क्यों ट्रंप पहले भारत-पाक संघर्ष से दूर दिखे, फिर युद्धविराम का श्रेय ले उड़े
वे वजहें जिनके चलते पहले तो डोनाल्ड ट्रंप भारत-पाकिस्तान संघर्ष से दूरी बनाते दिखे और बाद में शांति समझौते का पूरा श्रेय लेकर चलते बने
10 मई 2025 को भारत और पाकिस्तान के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के बीच बातचीत हुई और चार दिन के तनावपूर्ण संघर्ष के बाद दोनों देश युद्धविराम के लिए तैयार हो गए. दिलचस्प बात यह रही कि इसकी घोषणा इन दोनों में से किसी देश ने नहीं की. इसकी जानकारी भारत और पाकिस्तान के लोगों को भी सबसे पहले अमेरिका से मिली. पहले डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया पर इसकी घोषणा की और उसके बाद अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने इसकी पुष्टि की. इसके बाद भारत और पाकिस्तान ने भी सीज़फायर की घोषणा कर दी, हालांकि दोनों ने इसे अपने-अपने तरीके से दुनिया के सामने रखा. पाकिस्तान ने सार्वजनिक रूप से इसके लिए अमेरिका और ट्रंप को धन्यवाद कहा, वहीं भारत ने सीज़फायर की जानकारी देते हुए अमेरिका की भूमिका का कोई ज़िक्र नहीं किया.
इस पृष्ठभूमि में एक सवाल खड़ा होता है —पहले ख़ुद को भारत-पाकिस्तान संघर्ष से दूर दिखाने वाले ट्रंप प्रशासन ने अचानक इसका पूरा श्रेय कैसे ले लिया? इस सीज़फायर से दो दिन पहले ही अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वांस ने भारत-पाक संघर्ष पर साफ़ कहा था कि अमेरिका ‘इस तरह के टकराव में नहीं पड़ेगा, जो हमारी चिंता का विषय नहीं है.’ मगर सीज़फायर की घोषणा के कुछ देर बाद वांस का कहना था — ‘राष्ट्रपति की टीम, ख़ास तौर पर विदेश मंत्री रूबियो ने इस मामले में शानदार काम किया है.’
ऊपर किये गए सवाल का जवाब अमेरिका की विदेश नीति से जुड़ी मजबूरियों और घरेलू राजनीतिक समीकरणों के मेल में छिपा है जिसे बिंदुवार समझने की कोशिश करते हैं:
1. यूक्रेन मामले में विफलता
डोनाल्ड ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत इस दावे के साथ की थी कि वे यूक्रेन युद्ध को कुछ ही दिनों में खत्म करा देंगे. लेकिन तब से अब तक कई महीने बीत चुके हैं और तमाम खुली और गुप्त कूटनीतिक कोशिशों के बावजूद उनका प्रशासन कीव और मॉस्को के बीच आंशिक युद्धविराम तक नहीं करवा सका है. इस कूटनीतिक विफलता ने ट्रंप की जटिल मामलों को समझने और उन्हें हल करने की क्षमता पर सवालिया निशान खड़े कर दिये हैं. ऐसे में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम ट्रंप प्रशासन के लिए एक बड़ी वैश्विक ‘सफलता’ का संदेश देने का अच्छा अवसर बन गया.
2. वैश्विक साख और परंपरागत सहयोगियों से अलगाव
ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति ने अमेरिका की वैश्विक साख को जबर्दस्त क्षति पहुंचाई है. उनके प्रशासन ने पेरिस जलवायु समझौता, विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद जैसी अहम् अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और समझौतों से अमेरिका को अलग कर लिया. इसके चलते वैश्विक नेतृत्व करने वाली अमेरिकी छवि धूमिल हुई है और इससे बनी खाली जगह को भरने की कोशिश चीन जैसे उसके प्रतिद्वंद्वी देश करने लगे हैं.
उधर, डोनाल्ड ट्रंप की लेन-देन वाली विदेश नीति ने भी यूरोप और अन्य परंपरागत सहयोगियों के साथ अमेरिका के संबंधों में खटास पैदा की है. इसके चलते अमेरिका के सहयोगी रहे देश भी सामूहिक सुरक्षा को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने लगे हैं. इस पृष्ठभूमि में भारत-पाक युद्धविराम अमेरिका के लिए अपनी प्रासंगिकता और वैश्विक भूमिका का भरोसा फिर से जताने का एक दुर्लभ मौका बन गया.
3. नौसिखिया विदेश नीति टीम
डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की सबसे चर्चित बातों में से एक उनकी विदेश नीति टीम की बनावट रही है. इसमें विदेश मंत्री मार्को रूबियो, उपराष्ट्रपति जेडी वांस और मध्य-पूर्व व रूस के मामलों में अमेरिका के विशेष दूत स्टीव विटकॉफ जैसे अपेक्षाकृत अनुभवहीन चेहरे शामिल हैं. स्वयं ट्रंप को भी बारीक कूटनीति की अच्छी समझ रखने वाला राजनेता नहीं माना जाता है. ऐसी धारणा है कि ट्रंप प्रशासन बैकडोर बातचीत के बजाय बड़ी सुर्खियां बटोरने में ज्यादा विश्वास रखता है. भारत-पाकिस्तान संघर्ष जैसे जटिल मसले में अमेरिका के खुलकर शामिल न होते दिखने की सबसे बड़ी वजह यही मानी जा सकती है. वह नहीं चाहता था कि इस मामले में भी उसकी विदेश नीति की आलोचना हो और जब मामला सुलझ गया तो प्रशासन ने इसका पूरा श्रेय लेने में ज़रा भी हिचक नहीं दिखाई.
4. घरेलू चुनावी समीकरण
नवंबर 2026 में अमेरिका में मध्यावधि चुनाव होने हैं. ऐसे में ट्रंप प्रशासन पर कुछ बड़ी सफलताएं अपने नाम करने का जबर्दस्त दबाव है. वह कुछ ऐसी उपलब्धियां हासिल करना चाहता है जिनसे रिपब्लिकन पार्टी की राजनीतिक छवि मज़बूत हो और उसके समर्थकों में नया जोश भर जाए. भारत और पाकिस्तान के संघर्ष ने उसे विदेश नीति के मोर्चे पर एक ऐसी सफलता का मौका दे दिया जिसके लिए न तो उसे कहीं सेना भेजनी थी और न ही कोई अन्य आर्थिक खर्च उठाना था. भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम का श्रेय लेना अमेरिका में बसे भारतीयों और पाकिस्तानियों को लुभाने का भी एक बढ़िया मौका था. दरअसल ये समुदाय मिशिगन, पेनसिल्वेनिया, टेक्सास और फ्लोरिडा जैसे महत्वपूर्ण राज्यों की कई संसदीय सीटों के चुनावों को निर्णायक रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं.