संस्कृत के विद्वान रहे जर्मनी के पुराने भारतशास्त्री भारत को देखे बिना ही पुस्तकें लिखा करते थे. वाल्टर रूबेन इसका अपवाद बने
राम यादव | 26 दिसंबर 2021
यूरोपीय पर्यटकों के बीच भारत आज भी कोई बहुत लोकप्रिय देश नहीं है. इसका मुख्य कारण यूरोपीय मीडिया में भारत की धूमिल छवि तो है ही, पैसा ऐंठने के लिए विदेशी पर्यटकों के साथ कई बार होने वाली धोखाधड़ी भी कुछ कम जिम्मेदार नहीं है. तब भी, 2016 में 26 लाख 60 हज़ार जर्मनों ने भारत की यात्रा की. संख्या की दृष्टि से वे आठवें नंबर पर रहे. ऑस्ट्रेलियाई सातवें और चीनी नौवें नंबर पर थे. सबसे अधिक लोग बांग्लादेश, अमेरिका और ब्रिटेन से आये. इनमें से दो समुद्रपारीय देशों से आने वाले लोग अधिकतर वहां बस गये भारतवंशी थे.
जो जर्मन आजकल भारत जाते हैं, वे उसके प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्मारकों या पर्यटन-स्थलों के प्रति किसी आकर्षण की अपेक्षा एक दूसरी वजह से वहां जाते हैं. ये लोग देश-दुनिया के बारे में अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाने, रोमांचक अनुभव पाने, योगाभ्यास सीखने, आयुर्वेदिक उपचार करवाने या आध्यात्मिक खोज के विचार से वहां जाते हैं.
मैक्समूलर भारत कभी नहीं गए
आज से लगभग सौ साल पहले, अंग्रेज़ों का गुलाम भारत जर्मनों के लिए एक रहस्यमय देश तो था, पर कोई ऐसा देश नहीं कि लोग बड़े शौक से भारत की यात्रा पर निकल पड़ते. यहां तक कि संस्कृत भाषा के विद्वान कहलाने वाले उस समय के भारतशास्त्री (इन्डोलॉजिस्ट) भी भारत के बारे में पुस्तकें इत्यादि तो ख़ूब लिखते थे, पर भारत जा कर उसे देखने-जानने का कष्ट नहीं करते थे. स्वयं माक्स म्युलर (मैक्स मूलर) भी – जर्मनी के भारतशास्त्रियों में जिनका नाम भारत में सबसे अधिक सुपरिचित है – भारत कभी नहीं गये.
पिछली सदी के पूर्वार्ध में जर्मनी के कई विश्वविद्यालयों में भारतविद्या के प्रो़फ़सर रहे वाल्टर रूबेन इस अशोभनीय परंपरा से विचलित होने वाला एक अपवाद थे. उन्होंने 1936-37 में भारत की सघन यात्रा की. उस समय जो कुछ देखा-सुना, उसका अपनी पत्नी और मां के नाम पत्रों में विस्तार से वर्णन किया.
‘सौ दिनों में भारत के आर-पार’
जर्मनी में हाइडेलबेर्ग स्थित ‘द्रौपदी’ प्रकाशनगृह ने भारत संबंधी पुस्तकों के प्रकाशन का बीड़ा उठा रखा है. उसी ने कुछ समय पहले इन पत्रों को पुस्तकाकार प्रकाशित किया है. पुस्तक के नाम का हिंदी में अर्थ होगा ‘सौ दिनों में भारत के आर-पार.’ 200 पृष्ठों वाली इस पुस्तक में संकलित प्रो. रूबेन के पत्र, क़रीब सौ साल पहले के दर्शनीय स्थलों के बजाय उस समय के जनजीवन और जनजातियों का वर्णन करते हुए कुछ ऐसी बातों को रेखांकित करते हैं, जिन पर हम भारतीयों का ध्यान प्रायः नहीं जाता.
वाल्टर रूबेन का जन्म, 26 दिसंबर 1899 को, हैम्बर्ग शहर के एक बड़े व्यापारी के घर में हुआ था. वहां के एक हाईस्कूल में पढ़ने के दौरान ही उन्होंने संस्कृत भाषा के एक जानकार से, निजी तौर पर अलग से, संस्कृत की शिक्षा लेना भी शुरू कर दिया. लेकिन, 1914 में छिड़ गये प्रथम विश्वयुद्ध के समय, पढ़ाई छोड़ कर उन्हें भी सेना में भर्ती होना पड़ा.
भारतविद्या में पीएचडी
युद्ध नवंबर 1918 तक चला. अगले ही वर्ष, यानी 1919 में, वाल्टर रूबेन ने अपने गृहनगर हैम्बर्ग के विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर भारतविद्या (इन्डोलॉजी), ग्रीक भाषा, लैटिन भाषा और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई शुरू कर दी. उन दिनों भारतविद्या पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसरों में बॉन विश्वविद्यालय के हेर्मन गेओर्ग याकोबी का बड़ा नाम था. वाल्टर रूबेन भी बॉन जा कर उनके शिष्य बन गये. बॉन में ही उन्होंने भारतविद्या में डॉक्टर की उपाधि पायी और कुछ समय बाद वहीं खुद भी यही विषय पढ़ाने लगे.
1931 में वाल्टर रूबेन फ्रैंकफ़र्ट चले गये और वहां के विश्वविद्यालय में भारतीय भाषाशास्त्र के प्रोफ़ेसर कहलाये. दो ही वर्षों के भीतर,1933 में हिटलर ने जर्मनी में सारी सत्ता अपने हाथों में समेट ली. वाल्टर रूबेन उसकी सांस्कृतिक नीतियों से सहमत नहीं थे. 1935 में वे जर्मनी छोड़ कर तुर्की चले गये. वहां के अंकारा विश्वविद्यालय में उन्हें भारतविद्या पढ़ाने का अनुबंध मिला था. अनुंबंध शुरू में केवल तीन वर्षों के लिए ही था. लेकिन रूबेन हिटलर के जर्मनी में लौटने के बदले, एक राजनैतिक शरणार्थी के तौर पर, 1948 तक तुर्की में ही रह कर वहां पढ़ाते व लेखनकार्य करते रहे.
संस्कृत पांडुलिपियों का तुर्की भाषा में अनुवाद
तुर्की में वाल्टर रूबेन ने शुरू में अपने तुर्क सहकर्मियों की सहायता से, और बाद में संभवतः स्वयं ही, कई संस्कृत पांडुलिपियों का तुर्की भाषा में अनुवाद भी किया. हिटलर की सरकार को यह बात रास नहीं आ रही थी कि रूबेन ने तुर्की में राजनैतिक शरण ले रखी है. इसलिए जर्मन विश्वविद्यालयों में पढ़ाने का उनका अधिकार, 1930 वाले दशक के अंत में, उनसे छीन लिया गया. 1944 में उन्हें और उनकी पत्नी को ‘अर्ध-यहूदी’ बताते हुए जर्मनी लौटने का आदेश दिया गया. आदेश का पालन नहीं होने से हिटलर की सरकार ने दोनों की जर्मन नागरिकता छीन ली.
तुर्की से से ही वाल्टर रूबेन 1948 में सपरिवार चिली चले गये. उन्हें वहां के संतियागो (सेंटियागो) विश्वविद्यालय में भारतीय भाषाओं के प्रोफ़सर का पद मिला था. चिली में लगभग दो वर्ष बिताने के बाद 1950 में सपरिवार लौट कर वे तत्कालीन पूर्वी जर्मनी में – न कि उस समय के पश्चिम जर्मनी में – बस गये. इसके पीछे उनके अपने निजी अनुभव और विचारधारात्मक कारण थे.
जर्मनी का विभाजन
यहां यह बताना अप्रासंगिक न होगा कि मई 1945 में हिटलर शासित जर्मनी के आत्मसमर्पण के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध का अंत ही नहीं हुआ था, जर्मनी का बंटवारा भी हो गया था. उसे तत्कालीन सोवियत संघ (आज के रूस), अमेरिका, ब्रिटेन व फ्रांस की सेनाओं के क़ब्ज़े वाले चार भागों में तोड़ दिया गया था. अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के अधीनस्थ हिस्सों को मिलाकर, 23 मई 1949 के दिन, पूंजीवादी ‘जर्मन संघीय गणराज्य’ (पश्चिम जर्मनी) की नींव रखी गयी थी. क़रीब चार महीने बाद, सोवियत संघ के क़ब्ज़े वाले जर्मनी के पूर्वी हिस्से पर, 7 अक्टूबर 1949 को, सोवियत कम्युनिस्टों की छत्रछाया में साम्यवादी ‘जर्मन जनवादी गणतंत्र’ (पूर्वी जर्मनी/ जीडीआर) की स्थापना हुई थी. 40 वर्ष बाद, 1989 में जर्मनी की पारंपरिक राजधानी बर्लिऩ शहर के बीचोबीच बनी दीवार गिरने के साथ इस विभाजन का अंत हुआ.
वाल्टर रूबेन अपनी वामपंथी विचारधारा के कारण चिली से साम्यवादी पूर्वी जर्मनी में लौटे थे. 82 वर्ष की आयु में सात नवंबर 1982 के दिन अंतिम सांस लेने तक, उसी के नागरिक रहे. पूर्वी बर्लिन के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में उन्हें तुरंत भारतविद्या के प्रोफ़ेसर की पीठ मिल गयी और 1955 में उन्हें प्राच्यविद्या (ओरियंटल) शोध संस्थान का निदेशक भी बना दिया गया. 1965 में सेवानिवृत्त होने तक तक वे इसी पद पर रहे. सेवानिवृत्ति के बाद भी उनता लेखनकार्य बंद नहीं हुआ. 1967 से 1973 के बीच छह खंड़ों वाली उनकी विशद पुस्तक ‘प्राचीन भारत में सामाजिक विकास’ प्रकाशित हुई थी.
मन-मस्तिष्क में भारत ही बसा रहा
वाल्टर रूबेन कई देशों में रहे, पर उनके मन-मस्तिष्क में हमेशा भारत ही बसा रहा. उनका तुर्की-प्रवास ही वह समय था, जब दिसंबर 1936 में वे भारत-भ्रमण के लिए निकले. अपने युवाकाल में ही उन्हें यह विश्वास हो गया था कि इतिहासकारों और भारतविदों को भारतीय उपमहाद्वीप जा कर वहां अतीत के पदचिन्हों को खोजना चाहिये. उन दिनों पश्चिम के इतिहासकार और भारतविद, भारत गये बिना ही, भारत के बारे में मोटी-मोटी पुस्तकें लिख डालते थे.
रूबेन का मानना था कि ऐसे विद्वान, प्राचीन स्रोतों के बारे में अपने व्यापक भाषा-ज्ञान के आधार, पर अत्यंत प्राचीन परंपराओं के धनी और एक लंबे इतिहास व मानवजाति की उच्चतम सभ्यताओं वाले भारत की तस्वीर को, अपनी दृष्टि से और भी परिपूर्ण बना सकते हैं. उनका यह भी समझना था कि घोर सामाजिक विरोधाभासों वाले समसामयिक भारत को, उसके प्राचीनकाल के बारे में जाने बिना, सही ढंग से समझा नहीं जा सकता.
भारत-यात्रा के लिए पैसा स्वयं जुटाया
भारत-यात्रा के लिए पैसा वाल्टर रूबेन ने अपने परिवार के सहयोग से स्वयं जुटाया था. इस कारण भारत में उन्हें बहुत कंजूसी से काम लेना पड़ा. उनके यात्रा-कार्यक्रम में विश्राम या सैर-सपाटे के लिए कोई स्थान नहीं था. उनका मूलमंत्र था, भारत के बारे में यथासंभव अधिक से अधिक जानकारी जुटाना. उसकी प्राचीन सभ्यता व संस्कृति के अधिक से अधिक अवशेषों की खोज करना.
यात्रा बंबई से शुरू हुई. यह उन्हें पूना, बीजापुर, बदामी, होस्पेट, कोयम्बटूर, कालीकट, मदुरा, त्रिचिनापल्ली, मद्रास (चेन्नई), पुरी, रांची और कलकत्ता के बाद गंगा के मैदान वाले शहरों पटना, बनारस और इलाहाबाद होते हुए उस समय ‘छोटा नगपुर’ कहलाने वाले आज के झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के वनों में भी ले गई. वहां के वनवासी आदिवासियों के जीवन को भी निकट से देखने-जानने में रूबेन की गहरी दिलचस्पी थी.
