कैसे नोबेल शांति पुरस्कार डोनाल्ड ट्रंप की नई विदेश नीति बन गया है
नोबेल शांति पुरस्कार के लिए डोनाल्ड ट्रंप की दीवानगी ने अमेरिकी कूटनीति की रीति ही बदल डाली है — भारत को इसका नुकसान हो रहा है, पाकिस्तान इसका फायदा उठा रहा है
नोबेल पुरस्कारों की स्थापना स्वीडिश उद्योगपति और आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल की वसीयत के ज़रिए हुई थी. ये पुरस्कार बौद्धिक उपलब्धियों और मानव कल्याण के क्षेत्र में दिए जाने वाले दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित सम्मान हैं. इनमें भी शांति का नोबेल एक खास वैश्विक महत्व रखता है. यह एक ऐसा असाधारण सम्मान है, जो दुनिया के सबसे प्रभावशाली लोगों की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय छवि और ऐतिहासिक विरासत को और समृद्ध करने का काम करता है. यह उन्हें नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, थियोडोर रूज़वेल्ट और बराक ओबामा जैसी दुर्लभ वैश्विक हस्तियों की श्रेणी में शामिल कर देता है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए यह पुरस्कार शायद और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है. उन्होंने कई बार इस बात पर निराशा और नाराज़गी जताई है कि उन्हें अब तक यह सम्मान क्यों नहीं मिला. वे खुलकर नोबेल कमेटी के पुराने फैसलों पर भी सवाल उठाते रहे हैं . उनका कहना है, “ये लोग शांति पुरस्कार सिर्फ उदारवादियों (यानी डेमोक्रेट्स) को ही देते हैं.”
डोनाल्ड ट्रंप के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बराक ओबामा को यह पुरस्कार तब मिला था जब उन्होंने अपने पहले कार्यकाल का एक साल भी पूरा नहीं किया था. इस वजह से ट्रंप, ओबामा की भी आलोचना करते नहीं थकते. उनका यह रवैया ज्यादातर पिछले अमेरिकी राष्ट्रपतियों से बिल्कुल अलग है. उनमें से किसी ने भी नोबेल पुरस्कार पाने के लिए न तो इतनी आतुरता दिखाई और न ही इसे न पाने की हालत में वे ट्रंप जितने निराश और कड़वे दिखे.
डोनाल्ड ट्रंप के लिए नोबेल पुरस्कार जीतना इसके सौ साल के इतिहास को फिर से लिखने जैसा होगा, खासकर अमेरिकी राष्ट्रपतियों के मामले में. अब तक सिर्फ चार अमेरिकी राष्ट्रपतियों — थियोडोर रूज़वेल्ट (1906), वुड्रो विल्सन (1919), जिमी कार्टर (2002) और बराक ओबामा (2009) — को ही यह सम्मान मिल पाया है. इनके अलावा एक अमेरिकी उपराष्ट्रपति, अल गोर (2007), भी नोबेल शांति पुरस्कार पा चुके हैं. इनमें से केवल थियोडोर रूज़वेल्ट ही रिपब्लिकन पार्टी से थे. लेकिन उन्हें यह सम्मान 119 साल पहले मिला था. इसके उलट डेमोक्रेट पार्टी से जुड़े तीन नेता इसी सदी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं.
अल्फ्रेड नोबेल की वसीयत को पढ़ें तो नोबेल शांति पुरस्कार उन लोगों को दिया जाना चाहिए जिन्होंने "राष्ट्रों के बीच भाईचारे को बढ़ाने, स्थायी सेनाओं को समाप्त या कम करने, और शांति सम्मेलनों के आयोजन और प्रसार" के लिए सबसे अधिक या सबसे अच्छा कार्य किया हो.
नोबेल शांति पुरस्कार पाने के लिए डोनाल्ड ट्रंप का सबसे मजबूत आधार अब्राहम समझौते हैं. ये समझौते 2020 में इज़रायल और चार अरब देशों (यूएई, बहरीन, सूडान, मोरक्को) के बीच हुए थे और सही मायने में एक बड़ी कूटनीतिक सफलता थे. अब्राहम समझौतों ने लंबे समय से अशांत रहे एक क्षेत्र में राजनयिक संबंधों की नींव डालने का काम किया. और ये "राष्ट्रों के बीच भाईचारे" को बढ़ाने वाले नोबेल कमेटी के मूल उद्देश्यों से भी पूरी तरह मेल खाते थे. ट्रंप ने इन समझौतों का पूरा श्रेय खुद को दिया और उन्हें अपनी शांति स्थापित करने की क्षमता और नोबेल पुरस्कार पाने के ठोस आधार के रूप में पेश किया.
