अमेरिकी एथलीट रैवेन सॉन्डर्स

खेल | ओलंपिक

इस बार ओलंपिक में विरोध प्रदर्शनों के लिए एक छोटी सी खिड़की क्यों खोल दी गई?

तमाम नये कीर्तिमानों के अलावा टोक्यो ओलंपिक को विरोध प्रदर्शनों को आवाज़ देने के लिए भी याद रखा जाना चाहिए

अंजलि मिश्रा | 12 अगस्त 2021 | फोटो: ट्विटर/वीमेन रनिंग

बीते इतवार यानी आठ अगस्त, 2021 को अपने अंत पर पहुंचा ‘टोक्यो ओलंपिक 2020’ इस बार दुनिया भर के खेल कीर्तिमानों के अलावा महामारी के चलते पहले एक साल के लिए टलने, फिर अपनी बदली हुई सूरत और व्यवस्थाओं के लिए भी चर्चा में रहा. लेकिन कई खेल प्रेमी मानते हैं कि इन सबसे ज्यादा इस ओलंपिक आयोजन को इसके दौरान होने वाले विरोध प्रदर्शनों के लिए याद रखा जाना चाहिए. टोक्यो ओलंपिक के पहले ही दिन यह देखना दिलचस्प रहा कि कैसे महिला फुटबॉल खिलाड़ियों ने दुनिया भर से मिल रही तवज्जो का फायदा उठाया और इस मौके का इस्तेमाल एक ज़रूरी बात कहने के लिए किया. 21 जुलाई को जब ब्रिटेन और चिली की टीमें मैदान में खेलने के लिए पहुंचीं तो रेफरी की व्हिसिल बजते ही खिलाड़ियों ने कुछ सेकंड के लिए घुटनों पर आकर नस्लवाद और भेदभाव के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करवाया. इसके ठीक एक घंटे बाद अमेरिका और स्वीडन की फुटबॉलर्स भी यही करती दिखाई दीं और एक दिन बाद ऑस्ट्रेलिया के साथ हो रहे मैच में न्यूजीलैंड की टीम ने भी प्रदर्शन का यही तरीका अपनाया. इन टीमों ने दुनिया भर के नागरिकों के लिए किए गए प्रदर्शनों के इस सिलसिले को आगे के कई महत्वपूर्ण मैचों में भी दोहराया.

फुटबॉल टीमों द्वारा किए गए एक्टिविज्म को कई एथलीट्स ने व्यक्तिगत तौर पर भी आगे बढ़ाया. ओलंपिक के दूसरे हफ्ते में कोस्टा रिका की आर्टिस्टिक जिम्नास्ट लूसियाना अल्वाराडो अपनी परफॉर्मेंस के बाद ब्लैक लाइव्स मैटर अभियान को अपना समर्थन देती दिखाई दीं. कुछ सेकंड्स के अपने इस प्रदर्शन के दौरान जमीन पर घुटने टिकाए और आसमान की तरफ मुट्ठी ताने लूसियाना की तस्वीर ने खासी चर्चा भी बटोरी. नस्लवाद के खिलाफ अपनी राय दर्ज करवाने वाली महज 18 बरस की लूसियाना का इस पर कहना था कि ‘जब आप ऐसा कुछ करते हैं तो आप उस विचार को महत्व दे रहे होते हैं जो कहता है कि हर किसी को एक सा सम्मान मिलना चाहिए, हर किसी को एक से अधिकार मिलने चाहिए. हम सभी एक जैसे हैं. हम सब खूबसूरत और खास हैं.’

https://twitter.com/BNCNews/status/1419631924595802120

कुछ इसी तरह की बात, लेकिन थोड़ी और आक्रमकता के साथ अमेरिकी एथलीट रैवेन सॉन्डर्स भी कहती मिलीं. पहली अगस्त को शॉट पुट (गोला फेंक) में रजत पदक जीतने वाली 25 बरस की रैवेन जब मेडल लेने पोडियम पर पहुंची तो उन्होंने हाथ उठाकर क्रॉस (X) बनाने का इशारा किया. इस क्रॉस को वे वह चौराहा बताती हैं जहां पर समाज में दरकिनार कर दिए गए लोग मिलते हैं. अपनी उपलब्धि को ब्लैक लोगों, एलजीबीटीक्यू (लेस्बियन-गे-बाइसेक्शुअल-ट्रांसजेंटर-क्वीयर) समुदाय और मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों को समर्पित करते हुए रैवेन का कहना था कि ‘मैं एक ब्लैक औरत हूं. मैं क्वीयर हूं. मैंने डिप्रेशन, एंग्जायटी और पीटीएसडी (किसी दुर्घटना के बाद होने वाला अवसाद) का सामना किया है. इसलिए मैं समझती हूं कि मैं खुद इस चौराहे का प्रतिनिधित्व करती हूं.’

कई तरह के प्रदर्शनों के हो चुकने के बावजूद रैवेन सॉन्डर्स का हाथ उठाना टोक्यो ओलंपिक के दौरान पोडियम पर हुआ इकलौता प्रदर्शन था. इसके लिए इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी (आईओसी) ने उनके खिलाफ जांच भी शुरू की थी जिसे चार दिनों के बाद सॉन्डर्स की मां का अचानक देहांत होने के चलते रोक दिया गया. (ऊपर) ट्वीट में वे इसी जांच के संदर्भ में टिप्पणी कर रही हैं कि ‘वे मेडल छीन लेना चाहते हैं तो छीन लें…’

रैवेन सॉन्डर्स के मामले और उन्हीं की तरह अलग संदेश देने की कोशिश करने वाले अन्य एथलीटों के प्रदर्शनों की गंभीरता को अच्छे से समझने के लिए, ओलंपिक के दौरान विरोध प्रदर्शनों से जुड़े नियमों को संक्षेप में जान लेते हैं. दरअसल, हाल ही में आईओसी ने अपनी गाइडलाइन्स में बदलाव कर ओलंपिक खेल आयोजन के दौरान विरोध प्रदर्शनों के लिए गुंजायश पैदा की है. नई गाइडलाइन्स के मुताबिक खिलाड़ी कॉमन ज़ोन्स, टीम मीटिंग्स, मीडिया से बात करते हुए, सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर और खेल शुरू होने से पहले अपने आप को अभिव्यक्त कर सकते हैं. इस छूट के साथ यह शर्त भी शामिल की गई है कि ये प्रदर्शन किसी व्यक्ति, देश, संस्था के खिलाफ नहीं हो सकता है. साथ ही, यह किसी खिलाड़ी या टीम की परफॉर्मेंस को प्रभावित करने वाला नहीं होना चाहिए और ओलंपिक की मूल भावना (खेल भावना) के अनुरूप होना चाहिए. इसके अलावा ओलंपिक चार्टर में इस बात का जिक्र भी खास तौर पर किया गया है कि ओलंपिक के किसी भी आधिकारिक कार्यक्रम के दौरान विरोध प्रदर्शन नहीं किया जा सकता है. इन कार्यक्रमों में पोडियम पर पदक ग्रहण करना भी शामिल है और यही वजह है कि रैवेन सॉन्डर्स के प्रदर्शन की जांच की जा रही है कि उन्होंने किस समय प्रदर्शन किया था.

प्रदर्शनों के लिए बहुत थोड़ी सी गुंजाइश मुहैया करवाने के बावजूद आईओसी के इस कदम को बड़ा इसलिए माना जा रहा है क्योंकि अब तक ओलंपिक के दौरान किसी भी तरह से अपनी राय व्यक्त करने पर रोक थी. आईओसी चार्टर का रूल नंबर 50 कहता है कि ‘ओलंपिक मंचों का इस्तेमाल किसी भी तरह के प्रदर्शन या फिर राजनैतिक, धार्मिक या नस्लीय प्रोपगैंडा के लिए नहीं किया जा सकता है.’ इन नियमों के साथ ओलंपिक ने हमेशा अपनी छवि राजनीति से दूर एक ऐसी संस्था के रूप में बनाए रखने की कोशिश की है जो खेल, अंतर्राष्ट्रीय एकता और शांति को महत्व देती है. यही वजह है कि आईओसी ने हमेशा बहुत कड़ाई से इन नियमों का पालन करवाया है. यह और बात है कि सख्त नियमों के बावजूद ओलंपिक के दौरान प्रदर्शनों की कोशिशें और इसके लिए एथलीटों पर कार्रवाइयां होने के उदाहरण देखने को मिलते रहे हैं.

ओलंपिक के दौरान हुए प्रदर्शनों के इतिहास पर नज़र डालें तो सबसे पहले अमेरिकी धावकों टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस द्वारा 1968 में किए गए ब्लैक पॉवर डेमोंस्ट्रेशन का जिक्र किया जा सकता है जो ओलंपिक मैदान पर हुआ अब तक का सबसे चर्चित प्रदर्शन है. 200 मीटर दौड़ में स्वर्ण और कांस्य पदक जीतने वाले स्मिथ और कार्लोस ने पोडियम पर ही मुट्ठियां लहराकर नस्लभेद के खिलाफ प्रदर्शन किया था. इसके बाद न केवल उनके प्रतियोगिता में हिस्सा लेने बल्कि किसी और भूमिका में भी ओलंपिक आयोजनों में शामिल होने को प्रतिबंधित कर दिया गया. इतनी सख्त कार्रवाई के बावजूद ओलंपिक के दौरान प्रदर्शन बंद हो गए हों, ऐसा नहीं है. कुछ ताज़ा उदाहरणों पर गौर करें तो साल 2016 में रियो डि जेनेरियो ओलंपिक के दौरान इजिप्शियन जूडोका, इस्लाम अल शेहाबी ने जब कथित व्यक्तिगत कारणों से इज़रायली एथलीट से हाथ मिलाने से इनकार कर दिया तो उन्हें वापस भेज दिया गया था. इसी तरह, साल 2019 में आईओसी द्वारा ही आयोजित फीना वर्ल्ड चैंपियनशिप में आस्ट्रेलियाई और ब्रिटिश खिलाड़ियों ने डोपिंग के आरोपित, चीनी स्वर्ण पदक विजेता के साथ पोडियम शेयर करने से मना कर दिया था. इसके चलते दोनों खिलाड़ियों को अनुशासनात्मक कार्रवाइयों का सामना करना पड़ा और इसी वजह से वे टोक्यो ओलंपिक में हिस्सा भी नहीं ले पाए.

साल 2014 में रूस में आयोजित सोची विंटर ओलंपिक में विरोध प्रदर्शनों का एक नया अवतार तब देखने को मिला था जब ओलंपिक के दौरान खिलाड़ियों के शरीर और कपड़ों पर इंद्रधनुषी रंग दिखाई देने लगे. ये प्रदर्शन रशियन सरकार के एलजीबीटीक्यू समुदाय के प्रति गैरवाजिब रवैये पर विरोध दर्ज करवाने के लिए किए गए थे. खेल के जानकार मानते हैं कि सोची ओलंपिक के दौरान ही एथलीट एक्टिविज्म चर्चा बटोरने लगा था और इस बात की संभावना बनने लगी थी कि खिलाड़ी आने वाले ओलंपिक आयोजनों में अलग-अलग मुद्दों पर प्रदर्शन कर सकते हैं. इसके बाद बीते दो-तीन सालों में खेल प्रतियोगिताओं में इस तरह के प्रदर्शन बार-बार देखने को मिले.

