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इतने खतरे के बाद भी भारत चीनी टेलिकॉम कंपनियों पर यूरोप जैसी कार्रवाई क्यों नहीं कर पा रहा है?

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले दिनों राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए दो ऐसे फैसले लिए जिसने चीन को चिंतित कर दिया है. पहले सरकार ने दूरसंचार और ऊर्जा क्षेत्र में चीन के कई उपकरणों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया. कहा जा रहा है कि इन उपकरणों पर ‘स्पाईवेयर’ या ‘मालवेयर’ की चिंता के चलते रोक लगाई गई है. इसके बाद सरकार ने टेलिकॉम सेक्टर के लिए ‘नेशनल सिक्योरिटी डायरेक्टिव [1]‘ यानी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा निर्देश’ भी जारी कर दिये.

दूरसंचार एवं आईटी मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने इसकी जानकारी देते हुए कहा, ‘देश की राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए मंत्रिमंडल ने दूरसंचार क्षेत्र के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा निर्देशों को मंजूरी दे दी है. इसके तहत सरकार देश के दूरसंचार नेटवर्क के लिए भरोसेमंद स्रोतों तथा भरोसेमंद उत्पादों की सूची जारी करेगी. यह सूची उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अगुवाई वाली समिति की मंजूरी के आधार पर तैयार की जाएगी. प्रसाद ने आगे कहा, ‘भारत की दूरसंचार कंपनियां उन्हीं विदेशी कंपनियों के दूरसंचार उपकरण इस्तेमाल कर सकेंगी, जिन्हें भरोसेमंद स्त्रोतों की सूची में रखा जाएगा. इसके अलावा सरकार ऐसे स्रोतों की सूची भी तैयार करेगी जिनसे कोई खरीद नहीं की जा सकेगी.’

चीन की कंपनियों पर सवाल क्यों?

तकनीक से जुड़े जानकारों की मानें तो केंद्र सरकार ने यह फैसला मुख्यत: दूरसंचार उपकरण बनाने वाली चीनी कंपनियों – मुख्यत: ह्वावे टेक्नॉलजीज़ कंपनी लिमिटेड और ज़ीटीई (या ज़ेडटीई) कॉरपोरेशन – के चलते लिया है. इन कंपनियों से आंतरिक सुरक्षा को लेकर बड़ा खतरा बताया जा रहा है. कहा जा रहा कि इन कंपनियों का चीन की सरकार से ऐसा नाता है कि सरकार चाहेगी तो इनसे अन्य देशों की जासूसी करवा सकती है.

चीन में निजी कंपनियों से जुड़ा एक कानून कहता है कि वहां की कोई भी कंपनी पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं है. चीनी सरकार के पास यह अधिकार है कि वह कभी भी अपने देश की किसी भी कंपनी से खुफिया जानकारी साझा करने या इकट्ठा करने के लिए कह सकती है. अन्य चीनी कंपनियों की तुलना में ह्वावे को वहां की सरकार और सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के काफी करीबी माना जाता है. इस करीबी की वजह कंपनी के मालिक रेन झेंगफेई हैं, जो कभी चीन की सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी में) में एक उच्च पदस्थ अधिकारी और तकनीकी विशेषज्ञ थे. यह भी माना जाता है कि ह्वावे को खड़ा करने में कम्युनिस्ट पार्टी ने झेंगफेई की भरपूर मदद की थी.

ह्वावे का दागदार इतिहास भी उसे कठघरे में खड़ा करता है. 2003 में टेलीकॉम उपकरण बनाने वाली कंपनी सिस्को सहित कई अमेरिकी कंपनियों ने ह्वावे पर अपनी बौद्धिक संपदा चुराने के आरोप लगाये थे. 2014 में अमेरिका की प्रमुख टेलीकॉम कंपनी टी-मोबाइल ने भी ह्वावे पर ऐसी ही सूचनाएं चुराने का आरोप लगाकर खलबली मचा दी थी. साल 2018 ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड सहित कई देशों ने अपने यहां ह्वावे के खिलाफ जांच भी की थी. मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक जांच के दौरान [2] उसके उपकरणों में ऐसी तकनीक पायी गईं, जिनके चलते बड़ी सरकारी जानकारियों में सेंधमारी की जा सकती थी. उधर ज़ीटीई में चीन की सरकार की कुछ हिस्सेदारी भी है इसलिए उस पर शक करने की वजहें ह्वावे से कम नहीं बल्कि ज्यादा ही हैं.

अन्य देशों ने चीनी कंपनियों को लेकर क्या कार्रवाई की?