अपने पहले कार्यकाल के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग उन के साथं सीधी बातचीत भी की. यह तब की अमेरिकी नीतियों में एक बड़ा बदलाव था जो नोबेल शांति पुरस्कार के मापदंडों — "राष्ट्रों के बीच भाईचारे को बढ़ाने" और "स्थायी सेनाओं (या परमाणु शस्त्रों) को समाप्त या कम करने" — से पूरी तरह मेल खाता था. हालांकि, इन बैठकों से कोई ठोस नतीजा नहीं निकला और उत्तर कोरिया ने अपने मिसाइल और परमाणु कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना जारी रखा.
अपने दूसरे कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रंप की शांतिदूत दिखने की कोशिशें उन ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय संघर्षों में देखी जा सकती हैं हैं जो या तो हाल ही में खत्म हुए हैं या अभी भी जारी हैं. भारत-पाकिस्तान के बीच हुए टकराव को लेकर ट्रंप कई बार यह दावा कर चुके हैं कि दोनों परमाणु-शक्तियों के बीच युद्धविराम उन्होंने ही करवाया था. पाकिस्तान भी सार्वजनिक रूप से दोनों देशों के बीच शांति की कोशिशों में अमेरिका की भूमिका स्वीकार करता है और उसने ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित भी किया है.
डोनाल्ड ट्रंप रूस-यूक्रेन युद्ध को भी जल्द से जल्द खत्म करने में अपनी एक निर्णायक भूमिका चाहते हैं. उन्हें पता है कि इतने बड़े यूरोपीय संघर्ष को खत्म करना शांति की एक ऐतिहासिक उपलब्धि माना जाएगा. हालांकि अब तक इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हो सकी है, लेकिन इस मामले में ट्रंप जिस तरह से लगातार कोशिशें कर रहे हैं, उसे कई विद्वान नोबेल पाने की उनकी महत्वाकांक्षा से भी जोड़कर देखते हैं.
हाल ही में, इज़रायल-ईरान संघर्ष के दौरान जो हुआ वह भी शायद डोनाल्ड ट्रंप की नोबेल शांति पुरस्कार पाने की चाह को कुछ और समझने में हमारी मदद कर सकता है. ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमलों और ट्रंप द्वारा घोषित "सीज़फायर" के बाद, इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने उन्हें सार्वजनिक रूप से नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया है.
इससे एक दिलचस्प काल्पनिक परिदृश्य बनता है: क्या ट्रंप ने इज़रायल को अपना पूरा समर्थन इस शर्त पर दिया कि नेतन्याहू को, इज़रायल के कुछ तयशुदा लक्ष्य पूरे होने के बाद, जब वे कहेंगे युद्ध खत्म कर देना होगा? अगर ऐसा है, तो यह दोनों ही के लिए बड़े फायदे का सौदा था. इससे इज़रायल को एक बेहद जटिल संघर्ष से आसानी से बाहर निकलने का रास्ता मिल गया, और ट्रंप को खुद को नोबेल शांति पुरस्कार के मज़बूत दावेदार के रूप में पेश करने का.
हाल ही रवांडा और कांगो-किंशासा के बीच हुए शांति समझौते ने भी डोनाल्ड ट्रंप की नोबेल पुरस्कार पाने की इच्छा को कुछ और स्पष्ट किया. व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में इस समझौते पर दस्तखत करवाते हुए उन्होंने इसका पूरा श्रेय खुद को दिया. इस मौके पर ट्रंप का कहना था कि उन्होंने ऐसी जगह शांति स्थापित की है जहां अब तक कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति सफल नहीं हो पाया था. ट्रंप ने यह भी कहा कि इस शांति समझौते को अंजाम तक पहुंचाने के लिए वे नोबेल पुरस्कार के हकदार हैं.
