्याग्रह से बातचीत में आगे कहते हैं, ‘आप रात में आना फिर खेतों का नजारा देखना, इतनी कड़ाके की ठंड में आपको इन खेतों में शोर सुनाई देगा, चारों तरफ टॉर्च जलाते हुए लोग दिखेंगे.’ कांट कस्बे के कई और किसानों भी यही बताते हैं कि बीते तीन सालों से यह सिलसिला चल रहा है. कस्बे के एक किसान अनिमेष शर्मा कहते हैं, ‘मोहल्ले के सभी किसान रात को खाना खाने के बाद इकट्ठा होकर खेतों पर पहुंच जाते हैं और एक-दो बजे तक वहीं बैठते हैं… इस ठंड में आग ही हमारा सबसे बड़ा सहारा बनती है.’

वीरू त्रिगुणायत को फोन करने वाले अखिल कश्यप भी गायों से फसल को बचाने के लिए अपने खेत की रखवाली करते हैं. सत्याग्रह से बातचीत में अखिल का कहना था, ‘मैं और मेरे भाई खेत पर ड्यूटी देते हैं, जब वो आते हैं, तब मैं घर जाता हूं, किसी न किसी का खेत पर बना रहना जरूरी है.’ अखिल ग्यारहवीं कक्षा में हैं और ज्यादातर अपनी किताबों के साथ ही खेत पर आते हैं.’

उत्तर प्रदेश में खेतों में या उसके आसपास घूमती गायें |फोटो: अभय शर्मा

कांट कस्बे के कई किसानों ने सत्याग्रह को यह भी बताया कि कुछ किसानों ने खेत पर ही झोपड़ी डाल रखी है ताकि हर समय वहां पर घर का कोई न कोई सदस्य रह सके. ये वे किसान हैं जिनके लिए खेती ही आय का सबसे बड़ा जरिया है. मोहम्मद उमर (58 वर्ष) ने भी अपने खेत में तिरपाल की झोपड़ी डाल रखी है. उनके छोटे भाई गुड्डू बताते हैं, ‘कल मैं और भाईजान रात भर गायों से फसल को बचाने के लिए जागते रहे, करीब सुबह पांच बजे पता नहीं कैसे दोनों की आंख लग गयी और करीब आधा बीघा फसल जानवर चर गए.’ मोहम्मद उमर देखने में काफी ज्यादा कमजोर हैं. आस-पड़ोस के किसान बताते हैं कि बीते साल उमर की काफी फसल जानवरों ने चर ली थी जिससे उन्हें बड़ा नुकसान हुआ था. इस साल बीते छह महीने से वे खेत में ही डटे हुए हैं. उमर के मुताबिक पहले वे केवल एक चारपाई के साथ खेत पर आये थे, जब रात को ओस गिरनी शुरू हुई तो उन्होंने लकड़ी का ढांचा बनाकर उसके ऊपर तिरपाल डाल ली. सर्दियां शुरू होने और जंगली जानवरों का खतरा बढ़ने के बाद भी वे (पैसे की कमी के चलते) उसी स्थिति में रहे. वे कहते हैं, ‘मेरी ये हालत देखकर मेरे एक पड़ोसी किसान ने अपनी ट्रॉली लाकर मेरे खेत में खड़ी कर दी और ट्रॉली पर सोने को कहा… अब हम ट्रॉली के ऊपर ही रहते हैं. इससे जंगली सुअर और सियारों का खतरा कम हो गया है.’

कस्बे के एक अन्य किसान विद्या महातिया की भी आपबीती कुछ ऐसी ही है. विद्या अपनी खेती के साथ-साथ ठेके (बटाई) पर भी काफी लोगों की खेती करते हैं. उनका रात और दिन खेत पर ही गुजरता है. 67 वर्षीय विद्या सत्याग्रह से बातचीत में अपनी दिनचर्या बताकर अपनी तकलीफ जाहिर करते हैं. वे कहते हैं, ‘आज सुबह से मैं 15 बीघा के एक खेत में पानी लगा रहा हूं, फावड़ा लिए मैं खेत में डटा रहा, दोपहर तीन बजे मेरी पत्नी रोटी लेकर खेत पर आयी, खाकर मैं फिर लग गया, अब रात के करीब सात-आठ बजे तक पानी चलाऊंगा, फिर घर जाकर और खाना खाकर वापस खेत पर आऊंगा. यहां मुझे गायों की वजह से रात भर जागना पड़ेगा. कल फिर दिन भर पानी चलाना है.’ विद्या के पड़ोस में ही अनिमेष का खेत है, अनिमेष बताते हैं, ‘अभी कुछ रोज पहले मैं और विद्या अपने-अपने खेत की रखवाली कर रहे थे, अचानक एक जंगली सूअर हमसे कुछ दूरी पर आ गया, इनसे (विद्या से) हिला तक नहीं गया, अगर मैं न होता तो वो पक्का इन पर हमला कर देता.’

किसान की आय कम हुई और खर्चा बढ़ गया

गायों और दूसरे जानवरों के चलते दिन-रात खेतों पर ही समय बिताने की वजह से इन लोगों के सामने एक और समस्या आ रही है. ये लोग अपनी आजीविका के लिए कोई और काम नहीं कर पा रहे हैं. बरेली जिले के जैतपुर गांव के किसान मायाराम मौर्य इस वजह से खासे परेशान दिखे. अपने खेत में मचान पर बैठे मिले मायाराम सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘मेरी चाट-पकौड़ी और फल-सब्जी की दुकान थी, खेती के साथ-साथ मैं उसे भी चलाया करता था लेकिन बीते एक-दो साल से वो बंद पड़ी है… एक पैसा नहीं कमाया क्योंकि खेत से ही अब फुरसत नहीं मिलती कोई और काम कैसे करें.’ शाहजहांपुर के कांट कस्बे के देवनारायण भी मायाराम जैसी ही समस्या बताते हैं. ‘खेत पर बैठे रहने के चलते और कहीं से दो पैसा पैदा नहीं कर पा रहे हैं. मैं कई सालों से साड़ी की फेरी लगाता था, 150-200 रुपए प्रतिदिन मिल जाया करते थे लेकिन अब साड़ी बेचें कि गेहूं को गायों से बचाएं.’ देवनारायण आगे जोड़ते हैं, ‘कोई और काम-धंधा कर नहीं सकते और ऊपर से खेत पर भी अब खर्चा बढ़ गया है…. अभी 300 रुपए की बाटरी (टॉर्च) खरीदी… ये मेरा खेत एक एकड़ यानी छह बीघा है, गाय से फसल को बचाने के लिए इसके चारों ओर आरी वाला तार लगाया है जिसमें हजारों रुपए खर्च हो गए.’

खेत में लगी कंटीले तारों वाली बाड़ | फोटो: अभय शर्मा

किसानों के मुताबिक आरी वाले तार के अलावा किसी और तार से गाय को खेत में जाने से रोकना लंबे समय तक संभव नहीं होता है. इस तार से ही जानवर डरते हैं क्योंकि यह काफी धारदार तार होता है. यह तार बाजार में करीब 80 रूपये प्रति किलो के हिसाब से मिलता है. छह बीघा के खेत में तार के तीन फेर लगाने में 100 किलो तार खर्च होता है. यानी छह बीघा के खेत में 8000 रुपए के आसपास तार लगाने का खर्च आता है. कुछ किसानों ने लकड़ी के मोटे लठ जमीन में गाड़कर उनके सहारे खेत के चारों ओर तार लगाया है. वीरू त्रिगुणायत के मुताबिक लकड़ी के सहारे यह तार रोकना थोड़ा मुश्किल पड़ता है, मोटा सांड लकड़ी को गिराकर खेत में घुस जाता है, ऐसे में बहुत लोग लकड़ी की जगह सीमेंट के मोटे एंगल अपने खेतों में लगाते हैं और इनके सहारे तारों को रोकते हैं. किसान ऐसे एक एंगल की कीमत 280 से 300 रुपए तक बताते हैं. छह बीघा खेत में करीब 25 एंगिल लग जाते हैं, यानी 7500 रुपए तक इन्हें लगाने में भी खर्च हो जाता है.

सत्याग्रह ने जिन भी किसानों से बात की, वे सभी बीते कुछ सालों के दौरान गायों की वजह से कम पैदावार होने की शिकायत करते नज़र आए. पीलीभीत जिले के लालपुर गांव के किसान कौशल कुमार (बदला हुआ नाम) के मुताबिक ‘अगर तीन साल पहले की बात करें तो एक बीघा खेत में तीन से चार कुंतल (300 से 400 किलो) तक गेहूं हुआ करते थे, आठ बीघा में 25 से 30 कुंतल गेहूं मिल जाते थे. लेकिन अब आठ बीघा में 15 कुंतल तक ही गेहूं मिल पाता है.’ शाहजहांपुर के प्रतिपाल, अनिमेष शर्मा, देवनारायण, लालू वर्मा और वीरू त्रिगुणायत सहित कई अन्य किसानों ने भी गाय की वजह से पैदावार में लगभग इसी अनुपात में कमी आने की बात कही.

इस रिपोर्ट को करने के दौरान सत्याग्रह को कुछ ऐसे किसान भी मिले जिन्होंने गायों की वजह से खेती करनी ही छोड़ दी है. राम लड़ैते वर्मा के पास छह बीघा खेत है, लेकिन बीते कुछ सालों से उन्होंने इसे ठेके पर दे दिया है. वे कहते हैं, ‘मैं खेती के अलावा एक जगह दिहाड़ी पर काम भी करता हूं, वहां मुझे 250 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं. मेरा बेटा भी मेहनत-मजूरी करके लगभग इतना ही कमा लेता है, पहले हम खेती के साथ ही ये सब काम भी कर लिया करते थे, लेकिन जब से गाय की समस्या आयी है, हमने खेती छोड़ना ठीक समझा क्योंकि खेती के साथ हमारे लिए ये काम कर पाना संभव ही नहीं है.’

अनिमेष भी कहते हैं कि वे पहले 60-70 बीघा तक ठेके पर खेती किया करते थे, लेकिन अब 20 से 30 बीघा ही कर रहे हैं, क्योंकि 60 से 70 बीघा जमीन की गायों से रखवाली संभव ही नहीं हो पाती थी और उन्हें बड़ा घाटा होता था. शाहजहांपुर के ददरौल विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले एक गांव – बकिया – के किसान शिव सिंह यादव ने भी गाय के चलते अपनी पूरी खेती न देख पाने की बात कही. ‘मेरे पास खेती तो दस एकड़ (साठ बीघा) से ज्यादा है, लेकिन अब मैं केवल 25 बीघा खेती ही खुद कर पाता हूँ. बाकी ठेके और बटाई पर दे दी है.’ शिव सिंह कहते हैं.

अपने खेत में राम गुलाब वर्मा | फोटो: रवि शर्मा

पुलिस का डर और बीमार होने का खतरा

बकिया गांव में ही सत्याग्रह की मुलाकात राम गुलाब वर्मा से हुई. राम गुलाब अपने चार बीघा के खेत में बिस्तर बिछाये बैठे हुए थे. उनका भी रात और दिन खेत में ही गुजरता है. राम गुलाब अपने साथ बीते साल हुई एक घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘इस साल मैंने खेत में ही रात और दिन बैठने का फैसला इसलिए किया क्योंकि बीते साल गायों ने मेरा पूरा खेत ही चर डाला था और मुझे गेंहूं का एक दाना तक नसीब नहीं हुआ.’ वे आगे बताते हैं, ‘पिछले साल मैं गायों से इतना परेशान हो गया था कि मेरा बेटा और गांव के कुछ और लड़कों ने गायों से छुटकारा पाने की योजना बनाई… करीब 100 गायें इकट्ठी की और उन्हें रात में शाहजहांपुर जिले के पार पहुंचाने की सोची, जिससे ये फिर कभी वापस ही न आ पाएं. लड़के गायों को लेकर शाहजहांपुर शहर में घुसे ही थे कि पुलिस वालों ने इन सभी को पकड़ लिया और कोतवाली में कई घंटे बैठाये रखा. काफी सिफारिश और लेन-देन के बाद उन्हें छुड़वा पाए.’

बकिया के ही एक किसान रूप राम वर्मा एक और घटना के बारे बताते हैं. ‘एक बार गांव के लोगों ने परेशान होकर गायों को प्राथमिक विद्यालय में बंद कर दिया था…. काफी बवाल हुआ, पुलिस भी आयी गायों को छुड़वाने के लिए, लोगों ने अपनी परेशानी पुलिस को भी बताई. लेकिन फिर भी प्रशासन ने गाय की समस्या से हमें छुटकारा नहीं दिलवाया.’

बकिया से करीब चार किमी आगे एक गांव है अजीजपुर जिगनेरा, यहां के लोग भी बाकियों की तरह गाय की समस्या से परेशान हैं. दूर से ही गांव के लगभग हर खेत में झोपडी पड़ी दिख जाती है. गाय की समस्या पर बात करने पर गांव के एक किसान जयराम वर्मा बहुत निराश होकर कहते हैं, ‘आपको क्या बतायें हमने घर बनाये हैं अपने रहने के लिए, लेकिन किस्मत देखिये हमें खेतों में रातें बितानी पड़ती हैं.’ जयराम आगे जोड़ते हैं, ‘इस समय दिल्ली में किसान बीते दो महीनों से घरों से दूर सर्दीली रातें गुजार रहे हैं, लेकिन हम लोग बीते तीन सालों से अपने खेतों में यही कर रहे हैं.’ जयराम के पड़ोसी सियाराम वर्मा कई बार खेतों में गाय के चलते झगड़ा होने की बात भी सत्याग्रह को बताते हैं. उनके मुताबिक, ‘आप रात में आइये और देखिए यहां के खेतों में कैसा कोहराम मचता है, कई बार लोगों के बीच झगड़ा हो जाता है… एक किसान जब गाय को अपने खेत से भगाता है तो गाय दूसरे के खेत में चली जाती है, और यह बात झगड़े की वजह बन जाती है… एक ही बिरादरी के लोग गांव में हैं जिसके चलते झगड़ा सुलझ जाता है, वर्ना थाना-दरबार हो जाए.’

जयराम और सियाराम के साथ चल रही इस चर्चा में अचानक कंबल लपेटे, मफलर बांधे और टोपी लगाए हुए एक किसान अचानक बोलते हैं, ‘मैं आपको बताऊं जब तक इस समस्या से निजात मिलेगी तब तक उत्तर प्रदेश में न जाने कितने लोग सर्दी के चलते खेतों में मर जायंगे… जल्द ही मैं ही इन खेतों में मरा मिल सकता हूं.’ ये किसान अपना नाम रामनिरोध वर्मा बताते हैं. सत्याग्रह से बातचीत में वे आगे कहते हैं, ‘आप ही बताइये इतनी सर्दी में इन खेतों में रातें गुजारना किसी नरक से कम है क्या?’ गांव के लोग बताते हैं कि रामनिरोध काफी समय से बीमारी होने के बाद भी रात को अपने खेत पर रुकने को मजबूर हैं. रामनिरोध के मुताबिक वे 24 हजार रुपए अपने इलाज पर खर्च कर चुके हैं, डॉक्टर उनसे कहते हैं कि सर्दी से बचो, लेकिन अगर रात में खेत में न रुकें तो गायें सब चौपट कर देंगी और फिर बच्चे क्या खाएंगे. वे सत्याग्रह से बातचीत में अपनी कुछ दवाएं भी दिखाते हैं.

