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इस आपदा में हमारे लिए छह मोर्चों पर सुधरने का अवसर छिपा है

चमोली में आई आपदा के बाद राहत कार्य

बीते रविवार को चमोली में आई आपदा की खबर मिलने के कुछ घंटे बाद मैंने एक ऐसे शख्स को फोन किया जिसका नाम हम सबको मालूम होना चाहिए लेकिन, अफसोस कि ऐसा नहीं है. मौलिक सोच और अंतर्दृष्टि रखने वाले इस साहसी और दूरदर्शी समाज सुधारक को हमारे देश के महानतम पर्यावरणविदों और उत्तराखंड की महानतम विभूतियों की सूची में शुमार किया जा सकता है. चिपको आंदोलन के इस अगुवा ने 1983 में एक लेख लिखा था जिसमें हिमालय में बनने वाले बांधों को लेकर चेतावनी दी गई थी. 1990 और 2000 के दशक में इस दिग्गज ने ये चेतावनियां हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी लिखे गए अपने लेखों में बार-बार दोहराईं. अगर उत्तराखंड और भारत के राजनेताओं ने इस शख्स की बात सुनी होती तो अलकनंदा की ऊपरी घाटी में यह त्रासदी नहीं घटती.

यह शख्स हैं चंडी प्रसाद भट्ट. उम्र के नवें दशक में चल रहे चंडी प्रसाद भट्ट ने अपनी पूरी जिंदगी उसी इलाके में गुजारी है जहां यह आपदा आई. वे यहां के हर गांव के बारे में जानते हैं. उन्होंने गढ़वाल के इस हिस्से में बहने वाली हर नदी और धारा के किनारे नापे हैं. मैं उनसे पहली बार 1981 की गर्मियों में मिला था. यह मुलाकात गोपेश्वर नाम के एक छोटे से कस्बे में सड़क किनारे या कहें कि नदी किनारे उसी इलाके में हुई थी जहां यह ताजा आपदा आई है. तब से मैं पर्यावरण और समाज से जुड़े मुद्दों पर उनकी सलाह के लिए लगातार उनके संपर्क में रहा हूं. जाहिर सी बात है, उनके इलाके में ऐसी आपदा की खबर सुनकर ज्यादा जानकारी के लिए मेरा उन्हें फोन करना अवश्यंभावी था.

गोपेश्वर में भट्ट जी के साथ बात करने के बाद मैंने नैनीताल में रहने वाले विद्वान शेखर पाठक को फोन किया. वे पहाड़ पत्रिका के संपादक हैं और कुछ समय पहले उन्होंने चिपको आंदोलन पर ‘द चिपको मोमेंट : अ पीपल्स हिस्ट्री’ [1] नाम की शानदार किताब भी लिखी है. इस किताब का एक अहम हिस्सा रैणी गांव में हुए इस आंदोलन के बारे में बताता है जब पुरुष बाहर थे और पेड़ काटने आए लोगों को गांव की महिलाओं ने गौरा देवी की अगुवाई में रोक दिया था. यह 1974 की घटना है. आज 47 साल बाद चमोली का यह छोटा सा गांव फिर खबरों में है. हालांकि इसके कारण उदास करने वाले हैं. उत्तराखंड के भूगोल और इतिहास के बारे में शेखर पाठक से ज्यादा शायद ही कोई जानता हो, इसलिए क्या हुआ, यह ठीक से समझने के लिए मुझे उनसे बात करनी ही थी.

उत्तराखंड में आई आपदा का एक वीडियो | मानवर रावत/ सेवा इंटरनेशनल/ रॉयटर्स

चंडी प्रसाद भट्ट और शेखर पाठक से लंबे संपर्क के दौरान और अपने शोध से जो मैंने जाना है उसका निचोड़ यह है कि उत्तराखंड में हुई इस ताजा त्रासदी में हम सबके लिए छह सबक छिपे हैं.

पहला सबक यह है कि खासकर उत्तराखंड में इस तरह की असाधारण और विनाशकारी घटनाओं की संभावना सदा बनी रहती है और जो भी इस इलाके के हालिया इतिहास से परिचित होगा उसे यह बात पता होगी. 2013 की केदारनाथ आपदा आज भी सबको याद होगी जिसे लोगों ने अपनी टीवी स्क्रीनों पर देखा था. 1978 में भागीरथी और 1970 में अलकनंदा की भयानक बाढ़ के समय टीवी नहीं था, लेकिन हर उत्तराखंडी उनके बारे में जानता है. इस इलाके में बड़े भूकंपों की आशंका भी हमेशा रहती है जैसा कि 1991 में उत्तरकाशी या फिर 1999 में चमोली में आया था.

दूसरी बात यह है कि इस तरह की आपदाओं के लिए मनुष्य भी उतना ही जिम्मेदार है जितना प्रकृति. अगर प्राकृतिक जंगल अपनी जगह सलामत होते, अगर सड़कें थोड़ा सावधानी बरतकर बनाई गई होतीं, अगर यहां कोई बांध नहीं होता, अगर घर और होटल हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर बनाए गए होते तो उत्तराखंड में कभी भी असाधारण रूप से हुई भारी बारिश या किसी ग्लेशियर के असाधारण व्यवहार और यहां तक कि किसी भूकंप का भी कहीं कम नुकसानदायक असर होता. असावधानी के साथ बनाई गई सड़कों और बांधों का नतीजा यह हो रहा है कि विशाल मात्रा में मलबा पहाड़ी नदियों में डाला जा रहा है जिससे वे और भी रौद्र रूप धारण कर रही हैं. होटल और दूसरी इमारतों को मंजूरी देते समय स्थानीय जरूरतों और पारिस्थितिकीय सीमाओं का ख्याल नहीं किया जा रहा इसलिए पहाड़ कमजोर हो रहे हैं. नतीजतन तूफान और बाढ़ की हालत में उनके ढहने की संभावना बढ़ रही है और इसके चलते जान-माल का नुकसान होने की भी. कह सकते हैं कि यह प्रकृति के क्रोध के साथ-साथ खराब नीतियों, भ्रष्टाचार और इंसानी लालच का भी नतीजा है.

तीसरा सबक यह है कि हम भारतीयों के पास एक ही हिमालय है. अब हम इसे चाहें तो सलामत रखें या फिर बर्बाद कर दें. अपने सांस्कृतिक और रणनीतिक महत्व के अलावा यह पर्वत श्रंखला विशाल जैव विविधता का भंडार और कई बड़ी नदियों का स्रोत है. पर्यावरण के लिहाज से देखें तो यह बहुत नाजुक भी है, यानी यहां भूस्खलन, बाढ़ और भूकंप की संभावना हमेशा ज्यादा रहती है. इन कारणों के चलते हिमालय में बांध परियोजनाओं पर पूरी तरह से रोक लगा दी जानी चाहिए और विनाशकारी [2] चार धाम हाईवे प्रोजेक्ट को रोक दिया जाना चाहिए.

चौथा सबक की बात करें तो हिमालय के अलावा दूसरे इलाकों में भी जब हम विकास परियोजनाएं बनाएं तो उनमें पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी का ज्यादा ख्याल रखा जाए. भारत का जनसंख्या घनत्व ज्यादा है और यहां की उष्णकटिबंधीय जलवायु वाली पारिस्थितिकी भी काफी नाजुक है. इसका मतलब यह है कि हम पश्चिम के औद्योगीकरण की आंख मूंदकर नकल नहीं कर सकते जो ऊर्जा और पूंजी के व्यापक इस्तेमाल के मॉडल पर चलता है. हमें अपनी प्रगति और खुशहाली के लिए ऐसे तरीके अपनाने होंगे जिनमें संसाधनों का वैसा अंधाधुंध दोहन न हो और जो टिकाऊ हों.

कॉरपोरेट के प्रति मैत्री भाव रखने वाले जानकार यह मासूमियत या मूर्खता भरा तर्क देंगे कि पर्यावरणवाद अमीर देशों का शगल है और भारत को पहले समृद्ध बनने पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि यहां गरीबी का पैमाना इतना बड़ा है. यही बात कम जानकारी रखने वाले सरकार के बड़े लोग भी कहेंगे. यह हैरानी की बात नहीं कि एक हालिया दस्तावेज में नीति आयोग ने शिकायती लहज़े में पर्यावरण संबंधी नियम-कायदों को बोझ बताया है और न्यायपालिका से अनुरोध किया है कि वह ‘आर्थिक लिहाज से जिम्मेदारी भरा रुख दिखाए.’ इसका क्या मतलब है? क्या केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित ऐसी परियोजनाएं अध्ययन के बिना और जल्दबाजी में मंजूर कर दी जानी चाहिए जिनसे बड़े कॉरपोरेट्स को फायदा होता है. सात फरवरी के द हिंदू [3] में मैं नीति आयोग की इस रिपोर्ट के बारे में पढ़ रहा था. थोड़ी ही देर में उत्तराखंड में घटी आपदा की खबर आ गई जिसमें एक पनबिजली परियोजना भी बर्बाद हुई है. ऐसी अनहोनी के पूर्वाभास के चलते रैणी गांव के लोग इस परियोजना के खिलाफ अदालत गए थे जिसे ‘आर्थिक लिहाज से जिम्मेदारी भरा रुख’ दिखाते हुए प्रशासन ने मंजूरी दी थी.