यही वजहें थीं कि मार्च 2020 में, जब महामारी के चलते ओलंपिक को एक साल के लिए टाला गया, उससे ठीक पहले आईओसी के प्रमुख थॉमस बैक लगातार कुछ इस आशय की बातें कहते दिख रहे थे कि ओलंपिक (और खिलाड़ियों) को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए और प्रदर्शन से जुड़े नियमों को और सख्त बनाये जाने पर विचार किया जाना चाहिए. लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा. जानकारों के मुताबिक मई 2020 में, अमेरिका में ब्लैक सुरक्षाकर्मी जॉर्ड फ्लॉयड की पुलिस के हाथों मौत के बाद शुरू हुए ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन ने खेल के समीकरणों को भी बहुत तेजी से बदला. बताया जाता है कि इसके बाद तमाम देशों के खिलाड़ियों और खेल संस्थाओं ने आईओसी पर नियम बदलने पर विचार करने के लिए अतिरिक्त दबाव बनाना शुरू कर दिया था.

लेकिन ओलंपिक चार्टर में बदलाव सिर्फ बढ़ते दबाव के चलते हो जाएगा, ऐसा मान लेना भी ठीक नहीं लगता है. खेल और संस्कृति के विशेषज्ञ कहते हैं कि इतिहास की तरफ देखा जाए तो आईओसी हमेशा ही एथलीट एक्टिविज्म से घबराता रहा है और वह इसे अपनी निष्पक्ष छवि और आर्थिक हितों के लिए बहुत अच्छा नहीं मानता है. इसके अलावा, चूंकि ओलंपिक में शामिल होने वाले सभी खिलाड़ी उतने चर्चित नहीं होते हैं और आयोजन के दौरान किसी भी तरह का प्रदर्शन कर वे बहुत जल्दी दुनिया भर में चर्चा में आ सकते हैं, इसलिए इस तरह की छूट का गलत इस्तेमाल होने का संभावना भी रहती ही है. ऐसे में लगभग एक सदी से भी ज्यादा समय तक प्रदर्शनों को ना होने देने की ही पक्षधर रही कमेटी अगर तमाम रिस्क उठाकर यह बदलाव कर रही है तो इसे यह माना चाहिए कि कुछ मानवीय मुद्दों को वह वरीयता देती और गंभीरता से लेती है. खास कर नस्लीय भेदभाव के मसलों पर आईओसी पहले भी दक्षिण अफ्रीका और ईरान जैसे देशों को लंबे समय के लिए प्रतिबंधित चुकी है.

कुछ समाजशास्त्री ओलंपिक कमेटी के इस कदम को विश्व में लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत किए जाने की कोशिश से जोड़कर भी देखते हैं. इनके मुताबिक यह बदलाव इस बात के लिए आईओसी (और अन्य खेल संस्थाओं) की स्वीकृति सरीखा है कि दुनिया भर में प्रदर्शन या विरोध दर्ज करने की गुंजायश कम हुई है. ऐसे में खेलों को और प्रासंगिक और स्वीकार्य बनाने के लिए उनके मंचों पर वैश्विक नागरिकों के हितों की बात होनी ही चाहिए. वे यह भी मानते हैं कि विरोध जताने के लिए ओलंपिक से बड़ा और कोई मंच शायद ही दुनिया में होगा. ऐसे मंचों पर अपनी बात कहने वाले खिलाड़ी अपने देश और फिर दुनिया के सबसे अच्छे एथलीटों में से एक होंगे. और अगर कोई पदक विजेता किसी मुद्दे से जुड़ी बात कहता है तो उसका बड़ा असर होना लाजिमी है. इसके साथ ही वे इस बात की उम्मीद भी जताते हैं कि भविष्य में हो सकता है कि ओलंपिक या ऐसे ही अन्य खेल मंचों पर सरकारों और व्यवस्थाओं के खिलाफ अनूठे विरोध के स्वर सुनाई दे जाएं. ऐसे स्वर जो इस एक छोटी सी खिड़की से ही दुनिया तक सबसे ज़रूरी बात पहुंचाने का माद्दा रखते हों.

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022