नेहरू ने पाकिस्तान को फ़ायदा पहुंचाने वाली सिंधु जल संधि पर दस्तख़त क्यों किए?
सिंधु जल संधि न केवल पाकिस्तान को सिंधु और उसकी सहायक नदियों के ज़्यादातर पानी का अधिकार देती है, बल्कि भारत पर कई तरह की पाबंदियां भी लगाती है

1960 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि पर दस्तख़त किए. इसके तहत भारत ने सिंधु और उसकी सहायक नदियों — सतलज, चिनाब, व्यास, रावी और झेलम — का लगभग 80 फ़ीसदी पानी पाकिस्तान को सौंप दिया. इतना ही नहीं, भारत ने पाकिस्तान को उस पानी का इस्तेमाल करने के लिए ज़रूरी ढांचा खड़ा करने के मकसद से 62 लाख पाउंड (तब की क़ीमत) भी दिए. (हालांकि इसके लिए अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और कनाडा जैसे कई देशों ने भी आर्थिक मदद दी थी.) तो आख़िर नेहरू ने इतना एकतरफ़ा समझौता क्यों किया? इसकी पांच अहम वजहें हो सकती हैं:
1️⃣ शीत युद्ध का दबाव
उस दौर में अमेरिका और ब्रिटेन, पाकिस्तान को सोवियत प्रभाव से बचाकर अपना रणनीतिक साझेदार बनाने में जुटे थे. भारत उनकी प्राथमिकताओं में नहीं था. अमेरिका और ब्रिटेन के दबाव में वर्ल्ड बैंक भी भारत-पाकिस्तान के बीच इस विवाद में निष्पक्ष नहीं था और पश्चिम के रणनीतिक हितों के मुताबिक काम कर रहा था. ऐसे में भारत पर सिंधु जल संधि पर दस्तख़त करने और पाकिस्तान के साथ लंबे जल विवाद से बचने का जबरदस्त दबाव था.
2️⃣ अंतरराष्ट्रीय अलगाव का डर
अगर भारत यह संधि ठुकरा देता तो उसे पश्चिमी देशों की नज़र में एक हठी और टकराव पसंद देश माना जा सकता था. इससे न केवल भारत के अंतरराष्ट्रीय रिश्ते प्रभावित होते बल्कि विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मिलने वाली वित्तीय मदद और कर्ज़ भी रुक सकते थे. विभाजन के बाद की कमजोर अर्थव्यवस्था वाले नए देश के रूप में भारत उस वक़्त ऐसा कूटनीतिक और आर्थिक अलगाव झेलने की स्थिति में नहीं था.
3️⃣ शांति का आदर्शवादी नज़रिया
जवाहरलाल नेहरू नदियों को पूरी मानवता की साझा प्राकृतिक धरोहर मानते थे. 1950 के दशक में भारत की विदेश नीति भी आदर्शवाद, नैतिकता और साम्राज्यवाद-विरोध की सोच से प्रेरित थी. उस समय व्यावहारिक कूटनीति को उपनिवेशवादी विरासत माना जाता था. आज यह सोच भोली लग सकती है, लेकिन गांधी-नेहरू के उस नैतिक ढांचे में यह पूरी तरह तार्किक था.
4️⃣ पाकिस्तान की नीयत पर ग़लत दांव
विभाजन की त्रासदी झेल चुके पंडित नेहरू को उम्मीद थी कि यह संधि लंबे समय में पाकिस्तान के साथ शांति और सौहार्द का माहौल बना सकती है. संभव है, उन्होंने सोचा हो कि हालात सामान्य होने पर भारत इस संधि की शर्तें बेहतर बनाने के लिए दोबारा बातचीत कर सकेगा. लेकिन तब वे पाकिस्तान की दीर्घकालिक नीयत और इस संधि के दूरगामी रणनीतिक प्रभाव का ठीक तरह से अंदाज़ा नहीं लगा पाए.
5️⃣ भारत की अपनी समस्या
सिंधु और उससे जुड़ी नदियों के पानी को भारत के उत्तरी राज्यों की तरफ मोड़ना आसान नहीं था क्योंकि बीच में पीर पंजाल की गगनचुंबी पहाड़ियां थीं. 1947 में भारत के पास इतने बांध और नहरें भी नहीं थे कि वह इस पानी के कुछ हिस्से को ही जमा और जहां हो सके इस्तेमाल कर पाता. इसके अलावा, उस दौर की आर्थिक कमज़ोरी, बंटवारे के बाद की उथल-पुथल और अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते भारत के लिए पाकिस्तान से जल्दी समझौता करना एक तरह की राजनीतिक मजबूरी बन गया था.
आज जब पीछे मुड़कर देखें तो यह संधि दो बराबर पक्षों के बीच हुआ समझौता नहीं लगती. यह संधि शीत युद्ध की राजनीति, नेहरूजी के आदर्शवाद और विभाजन के बाद भारत की तत्कालीन मजबूरियों की उपज ज्यादा थी.