संस्कृत में बात करते थे
इन सभी स्थानों पर या उनके आस-पास, रूबेन ने असंख्य पुराने मंदिरों और राजमहलों को बारीक़ी से देखा. हिंदू तीर्थस्थानों और बौद्ध गुफाओं का अवलोकन किया. भारत के संस्कृत विद्वानों ही नहीं, अभिजात वर्ग के लोगों तथा ईसाई पादरियों से भी उन्होंने गहन वार्ताएं कीं. जब भी अंग्रेज़ी बोलने वाला कोई दुभाषिया पास नहीं होता था, तो वे संस्कृत में ही बात करते थे. हिंदी जैसी भारत की आधुनिक भाषाओं का उन्हें इतना ज्ञान नहीं था कि वे उनमें बातचीत कर सकते. उन्हें इस बात का मलाल रहा कि ब्राह्मण विद्वानों ने ऐतिहासिक अवशेषों की खोज की उनकी अभिलाषा के प्रति प्रायः उपेक्षाभाव ही दिखाया.
छोटा नागपुर इलाके के वनों में रहने वाली जनजातियों, विशेषकर ‘असुर’ कहलाने वाले कबीले के बारे में जानने की वाल्टर रूबेन के मन में कुछ ज़्यादी ही जिज्ञासा जाग गयी. उन्हें याद आया कि संस्कृत साहित्य में ‘असुरों’ को शक्तिशाली राजाओं और देवताओं के शत्रुओं के तौर पर वर्णित किया गया है. वे जानना चाहते थे कि उनके सामने ‘असुरों’ का जो क़बीला था, क्या वह उन्हीं ‘असुरों’ की वर्तमान पीढ़ी है, जिनका संस्कृत शास्त्रों में उल्लेख मिलता है?
‘असुरों’ की यादगारें
अपनी पत्नी और मां के नाम पत्रों में वाल्टर रूबेन ने आज के झारखंड में स्थित गुमला के उत्तर-पश्चिम में रहने वाले ऐसे छोटे-छोटे ग्रामीण समुदायों का उल्लेख किया है, जिन्होंने वहां फैले कुछ खंडहरों, किन्हीं चीज़ों के टुकड़ों, लोहे के औज़ारों आदि को ऐसे ‘असुरों’ की यादगारें बताया, जो उनसे पहले कभी वहां रहते थे. वहां के पहाड़ों में वे ‘असुरों’ के ऐसे समुदायों से भी मिले, जो अतीत में लोहा गलाने का काम किया करते थे, पर अब छोटे-मोटे किसानों और दिहाड़ी मज़दूरों के तौर पर जी रहे थे. आस-पास दिखाई पड़ने वाले जिस लौह-अयस्क को वे पहले गलाया करते थे, अंग्रेज़ों ने उसे सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया था. उसे खोदने और गलाने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य हो गया था. इसलिए लोहा केवल बड़े-बड़े कारख़ानों में ही गलाया और ढाला जाता था.
वाल्टर रूबेन ने अपने पत्रों में यह बात नहीं लिखी है, पर इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले, भारत के लोहार खनिज लोहे से बहुत ही उच्चकोटि का ऐसा इस्पात बनाया करते थे, जैसा दुनिया में और कहीं नहीं बनता था, ब्रिटेन में भी नहीं. अंग्रेज़ों ने खनिज लोहे पर अपने एकाधिकार वाली लाइसेंस प्रणाली से इस्पात बनाने की इस कला को उसी तरह मार डाला, जिस तरह उन्होंने प्रसिद्ध ‘’ढाके की मलमल’’ वाली कला का अंत कर दिया था.
जब भाषाशास्त्री रूबेन नृवंश-विज्ञानी बने
‘असुरों’ की क्षमताओं से परिचित होते ही वाल्टर रूबेन इस सोच-विचार में पड़ गये कि क्या यहां ऐसी किसी और भी पुरानी सभ्यता के अवशेष मिल सकते हैं, जो इस क्षेत्र में आर्यों के आने से पहले भी विद्यमान रही हो? भाषाशास्त्री रूबेन कुछ समय के लिए नृवंश-विज्ञानी (एथनोलॉजिस्ट) बन गये. उन्होंने ‘असुरों’ और अन्य क़बीलों के लोगों से उनके रहन-सहन के बारे में लंबी-चौड़ी वार्तायें कीं. रूबे ने लोहे की प्राचीन वस्तुएं, मिट्टी के बर्तनों आदि के टुकड़े तथा दूसरे कई अवशेष भी जमा किये और उन्हें साथ ले गये, ताकि बाद में बारीक़ी से उनका अध्ययन कर सकें.