दुनिया भर में चीनी कंपनियों पर हुई कार्रवाई की बात करें तो डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका का राष्ट्रपति बनते ही ह्वावे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. उन्होंने न केवल अमेरिका में बल्कि दुनिया भर में इस चीनी कंपनी की सेवाओं पर रोक लगाने की मुहिम छेड़ दी थी. अमेरिका ने इस चीनी कंपनी पर धोखाधड़ी, जासूसी और बौद्धिक संपदा की चोरी के कई मामले दर्ज [3] किये. इसके बाद ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश जारी कर अमेरिका में ह्वावे के उपकरणों, वायरलेस और इंटरनेट नेटवर्क की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया. ह्वावे पर कार्रवाई के मकसद से अमेरिकी संसद ने एक कानून भी बनाया. इस कानून के जरिए [4] अमेरिका की सरकारी एजेंसियों को चीनी कंपनियों की सेवा लेने और उनके उपकरण इस्तेमाल करने से प्रतिबंधित किया गया. इस कानून से संबंधित दस्तावेज़ों में कई जगहों पर ह्वावे का स्पष्ट जिक्र है.

चीनी कंपनियों पर लग रहे आरोपों का सबसे बुरा असर उनके 5जी कारोबार पर पड़ रहा है. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देशों ने अपने यहां 5जी नेटवर्क स्थापित करने को लेकर ह्वावे से दूरी बना ली है. हाल ही में यूरोपीय संघ की संसद के 41 सदस्य देशों ने ह्वावे और जेटीई की सेवा की आलोचना की और इन्हें सुरक्षा के लिहाज से बेहद जोखिम भरा बताने के साथ-साथ इसे यूरोपीय नेटवर्क के लिए बड़ा खतरा माना. पिछले कुछ समय में कई यूरोपीय देशों ने 5जी से जुड़ी ह्वावे की सेवाओं को बंद कर एरिक्सन और नोकिया जैसी कंपनियों की सेवाओं को बहाल करा लिया है. यूरोप में इटली, ब्रिटेन, पोलैंड, एस्टोनिया, रोमानिया, डेनमार्क, लातविया और ग्रीस समेत यूरोपियन यूनियन के 13 देश 5जी तकनीक को लेकर चीन से अलग हो चुके हैं. इसके अलावा चेक रिपब्लिक, स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड्स, स्विट्ज़रलैंड, स्पेन और पुर्तगाल के भी जल्द ही चीनी कंपनियों से किनारा कर लेने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं.

भारत में चीनी कंपनियों को लेकर क्या कहा जा रहा है?

अगर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देशों की कार्रवाई को देखें तो इनके सामने अब तक भारत द्वारा चीनी कंपनियों के खिलाफ उठाये गए कदम [1] न के बराबर ही नजर आते हैं. ऐसा तब है जब भारत सरकार की कई एजेंसियां इस मामले में उसे चेतावनी दे चुकी हैं. रणनीतिक और अंतरिक्ष सैन्य प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञ कार्तिक बोम्कांति के मुताबिक [5] ‘इस साल लद्दाख की गलवान घाटी में दोनों देशों की सेनाओं के बीच हुए खूनी संघर्ष से काफी पहले ही भारतीय सैन्य बलों ने मोदी सरकार के सामने चीनी 5जी कंपनियों को लेकर अपना रुख स्पष्ट कर दिया था. सैन्य बलों ने सरकार को आगाह किया था कि अगर चीन से 5जी तकनीक के उपकरण लिये जाते हैं, तो इससे भारत के सैन्य दूरसंचार में चीन को दख़लंदाज़ी करने का मौका मिल सकता है और इससे चीन के साथ लगने वाली लंबी सीमा पर भारत की हिफ़ाज़त करने की सेना की क्षमताओं को नुकसान पहुंचने की आशंका है.’

सैन्य बलों के रुख के साथ-साथ भारत सरकार के कुछ अधिकारियों ने भी चीन की 5जी कंपनियों की पहचान ऐसी संस्थाओं के तौर पर की है, जो अपने उपकरण लगाते वक़्त ‘ट्रैप डोर’ या ‘बैक डोर’ तकनीक का भी इस्तेमाल कर सकती हैं ताकि चीन की खुफिया एजेंसियां भारत में जासूसी गतिविधियां चला सकें. इसके अलावा भारत के मित्र देश अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने भी उससे साफ़ शब्दों में चीनी 5जी कंपनियों की सेवा न लेने को कहा है. इस मामले में चीन कई बार यह आरोप भी लगा चुका है कि अमेरिका के अधिकारी भारत में ह्वावे और ज़ीटीई पर प्रतिबंध लगवाने के लिए वहां के चक्कर काट रहे हैं.

लेकिन इतने दबाव के बावजूद, भारत सरकार अब तक यह फ़ैसला नहीं कर सकी है कि वह 5जी तकनीक के उपकरण कहां से खरीदे. भारत में अभी भी क्वालकॉम, एरिक्सन और नोकिया जैसी कंपनियों के साथ-साथ ह्वावे भी 5जी उपकरणों की आपूर्ति करने वाली कंपनियों की रेस में शामिल है. जानकारों की मानें तो भारत सरकार भले ही कह रही है हो कि वह 5जी उपकरण उन स्रोतों से नहीं ख़रीदेगी, जो विश्वसनीय न हों. लेकिन, सरकार की ओर से अभी तक यह नहीं कहा गया है कि यह फैसला चीनी कंपनियों पर कार्रवाई के मकसद से लिया गया है. यानी साफ़ है कि भारत सरकार 5जी तकनीक उपलब्ध कराने वाली चीनी कंपनियों को पूरी तरह से बाहर करने का फैसला अभी नहीं ले पायी है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि आखिर भारत चीनी 5जी कंपनियों से नाता क्यों नहीं तोड़ पा रहा है जबकि बीते कुछ समय से उसे चीन से ही सबसे ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है.

भारत क्यों चीनी कंपनियों से नाता नहीं तोड़ पा रहा है?

चीनी कंपनियों ह्वावे और ज़ेडटीई को लेकर भारत की दुविधा की वजह सामरिक, आर्थिक और कूटनीतिक तीनों हैं. इस समय अगर दुनिया भर में देखें तो 5जी तकनीक की प्रमुख कंपनियां ज़ीटीई, ह्वावे, क्वालकॉम, एरिक्सन और नोकिया हैं. जानकारों की मानें तो सुविधाओं और गुणवत्ता के मामले में इन सभी की तकनीक लगभग एक जैसी है, लेकिन आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा फायदेमंद ह्वावे और जीटीई ही हैं. इनके टेलिकॉम उपकरण अन्य कंपनियों के मुकाबले काफी सस्ते हैं. इसी वजह से इन दोनों कंपनियों ने अब तक 5जी तकनीक के मामले में पूरी दुनिया पर राज किया है. भारत सरकार के सामने इन दोनों कंपनियों को पूरी तरह पीठ न दिखाने के पीछे की सबसे बड़ी वजह यही है. भारत में प्रमुख दूरसंचार कंपनियां काफी अरसे से बड़े वित्तीय संकट से गुजर रही हैं. उनके ऊपर काफ़ी कर्ज है, निवेश के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं और आमदनी भी कम हो गयी है. ऐसे में चीनी कंपनी ह्वावे और जेटीई के बजाय यूरोपीय कंपनियों से महंगी 5जी तकनीक ले पाना इनके लिए आसान नहीं होगा.

भारत के लिए इन चिंताओं से मुक्ति पाने का एक रास्ता अपने पैरों पर खड़े होने का भी हो सकता है. यानी देश में ही 5जी तकनीक को विकसित करना. अगर भारत ऐसा करता है तो यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम होगा. लेकिन ऐसा करना आसान नहीं है क्योंकि भारत में टेलिकॉम उपकरण न के बराबर ही बनते हैं. वह 90 फीसदी टेलिकॉम उपकरणों को आयात ही करता है. विदेश मामलों के विशेषज्ञ हर्ष वी पंत के मुताबिक [6] ‘देसी 5जी तकनीक को जल्द विकसित करना आसान इसलिए भी नहीं है, क्योंकि भारत तकनीकी डिज़ाइन, डेवलपमेंट या दूरसंचार उपकरणों के निर्माण के मामले में बड़ा देश नहीं है. भारत में अभी तक मौलिक और वैश्विक तौर पर प्रतिस्पर्धी उद्योग स्थापित नहीं हो पाया है जिसे सरकारी और निजी क्षेत्र का समर्थन मिलता हो और रिसर्च के लिए किसी बड़े विश्वविद्यालय के साथ जिसका समझौता हो.’ ऐसे में उसके लिए यकायक टेलिकॉम उपकरणों की इंडस्ट्री खड़ी करना सम्भव नहीं है. कुछ जानकारों के मुताबिक कोविड-19 के चलते भारत सरकार भी आर्थिक रूप से अच्छी स्थिति में नहीं है. ऐसे में अगले कई सालों तक उसके लिए भी 5जी उद्योग खड़ा करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन और समर्थन देना संभव नहीं हो सकेगा.

विदेश मामलों के कुछ जानकार भारत द्वारा चीनी 5जी कंपनियों को न नहीं कह पाने के पीछे कुछ कूटनीतिक कारण भी बताते हैं. इन लोगों की मानें तो 5जी पर अमेरिका के दबाव के चलते भारत के सामने अजीब सी स्थिति बन गयी है. दरअसल, अमेरिका का कहना है कि भारत के साथ हालिया समय में उसने बड़े रक्षा सौदे किये हैं. ऐसे में उसकी किसी तकनीक में कहीं पर भी अगर ह्वावे और ज़ेडटीई के 5जी वायरलेस इंटरनेट का इस्तेमाल हुआ तो इससे अमेरिकी सैन्य तकनीक और उपकरणों को खतरा हो सकता है. ऐसे में अमेरिका चाहता है कि भारत 5जी के मामले में चीनी कंपनियों से बिलकुल नाता तोड़ ले. उधर, चीन ने यह साफ संकेत दे दिया है कि अगर चीन की 5जी कंपनियों पर पाबंदी लगाई जाती है, तो वह इसके जवाब में आर्थिक प्रतिबंध लगाने की नीति का इस्तेमाल कर सकता है.

बीते कुछ समय से भारत जिस तरह चीनी उत्पादों पर निर्भर है, उसे देखते हुए अगर उसके चीन से व्यापारिक रिश्ते बिगड़ते हैं तो इससे उसे ही सबसे ज्यादा आर्थिक चोट [7] पहुंचेगी. विश्व बैंक के संगठन विश्व एकीकृत व्यापार समाधान (डब्ल्यूआईटीएस) के हाल में आए आंकड़ों के मुताबिक [8] बीते चार सालों में चीन का भारत में सबसे ज्यादा निर्यात पूंजीगत वस्तुओं (कैपिटल गुड्स) का है. भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2019 से फरवरी 2020 तक भारत ने चीन से 12.78 बिलियन डॉलर का पूंजीगत सामान आयात किया है. इसमें इलेक्ट्रिकल मशीनरी, सेमी कंडक्टर आधारित मशीनरी, थर्मल पॉवर प्लांट्स की मशीनरी और अस्पतालों में इस्तेमाल होने वाले उपकरण शामिल है. जानकारों का कहना है कि अगर भारत सरकार चीन से आयात पर प्रतिबंध लगाती है तो भारतीय कंपनियों को ऐसे नये उपकरणों को खरीदने और पुराने उपकरणों के कल-पुर्जों के लिए खासी मशक्कत और पहले से ज्यादा रकम अदा करनी पड़ेगी.

भारत ऐसे समान को लेकर भी चीन पर काफी निर्भर है जिसका उपयोग भारतीय कंपनियां उपभोक्ता उत्पाद बनाने के लिए कच्चे माल की तरह करती हैं. इनमें दवाएं और उर्वरक बनाने में इस्तेमाल होने वाले रसायन, ऑटो पार्ट्स, इलेक्ट्रॉनिक पार्ट्स, चमड़े के उत्पाद और सौर उपकरण आदि शामिल हैं. भारत सरकार और रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के आंकड़ों के मुताबिक [9] भारत में 70 फीसदी तक दवाएं बनाने के लिए जरूरी रसायन चीन से मंगवाए जाते हैं. जानकारों के मुताबिक इनमें से कई रसायन भारत में बनते ही नहीं हैं.

रसायनों के अलावा भारतीय कंपनियां 70 फीसदी तक इलेक्ट्रॉनिक पार्ट्स और पुर्जे, 27 फीसदी ऑटो पार्ट्स और 40 फीसदी चमड़े के उत्पाद सस्ते होने के कारण चीन से खरीदती हैं. सौर उपकरणों के मामले में भी यही हाल है, इनकी कम कीमत की वजह से सौर ऊर्जा क्षेत्र की भारतीय कंपनियां भी चीन को ही तरजीह देती हैं. आंकड़ों को देखें तो बीते तीन सालों में भारतीय कंपनियों ने 80 फीसदी तक सौर उपकरण [10] चीन से ही मंगवाए हैं. यानी उपभोक्ता वस्तुएं हों या पूंजीगत वस्तुएं हर मामले में भारत की बड़े स्तर पर चीन पर निर्भरता है.

कुल मिलाकर देखें तो भारत के सामने दुविधा अब यह है कि वह 5जी और अन्य टेलिकॉम उपकरणों को लेकर अमेरिका की सुने या चीन की. जानकारों के मुताबिक ऐसे में उसने किसी एक नाव पर सवार होने के बजाय बीच का रास्ता अपनाया है और कहा है कि वह विश्वसनीय स्रोतों से ही अपने टेलिकॉम उपकरण खरीदेगा.