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कैसे कोविड ने हमारी यात्रा करने की जरूरतों और तरीकों को बदलकर रख दिया है

महामारी में यात्रा

क्वारंटीन, लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे कई शब्द हमारे शब्दकोश को कोरोना महामारी की देन हैं. इस फेहरिश्त में, बीते साल चलन में आए एक और शब्द – रिवेंज टूरिज्म – को भी जोड़ा जा सकता है. हालांकि रिवेंज टूरिज्म बाकियों की तरह हर किसी तक पहुंचने वाला शब्द नहीं बन सका लेकिन इसे जानने वाले भी कम नहीं होंगे. जैसा कि इसके नाम से ही साफ है, रिवेंज टूरिज्म लॉकडाउन के चलते कई महीने घर में बंद रहने की उकताहट से निपटने के लिए किया जाने वाला पर्यटन है.

अक्टूबर-नवंबर में जब देश में कोरोना वायरस की पहली लहर ढलान पर थी और माहौल ज़रा संभलने लगा था तो लोग अपने घरों से निकलते और घूमने-फिरने की जगहों या अपने करीबियों-रिश्तेदारों के घरों का रुख करते दिखाई देने लगे थे. दूसरी लहर के बाद जून के खत्म होते-होते फिर इस तरह के नज़ारे दिखाई देने लगे. पहली लहर के बाद होने वाली यात्राओं की वजह कई महीनों लंबे लॉकडाउन के बाद मन-बहलाव और अपनों से मिलना-मिलाना था. लेकिन तब लोग एक तरह से महामारी को भूलने लगे थे. नए साल के समय सबकुछ सामान्य होता लग रहा था और मार्च-अप्रैल में आयोजित कुंभ के मेले और चुनावी सभाओं में भारी भीड़ दिखाई दे रही थी. नवरात्रि और होली पर मिली छुट्टियों के दौरान भी लोग जमकर घूमते-फिरते नज़र आए थे.

जुलाई आते-आते, अब जब तीसरी लहर की आशंका जताई जा रही है तो भी शिमला, मनाली, बनारस, हरिद्वार, हैदराबाद, गोवा जैसी तमाम जगहों से भारी भीड़ की तस्वीरें आ रही हैं. लेकिन ऐसी यात्राओं में अब कई शर्तें पहले से ज्यादा कड़ाई से शामिल हो गई हैं. जैसे कि मास्क, सैनिटाइजर और सोशल डिस्टेंसिंग आदि. इन्हें यात्राओं में आने वाला पहला बदलाव माना जा सकता है

हालांकि घूमने-फिरने की तमाम जगहों से आने वाली तस्वीरों में अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन्हें इन बदलावों से कोई मतलब नहीं. लेकिन कई लोग समझदारी में तो कुछ पुलिस या आसपास के लोगों की टीका-टिप्पणी से बचने के लिए ही सही, अब मास्क लगाते और दूरी बनाते दिखाई देने लगे हैं. धीरे-धीरे अब सार्वजनिक शिष्टाचार में यह बात तो शामिल हो ही चुकी है कि इन सावधानियों का पालन न करना सही नहीं है.

यात्रा के साधनों की बात करें तो अब ज्यादातर लोग ट्रेन या बस जैसे अपेक्षाकृत सुविधाजनक और सस्ते साधनों के बजाय विमान और निजी गाड़ियों या टैक्सियों को तरजीह देते दिखने लगे हैं. अप्रैल में, नोएडा से रायपुर (छत्तीसगढ़) की लगभग 1200 किलोमीटर की लंबी यात्रा अपने निजी वाहन से करने वाले मार्केटिंग प्रोफेशनल सुमित चौधरी कहते हैं, ‘अगर यह महामारी न होती तो दो छोटे बच्चों के साथ इतना लंबा रोड ट्रैवल करने की शायद हम कभी सोचते ही नहीं. अब तक हम हमेशा ट्रेन से आते-जाते रहे थे और उसकी तुलना में यह महंगा तो पड़ता ही है, थकाने वाला भी है. लेकिन कोविड के रिस्क के आगे ये सब छोटा लगता है. और फिर दूसरी लहर के दौरान जो कहर बरपा, यहां आ जाना ही इस साल का सबसे समझदारी वाला फैसला लग रहा है.’

वहीं, दूसरी लहर के चरम के दौरान दिल्ली से रीवा (मध्यप्रदेश) जाने वाली इस आलेख की लेखिका का अनुभव भी कुछ ऐसा ही रहा. इस यात्रा का थोड़ा विस्तार से जिक्र करें तो इस दौरान जितना खर्च हुआ लगभग उसके एक चौथाई में ही दिल्ली से रीवा पहुंचा जा सकता था. पहले दिल्ली से इलाहाबाद की फ्लाइट फिर वहां से निजी वाहन में रीवा तक आने का खर्च मिला दो तो वह बहुत ज्यादा लगने लगता है, खासकर तब जब आपके पास एक से ज्यादा सस्ते विकल्प मौजूद हों. लेकिन यात्रा से पहले की गई जांच-पड़ताल में फ्लाइट ही सबसे सुरक्षित विकल्प लगी थी सो उसे ही चुना गया.

इस आलेख की तैयारी करते हुए, सुमित और अपने अनुभवों को विशेषज्ञों की राय के साथ रखने पर पता चला कि विमान यात्राओं [1] को सबसे सुरक्षित मानने के मामले में सभी की राय एक है. विमान यात्राओं के बाद, निजी वाहनों से की जाने वाली यात्राओं का नंबर आता है. जानकारों का कहना है कि विमान यात्रा करने के लिए आपको एक घंटे पहले एयरपोर्ट पहुंचना होता है, ऐसे में बोर्डिंग के लिए इंतज़ार करते हुए या बोर्डिंग करते हुए ही आप भीड़ में होते हैं जो काफी हद तक नियंत्रित होती है. लेकिन निजी वाहन से यात्रा करते हुए आप कई बार ईंधन लेने, खाने-पीने या बाथरूम जाने के लिए ऐसी जगहों पर रुकते हैं, जहां बहुत सारे लोगों के होने या आने-जाने की संभावना होती है.

वहीं ट्रेन, बस और अन्य सार्वजनिक साधनों से की जाने वाली यात्राओं को घोर असुरक्षित की श्रेणी में रखा गया है. दिल्ली में रहने वाले ट्रैवल एजेंट बबलू कुशवाहा ट्रेन यात्रा करने वालों के रवैये में आए एक बदलाव का जिक्र करते हुए कहते हैं कि ‘वैसे तो बिजनेस बहुत कम हुआ है. लेकिन जो कुछ लोग ट्रेन में यात्रा करना चाहते हैं, वे अब स्लीपर सीट बुक करने की गुज़ारिश करते हैं. दूसरी लहर जब पीक पर थी तब ऐसा ज्यादा हो रहा था. ज्यादातर पैसेंजर्स ऐसा मानते हैं कि एसी के बंद माहौल में उन्हें कोरोना संक्रमण होने की आशंका ज्यादा है. इससे बचने के लिए वे लग्ज़री छोड़ने को भी तैयार हैं.’

कोविड होने के खतरे के अलावा, चूंकि नए कोविड नियमों के चलते ज्यादातर ट्रेनों में यात्रियों को चादर-कंबल या खाने-पीने की चीजें नहीं दी जा रही हैं इसलिए भी कुछ लोग एसी के बजाय स्लीपर को वरीयता देने की बात कहते हैं. लेकिन हाल ही में यात्रा करने वाले कई ट्रेन यात्रियों का अनुभव है कि कोरोना संकट की इस गंभीरता के बाद भी ट्रेनों में सफर के दौरान न सिर्फ आम लोग लापरवाही करते दिखते हैं, व्यवस्था भी इसके लिए पूरी गुंजायश छोड़ती है. लेकिन फिर भी ट्रेन यात्राओं के दौरान मिल-बांटकर खाने या गहरी दोस्तियां बनने जैसी बातें अब कम देखने को मिलती हैं.

कुछ इसी तरह की बात सुमित अपनी यात्रा की चुनौतियों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि ‘हम रायपुर पहुंचने के बाद 14 दिन के लिए क्वारंटीन में रहे थे क्योंकि बाकी चीजें अगर मैनेज भी हो गईं थीं तो भी खाने-पीने या थोड़ा आराम करने के लिए हमें रुकना पड़ा था. रेस्तरां वगैरह में तो लोग होंगे ही. कम भी होंगे तो स्टाफ तो रहेगा ही जो दिन भर जाने कितने लोगों से मिलता रहता है. वैसे, मैं ये कहूंगा कोरोना ने सफर का मज़ा खत्म कर दिया है. आप खुलकर किसी से बात नहीं कर सकते, जो मन हो खा नहीं सकते, कहीं कुछ अच्छा लगे और थोड़ी देर रुकना चाहें तो रुक नहीं सकते.’

यात्रा के पड़ावों को खत्म करने के साथ-साथ महामारी ने लोकप्रिय जगहों तक पहुंचने की लोगों की इच्छा को भी कम कर दिया है. कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो दुनिया के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक आगरा के ताजमहल को [2] 2019 में करीब आठ लाख विदेशी और 50 लाख देसी पर्यटकों ने देखा था. वहीं, बीते एक साल में यह आंकड़ा, विदेशी पर्यटकों के लिए महज पौने दो लाख और देसी पर्यटकों के लिए लगभग 11 लाख ही रह गया है. इतने ही लोकप्रिय गोवा की बात [3] करें तो गोवा में सामान्य टूरिस्ट सीज़न में 90 लाख से एक करोड़ पर्यटक जुटते थे जिसका लगभग दस फीसदी हिस्सा विदेशी सैलानियों का होता था. कोरोना महामारी के दौरान गोवा पहुंचने वाले पर्यटकों की संख्या 25 लाख तक ही सिमट गई और इसमें विदेशी पर्यटक न के बराबर रहे. हालांकि इन आंकड़ों को दुनिया भर में लगे लॉकडाउन और यात्रा प्रतिबंधों ने भी प्रभावित किया होगा लेकिन इसकी एक बड़ी वजह यह है कि कई लोग अब ज्यादा भीड़भाड़ वाले पर्यटन स्थलों पर जाने से भी परहेज़ कर रहे हैं. जानकार यह आशंका जताते हैं कि कुछ महीने और ऐसा ही चला तो देश-विदेश का पर्यटन उद्योग लंबे समय के लिए नुकसान की स्थिति में जा सकता है.