रसकूपा बहादुरपुर के किसान | फोटो: रवि शर्मा

शाजहांपुर-फर्रुखाबाद हाइवे पर स्थित एक गांव रसकूपा बहादुरपुर में पहुंचने पर हमें लगभग हर खेत में बने मचान दिखते हैं. 52 वर्षीय बृज किशोर कहते हैं, ‘आप ये समझ लीजिये कि मेरे पूरे गांव में मैंने कभी मचान लगा नहीं देखा, कभी जरूरत ही नहीं पड़ी, मेरे पिता और दादा ने भी कभी मचान नहीं बांधा… लेकिन आवारा गायों के चलते बीते तीन-चार सालों से हमें मचान लगाना पड़ रहा है. खेत में तार भी लगाए हैं, लेकिन फिर भी गाय घुस आती है.’ बृज किशोर और गांव के अन्य लोग आये दिन जंगली सुअर और सियार से सामना होने की बात भी सत्याग्रह को बताते हैं. हालांकि वे यह भी बताते हैं कि उनकी समस्या पहले भी थी लेकिन इतनी नहीं थी जितनी गायों की वजह से अब हो गई है.

गाय की समस्या क्यों है और सरकार के उपाय फेल क्यों हो गए?

सत्याग्रह ने गायों की समस्या को लेकर जिन भी गांव का दौरा किया, लगभग हर गांव में लोगों का कहना था कि जब से उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी है, तब से उन्हें इस परेशानी से दो-चार होना पड़ रहा है. शाहजहांपुर के एक किसान प्रतिपाल खेती के साथ-साथ डेयरी भी चलाते है. उनके मुताबिक ‘यह समस्या तब से है, जब से योगी जी की सरकार बनी. शुरू में ये कम थी, लेकिन अब यह बढ़ती जा रही है.’ यह पूछने पर कि इसी सरकार में यह समस्या क्यों आयी है, इस पर वे कहते हैं, ‘अब लोग (बेकार) दूध न देने में सक्षम गायों को और बछड़ों को छोड़ देते हैं, पहले की सरकारों में इस तरह के जानवरों की बिक्री हो जाया करती थी, कसाई खरीद लेता था, अब ये सब बंद है… पहले नगर पालिका से चमड़े के ठेके होते थे, अब सब बंद हैं.’

शाहजहांपुर, पीलीभीत और बरेली के कुछ लोगों ने यह भी बताया कि उनके इलाकों में कई दशकों से जानवरों के साप्ताहिक बाजार लगते आ रहे हैं, इनमें सैकड़ों किसान अपने जानवर लाते हैं, इन बाजारों में दुधारू पशुओं के साथ-साथ बछड़े और दूध न देने में सक्षम यानी बूढ़ी गायें भी बिकती थीं. लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद अब इन बाजारों में केवल दुधारू पशु और काले जानवर (भैंस) ही बिकते हैं.’ यानी कुल मिलाकर कहें तो अब लोगों के पास दूध न देने वाली गाय और गौवंश को आवारा छोड़ने के अलावा कोई विकल्प बचा ही नहीं है.

कंबल लपेटे राम निरोध वर्मा और अन्य किसान | फोटो: अभय शर्मा

उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के रहने वाले किसान कमलेश कुमार भी सत्याग्रह से बातचीत में यही बातें बताते हैं. गायों से परेशान कमलेश एक और बात भी जोड़ते हैं. ‘खेतों में तार लगाने से जानवरों को भी काफी नुकसान होता है, आरी वाले तार से काफी जानवर कट गए, कितनों की पूछें कट गयीं, ऐसे कई जानवरों को तो मैंने ही दवा लगाई है.’ कई अन्य किसानों ने भी बताया कि तार से कटकर गायों की मौत तक हो जाती है, उनके जख्मों में कीड़े लग जाते हैं और तड़प-तड़पकर महीने भर में जाकर कहीं उनके प्राण निकलते हैं.

2017 में जब उत्तर प्रदेश में छोड़ी गई गायों और बछड़ों से किसानों को परेशानी होने की खबरें सामने आयी थीं, तो राज्य सरकार ने इस समस्या से निजात दिलाने के लिए गौशालायें खुलवाने की घोषणा की थी. कई जगहों पर आवारा पशुओं को रखने के लिए गौशालाएं बनवायी भी गयीं. कांट कस्बे में भी दो गौशालाएं हैं, लेकिन लोगों का कहना है कि इनमें गायों को नहीं लिया जाता है. सत्याग्रह ने जब इन गौशालाओं का का हाल जानने की कोशिश की तो पता चला कि इनमें गायों की संख्या पूरी थी. इन बेहद छोटी दो गोशालाओं में से एक में करीब 70 और दूसरी में 88 गायें थीं. यानी कांट कस्बे में घूम रही 100 से ज्यादा गायों के लिए गोशाला में कोई जगह नहीं है.

सत्याग्रह ने जिन-जिन गांवों का दौरा किया वहां गायों की बड़ी परेशानी के बाद भी गौशालाएं नहीं बनवायी गयी हैं. इन गांवों के लोगों ने यह भी बताया कि उनके गांव के 10 किमी के क्षेत्र में आने वाले किसी गांव में गौशाला नहीं है. अजीजपुर जिगनेरा में कुछ लोगों ने यह जरूर बताया कि करीब साल भर पहले पास के पिपरौला गांव में एक बड़ी गौशाला के लिए जमीन की नपाई (सर्वे) करने कुछ अधिकारी आये थे, लेकिन उस जमीन पर अभी भी गौशाला नहीं बनी है. हालांकि, बरेली और शाहजहांपुर के कुछ गांवों में ग्रामीणों ने यह जरूर बताया कि उनके गांव में टीन का शेड डालकर छह से आठ जानवरों के रखने की व्यवस्था की गयी है. लेकिन, इससे कोई फायदा नहीं है, क्योंकि उनके गांवों में सौ से ज्यादा आवारा गाय और बछड़े हर समय घूमते रहते हैं.

सत्याग्रह ने किसानों से राज्य सरकार की उस योजना के बारे में भी पूछा जिसके तहत गाय पालने पर 30 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं. इस पर लोगों का कहना था कि 30 रुपए में गाय का पेट भरना मुश्किल है, और योजना के तहत गाय की पूरी जिम्मेदारी लेनी पड़ती है, इसलिए लोग इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाते. बीते 30 सालों से डेरी का काम कर रहे भानू यादव बताते हैं कि 30 रुपए में आप कुछ भी करके गाय का पेट नहीं भर सकते. वे कहते हैं , ‘इस समय पांच रुपए प्रति किलो में भूसा, 21 रुपए प्रति किलो में चोकर और पांच रुपए प्रति किलो में बरसीम (हरा चारा) आता है… अगर आपको अपनी गाय को कम से कम मात्रा में भी खिलाना है तो भी 8 किलो भूसा, एक किलो चोकर और 6 किलो हरा चारा तो एक दिन में देना ही पड़ेगा, यानी एक दिन में कम से कम 91 रुपए तो आपको एक गाय पर खर्चने ही पड़ेंगे.’ भानू यह भी जोड़ते हैं कि अगर आप कोई विशेष आहार भी गाय को दोगे तो खर्च तकरीबन 125 रुपए पहुंच जाएगा.