डोनाल्ड ट्रंप इससे भी आगे जाकर कई बार यह भी दावा करते हैं कि उन्हें अब तक कम से कम चार-पांच बार नोबेल शांति पुरस्कार मिल जाना चाहिए था. लेकिन अगर अब तक ऐसा नहीं हुआ है तो इसके भी कई कारण गिनाए जा सकते हैं.
अपने पहले कार्यकाल के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने अब्राहम समझौतों के रूप में जो कूटनीतिक सफलता हासिल की थी, वह अपने-आप में ही इतनी बड़ी थी कि इसके लिए ही उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार दिया जा सकता था. इतिहास में झांकें तो पहले, कई पैमानों पर अब्राहम समझौतों से छोटे शांति समझौतों के लिए भी नोबेल शांति पुरस्कार दिये जा चुके हैं. 1978 में कैंप डेविड समझौते के लिए मेनाखेम बेगिन और अनवर सादात को मिला शांति पुरस्कार हो या 1994 में ओस्लो समझौते के लिए यासिर अराफात, शिमोन पेरेस और यित्झाक राबिन को मिला पुरस्कार — दोनों ही यह दर्शाते हैं कि नोबेल कमेटी को ऐसे प्रत्यक्ष शांति समझौते कितने भाते हैं.
अपने पहले कार्यकाल के अंतिम दिनों में ही ट्रंप ने कोसोवो और सर्बिया के बीच समझौते करवाने में भी अहम भूमिका निभाई थी. इससे नोबेल पाने की उनकी संभावनाएं बढ़ जानी चाहिए थीं. अगर उन्हें फिर भी यह सम्मान नहीं मिला तो शायद इसलिए कि नोबेल कमेटी पुरस्कार देने के मामले में अक्सर समग्र दृष्टिकोण अपनाती है. ट्रंप के अन्य कामों और फैसलों का असर शायद ऐसा था कि उसने अब्राहम समझौतों जैसी बड़ी उपलब्धि को भी फीका कर दिया.
ट्रंप की पहली सरकार ने “अमेरिका फर्स्ट” नीति को अपनाया, जिसका असर यह था कि अमेरिका ने ईरान परमाणु समझौता (जेसीपीओए), पेरिस जलवायु समझौता और इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज़ (आईएनएफ) संधि जैसे अहम अंतरराष्ट्रीय समझौतों से खुद को अलग कर लिया. उन्होंने अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से भी बाहर निकालने का काम किया.
ट्रंप के इस एकतरफा रवैये की झलक अमेरिका-मेक्सिको सीमा पर दीवार बनाने की उनकी ज़िद में भी दिखती है, और अमेरिका के पारंपरिक सहयोगियों के साथ उनके तनावपूर्ण रिश्तों में भी. आलोचकों का मानना है कि डोनाल्ड ट्रंप के ऐसे कदमों ने देशों के बीच भाईचारे और बहुपक्षीय सहयोग की भावना को नुकसान पहुंचाया, जबकि ये दो सिद्धांत नोबेल शांति पुरस्कार की बुनियाद माने जाते हैं.
2020 के चुनाव नतीजों को स्वीकार करने से ट्रंप का इनकार और कैपिटल हिल पर हुई हिंसा को लेकर उनका रवैया भी शांति के बुनियादी सिद्धातों को कमजोर करने वाला माना जा सकता है.
हालिया भारत-पाकिस्तान टकराव और उसके बाद हुआ संघर्षविराम ट्रंप के लिए अब्राहम समझौतों जितना ही बड़ा मौका था. लेकिन भारत ने सीज़फायर में अमेरिका सहित किसी भी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को सिरे से खारिज कर दिया. इससे ट्रंप का यह दावा कमज़ोर पड़ गया कि उन्होंने ही भारत-पाकिस्तान के बीच शांति स्थापित करवायी है. ट्रंप जैसे किसी व्यक्ति के लिए, जो व्यक्तिगत श्रेय और वाहवाही को बेहद अहम मानता हो, यह सीधी अवमानना जैसा है. उधर पाकिस्तान ने इस टकराव को सुलझाने के लिए ट्रंप की न केवल जमकर तारीफ की बल्कि नोबेल शांति पुरस्कार के लिए उनका नामांकन भी किया. शायद यह भी एक वजह हो कि ट्रंप ने अचानक भारतीय संवेदनाओं और हितों की अनदेखी शुरू कर दी है और पाकिस्तान के प्रति उनका प्रेम बढ़ता जा रहा है. इसकी दूसरी वजह यह हो सकती है कि ट्रंप की एक कंपनी ने हाल ही में पाकिस्तान की एक सरकारी संस्था के साथ मोटे फायदे वाले व्यावसायिक संबंध बनाये हैं.