सिक्के के दूसरे पहलू को देखें तो इसका फायदा यह देखने को मिल रहा है कि लोग अब ऐसे ठिकाने ढूंढ़ने लगे हैं, जहां तक कम लोगों की पहुंच हो या जो ज्यादा चर्चित ना हों. नोएडा में रहने वाली शिक्षिका नेहा राय कहती हैं कि ‘महामारी को अब हमने अपने जीवन में स्वीकार सा कर लिया है. इतने वक्त से घर से बाहर निकले ही नहीं और अब अगर मौका मिला भी तो शायद बहुत सोच-समझकर पांव बाहर निकलेंगे. मैं किसी ऐसी जगह पर जाना चाहूंगी जहां बहुत कम लोग जा रहे हों. नॉर्थ-ईस्ट के कई इलाके हैं. दक्षिण में भी कई ऐसे इलाके होंगे. अब मैं वहां जाना चाहूंगी. किसी पॉपुलर जगह जाना तो फिलहाल कोई विकल्प ही नहीं है.’

यात्राओं के आर्थिक पक्ष पर बात करते हुए नेहा कहती हैं कि ‘अब शायद मैं ग्रुप में यात्रा करना पसंद ना करूं और इसका असर मेरे बज़ट पर पड़े. हालांकि मैंने पहले भी अकेले यात्राएं की हैं लेकिन अब सुरक्षा और कोविड की सावधानियां को देखते हुए ट्रांसपोर्टेशन और होटलों पर मुझे ज्यादा खर्च करना पड़ सकता है.’ ग्रुप ट्रैवलिंग के लिए लोग हतोत्साहित हुए हैं, इसका अंदाज़ा रिटायर्ड कृषि अधिकारी तपेश्वर भाटे की बातों से भी लगता है, वे कहते हैं कि ‘मैं यहां मुंबई में एक साल से अपनी बेटी के घर पर रह रहा हूं. मेरे घर यानी जबलपुर में हमारा अच्छा खासा ग्रुप था जिसमें हर उम्र के लोग थे. हम मिलते-जुलते थे. ट्रैवल करते थे. और तो और ट्रेकिंग पर भी गए थे. अब डेढ़ साल से ये सब बंद है और ज्यादातर सदस्यों की राय है कि अभी ग्रुप ट्रैवल न किया जाए. ज़रूरत न हो तो ट्रैवल ही नहीं किया जाए.’ ग्रुप ट्रिप्स और तीर्थ यात्राओं के बुकिंग्स कम होने की पुष्टि बबलू कुशवाहा भी अपनी बातचीत में करते हैं.

यात्राओं के मामले में आया सबसे ज़रूरी बदलाव शायद यह है कि अब घूमना-फिरना मौज-मज़े के बजाय मन की शांति बनाए रखने के लिए ज्यादा किया जा रहा है. मनोविज्ञानी [4] भी महामारी के इस माहौल और तमाम तरह के संघर्षों से गुज़रते लोगों को यात्रा करने की सलाह देते हैं. यहां पर बतौर वरिष्ठ नागरिक तपेश्वर भाटे की एक बात आपको सोच-विचार पर मजबूर कर सकती है, ‘मैं कई बार सोचता हूं. मेरे जो दोस्त हैं, उनमें से दो-तीन तो (बीते एक साल में) अब इस दुनिया में नहीं रहे. जो बचे हैं, मैं अब उनसे कभी मिल भी पाऊंगा या नहीं. दूसरा, कुछ जीवन के बदलावों के चलते तो कुछ अपनी उमर के चलते मेरे आसपास के बहुत से लोगों को मैं अब शायद पहचान भी नहीं पाऊंगा. ऐसे में बहुत बेचैनी होती है. अब जो यात्रा होगी वह कहीं पहुंचने की बजाय दिमाग का संतुलन बनाए रखने के लिए होगी.’

वहीं, दूसरी तरफ नेहा कहती हैं कि ‘यह भी हो सकता है कि मैं कहीं घूमने की बजाय किसी विपश्यना शिविर में चली जाऊं. यात्राएं भी तो हम भीतर झांकने के लिए ही करते हैं. मेरा ख्याल है कि इस महामारी के दौरान मिले दुख-शोक के बाद दुनिया के एक बड़े हिस्से को शांति की चाह होगी.’