देखा जाए तो अमीर देशों की तुलना में भारत को विकास के रास्ते पर चलते हुए पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता बरतने की कहीं ज्यादा जरूरत है. इस पर ही हमारे समाज, अर्थव्यवस्था, देश और सभ्यता का भविष्य निर्भर करता है. (इस बारे में ज्यादा जानकारी के लिए आप पर्यावरण संरक्षण के पैरोकार अर्थशास्त्रियों की यह किताब [4] पढ़ सकते हैं.)

हिमालय में घटी इस नई त्रासदी का पांचवां सबक यह है कि हम वह राह चुनें जो ज्यादा टिकाऊ हो. हमारे चुने हुए प्रतिनिधि दलालों से रिश्वत लेने के बजाय वैज्ञानिकों के सुझावों पर ज्यादा ध्यान दें. कोई बंदरगाह, हाईवे, बांध या एयरपोर्ट कहां और कैसे बनना है, यह फैसला अभी तीन तरह के लोग करते हैं – मंत्री, नौकरशाह और ठेकेदार. जल विज्ञान, परिवहन, ऊर्जा नीति या पर्वत पारिस्थितिकी के विशेषज्ञों से दुर्लभता से ही राय ली जाती है, भले ही वे कितने भी सुलभ क्यों न हों.

नेता-बाबू-ठेकेदार मिलकर भ्रष्टाचार पैदा करते हैं, यह सब मानते हैं. लेकिन इस पर ज्यादा बात नहीं होती कि यह गठबंधन काम के लिहाज से अक्षमता और प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बनता है. अगर सरकार ने देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियॉलॉजी के वैज्ञानिकों की राय पर ज्यादा गंभीरता दिखाई होती तो हिमालय में बांध ज्यादा सावधानी के साथ बनते या फिर बनते ही नहीं. अगर महाराष्ट्र सरकार ने आईआईटी मुंबई के प्रोफेसरों से राय ली होती तो मुंबई स्थित कोस्टल हाईवे की योजना बेहतर तरीके से बनाई जाती या फिर यह हाईवे बनता ही नहीं.

छठा सबक यह है कि हमें राजनीतिक फैसलों के विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया का विस्तार करना होगा. इससे हमारी आर्थिक नीतियां ज्यादा टिकाऊ और न्यायसंगत होने में मदद मिल सकती है. प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय लोगों के नियंत्रण के क्या फायदे हो सकते हैं, यह महाराष्ट्र के गढ़चिरौली [5] में साफ-साफ देखा जा सकता है. यहां के मिश्रित जंगलों का अधिकार जब राज्य की नौकरशाही से हटाकर गांव वालों के हाथों में दिया गया तो न सिर्फ उनके लिए आय और रोजगार की निरंतरता सुनिश्चित हुई बल्कि जंगल भी पहले से ज्यादा घने हो गए.

जंगलों की मौजूदगी वाले मध्य भारत के दूसरे जिलों में भी गढ़चिरौली का उदाहरण अपनाया जाना चाहिए. इससे न सिर्फ प्राकृतिक समृद्धता बढ़ेगी बल्कि अर्थव्यवस्था भी सुधरेगी और आदिवासियों का असंतोष भी कम होगा. विचार-विमर्श का दायरा बढ़ने के साथ आर्थिक और निर्णय लेने से जुड़े अधिकारों का पंचायतों और नगर पालिकाओं की तरफ और भी ज्यादा हस्तातंरण हो तो इसका नतीजा दूसरे क्षेत्रों में भी ज्यादा समझदारी भरी और बेहतर नीतियों के रूप में सामने आ सकता है.

तो कुल मिलाकर हिमालय में आई इस ताजा आपदा के छह अहम सबक ये हैं: पहला, इस इलाके में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं और इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए. दूसरा, इन आपदाओं से जो विनाश होता है उसमें प्रकृति के साथ इंसानों का भी उतना ही योगदान है. तीसरा, हिमालय की पारिस्थितिकी नाजुक और इस तरह की है कि इसकी जगह कोई नहीं ले सकता, इसलिए आगे से यहां किसी भी तरह की विशाल परियोजनाएं नहीं बननी चाहिए. चौथा, भारत के दूसरे इलाकों में भी पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए नीतियां बननी चाहिए. पांचवां, इन नीतियों की योजना और क्रियान्वयन में देश के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों को शामिल किया जाना चाहिए. छठा, अगर इन नीतियों को राजनीतिक विकेंद्रीकरण का भी साथ मिले तो इनके नतीजे ज्यादा खुशहाली भरे और कम नुकसानदेह हो सकते हैं.