रवांडा और कांगो-किंशासा के बीच हुए शांति समझौते में भी कई “अगर-मगर” हैं. खासकर इसमें कांगो और किंशासा की खनिज संपदा के व्यापार के लिए इन दोनों देशों की अमेरिका के साथ साझेदारी का ज़िक्र है. ट्रंप के लिए वैश्विक स्तर पर शांति की स्थापना उतना बड़ा लक्ष्य नहीं है जितना इसके जरिये अपनी छवि चमकाना और मुनाफे वाला लेनदेन करना. इस वजह से ट्रंप की “शांति” की परिभाषा उन शख्सियतों से काफी अलग नज़र आती है जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिल चुका है.
डोनाल्ड ट्रंप यूक्रेन युद्ध को लेकर भी कुछ-कुछ ऐसा ही लेन-देन वाला फॉर्मूला अपनाते दिखते हैं. वे रूस और यूक्रेन के बीच शांति कायम करवाने के लिए अमेरिकी समर्थन देने की पेशकश तभी करते हैं जब यूक्रेन और यूरोपीय संघ भी इसके बदले में कुछ देने या करने को तैयार हों. सवाल यह है कि क्या इस तरह के सौदेबाज़ी वाले प्रयास नोबेल शांति पुरस्कार की मूल भावना से मेल खाते हैं?
डोनाल्ड ट्रंप की विभाजनकारी बयानबाज़ी और अमेरिका के सहयोगी देशों के साथ एकतरफा व्यापार युद्ध छेड़ने जैसे उनके कदम भी नोबेल शांति पुरस्कार विजेता की पारंपरिक छवि से मेल नहीं खाते. इसके अलावा उन्होंने यूएसएड जैसी संस्था को भी बंद कर दिया, जो पूरी दुनिया के ज़रूरतमंदों को मानवीय मदद पहुंचाया करती थी.
इन तमाम चुनौतियों से परे ट्रंप से जुड़े कुछ व्यक्तिगत विवाद भी हैं. इनमें जेफ्री एपस्टीन से जुड़ा मामला भी शामिल है. शोषण या आपराधिक आचरण से जुड़े इस तरह के आरोप किसी भी नेता की छवि को गंभीर नुकसान पहुंचा सकते हैं. ऐसे विवाद सार्वजनिक नैतिकता और मर्यादा की उस भावना के बिलकुल उलट हैं, जिसका प्रतिनिधित्व नोबेल शांति पुरस्कार करता है.
अंत में इस लेख का लब्बोलुआब यह है कि डोनाल्ड ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना एक बहुत दूर की कौड़ी है. यह उनके लिए एक ऐसा सपना है जिसका पूरा होना लगभग असंभव है. लेकिन जब दांव पर इतना कुछ लगा हो, तो कुछ भी असंभल कैसे हो सकता है?
नोबेल पुरस्कारों में से पांच स्वीडन की संस्थाएं देती हैं, जबकि एक — शांति का नोबेल — नार्वे की संसद द्वारा नियुक्त नॉर्वेजियन नोबेल कमेटी देती है. ये दोनों देश यूरोप में हैं जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिकी समर्थन के बल पर ताकतवर और समृद्ध दिखाई देता रहा है. लेकिन ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से दोस्ती की यह गारंटी खत्म हो गई है.
ऐसे में क्या डोनाल्ड ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार देकर यूरोप के लिए फिर से अमेरिकी समर्थन सुनिश्चित करने की कोशिश की जा सकती है? तब यह सम्मान अमेरिका और यूरोप के बीच ‘भाईचारे’ की भावना और यूरोप की शांति-सुरक्षा को मजबूत करने का काम ही तो कर रहा होगा. क्या यही वे उद्देश्य नहीं हैं जिनके लिए नोबेल शांति पुरस्कार की स्थापना की गई थी?