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कोरोना काल में हुआ यह क्रिकेट राष्ट्रवाद-नस्लवाद से दूर रही अपनी कमेंटरी के चलते भी शानदार था

क्रिकेट (प्रतीकात्मक फोटो)

जब अप्रैल में कोरोना वायरस ने रफ्तार पकड़नी शुरू की थी तो आशंका जताई जा रही थी कि इंग्लैंड में दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ये पहली गर्मियां होंगी जब क्रिकेट मैदान से गायब रहेगा. सौभाग्य से ऐसा हुआ नहीं. हालात इतने तो सुधर ही गए कि वहां छह टेस्ट मैच आयोजित हो सके. इनमें से तीन मैच इंग्लैंड ने वेस्टइंडीज के साथ खेले और बाकी पाकिस्तान के साथ. ये मैच खाली स्टेडियमों में हुए लेकिन, इनका दुनिया भर में सीधा प्रसारण हुआ. करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों के साथ मैंने भी इनका खूब आनंद लिया. डर और यातना के इस माहौल में यह एक तरह से अपने पसंदीदा खेल की शरण लेने और इससे सांत्वना हासिल करने जैसा था. इंग्लैंड ने दोनों टेस्ट सीरीज आराम से जीत लीं. हालांकि इन मैचों में रोमांच के कई पल भी रहे.

इसके साथ ही गर्मियां क्रिकेट के लिहाज से अच्छे पलों के साथ खत्म हुईं. महान जेम्स एंडरसन ने इसी दौरान अपना छह सौवां टेस्ट विकेट लिया. इसके साथ ही वे यह उपलब्धि हासिल करने वाले दुनिया के पहले तेज गेंदबाज बन गए. इससे पहले इस मुकाम तक सिर्फ स्पिनर ही पहुंच सके थे.

इंग्लैंड में होने वाले टेस्ट क्रिकेट के मेरी नजर में कई फायदे हैं. जैसे आप बिना किसी अपराध भावना के इसका आनंद ले सकते हैं. मैं सुबह जल्दी उठने वालों में से हूं. इसलिए दोपहर साढ़े तीन बजे जब मैच शुरू होता है तो उससे पहले मुझे पढ़ने और लिखने के लिए कई घंटे मिल जाते हैं. 40 मिनट के लंच ब्रेक को भी काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और ऐसा ही उन दूसरे ब्रेक्स के मामले में कहा जा सकता है जो बारिश की वजह से होते हैं और मैच में खलल डालते हैं. भारत में टेस्ट क्रिकेट मेरे काम के समय से टकराता है जबकि ऑस्ट्रेलिया में हो रहा मैच मेरी नींद और काम, दोनों से. इसके उलट इंग्लैंड में होने वाले टेस्ट मैचों के दौरान मैं अपनी पेशेगत जिम्मेदारियों को भी पूरा कर सकता हूं और किसी दिक्कत के बगैर आराम से अपने जुनून का आनंद भी ले सकता हूं.

अब तो मैं इंग्लैंड में होने वाले टेस्ट मैच टीवी पर देखता हूं. लेकिन जब मैं युवावस्था में था उस वक्त रेडियो ही मैच का हाल सुनने का एकमात्र विकल्प था. इस तरह मैं भारतीय क्रिकेट प्रशंसकों की उस घटती जा रही प्रजाति से ताल्लुक रखता हूं जिन्होंने इस खेल की बारीकियां रेडियो से सीखीं. सबसे पहली जिस टेस्ट सीरीज की मुझे याद है वह 1966 की गर्मियों की है. तब मैं आठ साल का था. उस सीरीज में वेस्ट इंडीज ने इंग्लैंड को आराम से 3-1 से हरा दिया था. इसमें उस खिलाड़ी की बल्लेबाजी, गेंदबाजी और क्षेत्ररक्षण की बड़ी भूमिका थी जिसे सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ क्रिकेटर कहा जाता है. ये थे वेस्टइंडीज के कप्तान गारफील्ड सोबर्स. तब से मैंने हर साल गर्मियों के दौरान इंग्लैंड में होने वाली कोई भी सीरीज नहीं छोड़ी है. 1986 का साल इसका अपवाद है. तब मैं अमेरिका में था और मेरे पास न तो रेडियो की सुविधा थी और न टीवी की. इस तरह मैं तीन मैचों की उस सीरीज का लुत्फ नहीं ले सका जिसमें कपिल देव के शानदार खेल ने भारत की 2-0 से हुई शानदार जीत में अहम भूमिका निभाई थी.

इंग्लैंड में टेस्ट क्रिकेट देखना हमेशा आनंददायक होता है, खास कर तब और भी ज्यादा जब भारत नहीं खेल रहा हो. तब आप पूरी तरह से निष्पक्ष होकर खेल को पूरी तरह से उसके सौंदर्य के लिए देख सकते हैं. आनंद इस बात से भी बढ़ जाता है कि इस दौरान भारतीय कमेंटेटर वहां नहीं होते. हो सकता है हिंदी, तमिल या मराठी कमेंटेटरों से मैच का हाल सुनना रोमांचकारी हो, लेकिन अंग्रेजी में कमेंटरी करने वाले भारतीयों में वह बारीकी नहीं दिखती जो किसी अंदाज-ए-बयां को खास बनाती है. एक तो वे बहुत ज्यादा बात करते हैं और उनसे ज्यादातर वही सुनने को मिलता है जो मैदान पर हो रहा होता है. इस दौरान वे बिना किसी संकोच के यह जता रहे होते हैं कि इस टेस्ट मैच से उन्हें बस एक ही चीज चाहिए और वह है उनकी टीम की जीत.

टीवी पर मेरे पसंदीदा तीन कमेंटेटरों का ताल्लुक तीन अलग-अलग देशों से जुड़ता है. वे हैं इंग्लैंड के माइक एथर्टन, वेस्टइंडीज के माइकल होल्डिंग और ऑस्ट्रेलिया के शेन वॉर्न. इंग्लैंड में इस सीजन के दौरान ये तीनों बॉक्स में मौजूद थे. एथर्टन और होल्डिंग शुरुआत से ही थे जबकि वॉर्न बीच में आए. एथर्टन एक शानदार टेस्ट क्रिकेटर थे, होल्डिंग उनसे भी बेहतर थे और वॉर्न इन दोनों से श्रेष्ठ. लेकिन एथर्टन कभी अपने दिनों की बात नहीं करते. होल्डिंग ऐसा करते हैं लेकिन, यह दुर्लभ ही होता है. उधर, वॉर्न की बात करें तो वे एक खुले मिजाज वाले शख्स हैं और गेंद के साथ उनकी उपलब्धियां भी विशाल हैं. इसका मतलब है कि वे कभी-कभी खुद का संदर्भ दे देते हैं लेकिन, इसमें कभी भी शेखी बघारने का पुट नहीं होता.

इन दिग्गजों की तिकड़ी खूब जमती है. तीनों अलग-अलग देशों के हैं और मैदान पर उनकी उपलब्धियां भी अलग-अलग तरह की हैं. इसलिए एथर्टन बल्लेबाजी के मामले में सबसे ज्यादा विद्धता के साथ बात कर सकते हैं तो होल्डिंग तेज गेंदबाजी और शेन वॉर्न स्पिन गेंदबाजी के बारे में. होल्डिंग ने अपने टेस्ट करियर की शुरुआत 1975 में की थी तो शेन वॉर्न आईपीएल में 2011 तक खेलते रहे थे. इस तरह देखा जाए तो इन तीनों के पास मिलाकर करीब चार दशक खेलने का अनुभव है. होल्डिंग और वॉर्न उन टीमों में रहे जिनका अपने समय पर खेल की दुनिया में वर्चस्व था. इसलिए वे शीर्ष पर अपने वक्त के बारे में गर्व के साथ बात कर सकते हैं जो उचित ही होगा. एथर्टन के समय इंग्लैंड की टीम का कभी भी खेल की दुनिया पर वर्चस्व नहीं रहा सो सामूहिक उपलब्धि की यह कमी खुद को कम करके दिखाने के उनके मिजाज के अनुकूल बैठती है.

इन तीनों के व्यक्तित्व भी काफी अलग हैं. शेन वॉर्न ऊर्जा से भरे और खुशमिजाज शख्स हैं तो बाकी दोनों इसके विपरीत. होल्डिंग में एक शांत किस्म की तीव्रता है तो एथर्टन संक्षिप्त और सटीक तरीके से अपनी बात रखते हैं. वैसे अपने व्यक्तित्व की तमाम असमानताओं के बावजूद इन तीनों कमेंटेटरों में दो साझा विशेषताएं भी हैं : पहली, खेल के इतिहास और इसकी तकनीक की व्यापक समझ और दूसरी, निष्पक्ष होकर चीजों को देख पाने की क्षमता (और इच्छा भी).

जब मैंने अपने पसंदीदा इन कमेंटेटरों की सूची अपने दोस्त और क्रिकेट में मेरी ही तरह दिलचस्पी रखने वाले राजदीप सरदेसाई से साझा की तो उनका कहना था कि वे इसमें एक नाम नासिर हुसैन का भी जोड़ना चाहेंगे. सीधी और खरी बात करने वाले हुसैन मुझे भी पसंद हैं. इसके अलावा एथर्टन की तरह उनमें नस्लीय, राष्ट्रीय, धार्मिक या किसी अन्य तरह की जरा सी भी संकीर्णता नहीं है.

इंग्लैंड के कमेंटेटर हमेशा ऐसे नहीं थे. ब्रायन जॉन्स्टन का ही उदाहरण लें. मैं जिन दिनों बड़ा हो रहा था उन दिनों वे बीबीसी के लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम टेस्ट मैच स्पेशल में आया करते थे. ब्रायन ब्रिटिश श्रोताओं के बीच सबसे मशहूर रेडियो कमेंटेटर थे. जॉनर्स उनका लोकप्रिय नाम था. 1976 में वेस्टइंडीज ने इंग्लैंड का दौरा किया था और इस दौरान उनकी कमेंटरी की मुझे आज भी खूब याद है. वेन डैनियल्स या एंडी रॉबर्ट्स की किसी शॉर्ट बॉल को वे हिकारत के साथ ‘नैस्टी वन, अ रियली नैस्टी वन’ यानी बुरी, वास्तव में बहुत बुरी कहते, जबकि बॉब विलिस या क्रिस ओल्ड की इसी तरह की बॉल की बात करते हुए उनकी आवाज में एक सराहना वाला भाव आ जाता. इसे वे ‘अ स्प्लेंडिड बाउंसर’ यानी एक शानदार बाउंसर कहते. जॉनर्स श्रोताओं को यह संदेश देने की कोशिश करते थे कि वेस्टइंडीज के शातिर खिलाड़ी बल्लेबाज को घायल करने के लिए बाउंसर फेंकते हैं जबकि खेल भावना से खेलने वाले इंग्लैंड के गेंदबाज तो महज बल्लेबाज को आउट करने के लिए ऐसा करते हैं.

उससे पिछले साल पाकिस्तान की टीम पहले विश्व कप में हिस्सा लेने इंग्लैंड गई थी जिसमें जावेद मियांदाद भी थे. ब्रायन जॉन्स्टन उनके नाम का मज़ाक उड़ाते हुए उन्हें सिर्फ ‘मम एंड आई’ कहते. उन्हें और उनके घरेलू श्रोताओं को यह खूब मजाकिया लगता, लेकिन टीनएज के अपने उन सालों में भी मुझे यह कचोटता क्योंकि इससे नस्लीय श्रेष्ठता की बू आती थी. उस विश्व कप में भारत के कप्तान एस वेंकटराघवन थे जिन्हें ब्रायन जॉन्स्टन ‘रेंट-अ-कैरवैन’ कहते और हंसते. और मुझे पूरा यकीन है कि उनके ब्रिटिश श्रोता उनकी इस बेतुकी तुकबंदी पर और भी ज्यादा जोर से हंसते रहे होंगे.

1970 के दशक में टेस्ट मैच स्पेशल में आने वाले दूसरे कमेंटेंटर ब्रायन जॉन्स्टन जितने अंधराष्ट्रवादी तो नहीं थे, लेकिन फिर भी उनमें इंग्लैंड से ताल्लुक रखने को लेकर एक श्रेष्ठताबोध तो था ही. इनमें एकमात्र अपवाद जॉन एर्लॉट थे. वे एक सुसंस्कृत और विश्वबंधुत्व की भावना में यकीन रखने वाले शख्स थे जो जिंदगी भर मैदान और उससे बाहर भी नस्लवाद के विरोधी रहे.

माइक एथर्टन और नासिर हुसैन, दोनों मुझसे करीब एक दशक छोटे हैं. मुझे पता नहीं कि अपनी नौजवानी के दिनों में उन्होंने ब्रायन जॉन्स्टन को सुना या नहीं या फिर वे उनके बारे में क्या सोचते हैं. अच्छी बात यह है कि अपने व्यक्तित्व और जिंदगी के तजुर्बों का मेल उन्हें जॉन्स्टन के बजाय एर्लॉट की विरासत की तरफ ले गया है. माइक एथर्टन की पत्नी वेस्टइंडीज की हैं और नासिर हुसैन के पिता मद्रास से ताल्लुक रखते थे. मेरा मानना है कि इन दोनों बातों ने निश्चित रूप से उनकी सोच को ढाला है. इस दौरान ब्रिटिश समाज भी पहले की अपेक्षा सांस्कृतिक विविधता को लेकर कहीं ज्यादा सहिष्णु हुआ है.

मैंने बीते कुछ हफ्तों के दौरान क्रिकेट का खूब लुत्फ लिया जिसकी मैंने कोरोना महामारी के चलते अपेक्षा नहीं की थी. इन गर्मियों की कमेंटरी की एक खास बात खेल के बजाय नैतिकता और राजनीति से जुड़ी है. अमेरिका के ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन की दुनिया भर में गूंज के बीच एक गोरे एंकर ने माइक होल्डिंग से नस्लीय भेदभाव को लेकर उनके अनुभव पूछे जो उन्होंने बहुत ही सजीवता के साथ याद किए. उनकी इन भावुक कर देने वाली स्मृतियों के वीडियो क्रिकेट प्रेमियों के दिलों में हमेशा रहेंगे. उनकी अनुगूंज जिम्मी एंडरसन के छह सौवें टेस्ट विकेट से ज्यादा समय तक रहेगी.

चलते-चलते : एक टेस्ट मैच में बारिश के चलते हुए व्यवधान के दौरान यूट्यूब खंगालते हुए मुझे अचानक माइक एथर्टन और शेन वॉर्न के बीच बातचीत का एक शानदार वीडियो मिला. एक घंटे की इस बातचीत में एथर्टन बड़े आराम से अपनी पिच पर जमे दिखते हैं जो तब दुर्लभ होता था जब उनके हाथ में बल्ला होता था और वॉर्न के हाथ में गेंद. इस वीडियो को आप इस लिंक [1] पर क्लिक करके देख सकते हैं.