वाल्टर रूबेन जिस समय ‘छोटा नागपुर’ के वनों में घूम रहे थे, उन दिनों वे वन कहीं घने और बड़े हुआ करते थे. उनका अनुमान था कि वहां के मूल क़बीले पूर्व-वैदिककाल, यानी क़रीब 1500 वर्ष ईसा पूर्व (3500 वर्षों से) वहां रहते रहे होंगे. संस्कृत पांडुलिपियों में जिन्हें असुर, दस्यु, राक्षस आदि कहा गया है, वे यहीं के निवासी होने चाहिये.
रूबेन के मन में प्रश्न
इससे रूबेन के मन में यह प्रश्न उठने लगा कि इन क़बीलों की अब भी बची हुई सांस्कृतिक धरोहरों को किस हद तक हिंदू-संस्कृति के बचे-खुचे निशान माना जाये. या यह कहा जाये कि वे भारत में हिंदू-काल से पहले की किसी संस्कृति के प्रमाण हैं? यह भी हो सकता है कि वे भारत की किसी ऐसी प्राचीन संस्कृति और अर्थव्यवस्था के गवाह हैं, जो दक्कन के पठारों में आर्यों के फैलने से पीछे धकेल दी गई?
रूबेन का समझना था कि महाभारत की कथाओं से यही संकेत मिलता है कि आर्यों ने ही अनार्यों को वनों की ओर धकेला होगा. नृवंश विज्ञान की नयी खोजें भी यही इशारा करती है कि आर्यों से पहले के क़बीले उत्तरी भारत में खेती-किसानी किया करते थे. भारतीय आर्यों की चरवाहा जातियों ने अपने फैलाव के द्वारा उत्तरी भारत के इन क़बीलों को दूर-दराज़ की जगहों की ओर पीछे धकेल दिया. प्राचीन पांडुलिपियों और शास्त्रों में ‘असुरों’ का जिस तरह वर्णन किया गया है, वह अन्य देशों की संस्कृतियों में वर्णित उन लोहारों से काफ़ी मिलता-जुलता है, जो लोहे के हथियार बनाना जानते थे और जिन्हें दूसरे लोग रहस्यमय डरावने दुश्मनों के तौर पर देखते थे. वे क्योंकि आग का बहुत अधिक उपयोग करते थे, इसलिए दूसरे लोग मानते थे कि उनमें राक्षसी शक्तियां हैं.
पारंपरिक भारतविद्या का विस्तार किया
नये शोधकार्य दिखाते हैं कि उत्तरी भारत के प्राचीन इतिहास के बारे में वाल्टर रूबेन की अवधारणा, इस क्षेत्र के सांस्कृतिक इतिहास की अब तक की घिसी-पिटी विवेचना वाली लीक से हट कर थी. वह पारंपरिक भारतविद्या में अन्य विषयों को भी समावेशित करते हुए उसे इतिहास-निष्ठ भारतविद्या का विस्तार देने का आग्रह करती है. समीक्षकों का मानना है कि हाइडेलबेर्ग के ‘द्रौपदी’ प्रकाशनगृह ने रूबेन की भारत-यात्रा के समय के पत्रों का संकलन प्रकाशित कर एक बहुत ही रोचक पुस्तक प्रस्तुत की है. ये पत्र अन्यथा संभवतः विलुप्त हो जाते. आज के शोधकों को यह पता भी नहीं चल पाता कि 80 साल पहले रूबेन ने भारत में क्या देखा.
वाल्टर रूबेन के लिखे निजी पत्र भले ही उनकी पत्नी और मां के नाम थे, पर वे पश्चिमी जगत के भारतदेश और भारतविद्या प्रेमियों से कहते लगते हैं कि भारत को, उसकी विविधता और प्राचीनता को जानना है, तो पुरानी पांडुलिपियां और पुस्तकें ही पढ़ना पर्याप्त नहीं है. भारत के आदिवासियों की मौखिक कथा-कहानियों में भी भारत का इतिहास और उसकी संस्कृति रसी-बसी है.
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