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राजनीति | भारत

क्या भारत की एक से ज्यादा राजधानियां होनी चाहिए?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अकेली नहीं हैं, डॉ भीमराव अंबेडकर भी मानते थे कि भारत की एक से ज्यादा राजधानियां हो सकती हैं

विकास बहुगुणा | 17 मार्च 2021 | फोटो: यूट्यूब स्क्रीनशॉट

‘कोलकाता को देश की राजधानी क्यों नहीं होना चाहिए, ये बात मैं आजादी के आंदोलन में हमारे योगदान को देखते हुए कह रही हूं… मैं केंद्र से फिर अनुरोध करूंगी कि भारत की चार राजधानियां होनी चाहिए. एक दक्षिण में, एक उत्तर में, एक पूरब में और एक पूर्वोत्तर में.’

तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी ने यह बात नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन के मौके पर कोलकाता में हुए एक आयोजन के दौरान कही. इसके साथ ही एक बार फिर से यह बहस होने लगी कि क्या भारत जैसे देश में एक से अधिक राजधानियां हो सकती हैं. भाजपा ने ममता बनर्जी की इस मांग को बेतुका बताया तो एक वर्ग का मानना था कि ऐसा हो सकता है.

दुनिया में इस वक्त 16 देश हैं जिनकी एक से ज्यादा राजधानियां हैं. इनमें बोलिविया से लेकर नीदरलैंड्स, तंजानिया और श्रीलंका तक तमाम नाम शामिल हैं. दक्षिण अफ्रीका तो इस मामले में सबसे आगे है. वह अकेला देश है जिसकी तीन राजधानियां हैं. समझने की कोशिश करते हैं कि ऐसा क्यों है और क्या भारत में यह मॉडल अपनाया जा सकता है.

एक से ज्यादा राजधानियों के विचार के तार इतिहास से लेकर राजनीति तक कई सिरों से जुड़ते दिखते हैं. अपनी किताब प्लैनिंग ट्वेंटीएथ सेंचुरी कैपिटल सिटीज में कनाडा स्थित क्वीन्स यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ अर्बन एंड रीजनल प्लानिंग से जुड़े प्रोफेसर डेविड गॉर्डन लिखते हैं, ‘कई बार देश के भीतर अलग-अलग इलाकों में सक्रिय सियासी शक्तियां अपने-अपने इलाके को ज्यादा से ज्यादा अहमियत दिलाने के लिए होड़ करती हैं.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘उनमें से कोई भी ये नहीं चाहता कि केंद्र सरकार की गद्दी उनके प्रतिद्वंदी के इलाके में हो जिससे उसे लाभ मिले.’

यह संघर्ष दुनिया के हर देश में देखने को मिला है. अमेरिका में भी एक समय उत्तरी और दक्षिणी राज्यों में राजधानी के लिए घमासान हुआ था. आखिर में इसका समाधान पोटोमैक नदी के किनारे वाशिंगटन डीसी के रूप में एक केंद्र शासित प्रदेश विकसित करके निकाला गया. उधर, दक्षिण अफ्रीका ने राष्ट्रीय सरकार का काम तीन शहरों में बांटने का विकल्प चुना. वहां प्रिटोरिया में कार्यपालिका बैठती है, केपटाउन में विधायिका और ब्लूमफॉन्टेन में न्यायपालिका.

दक्षिण अफ्रीका में यह व्यवस्था उस युद्ध के चलते बनी थी जिसे इतिहास में एंग्लो-बोअर वॉर के नाम से जाना जाता है. 20वीं सदी की शुरुआत में यह युद्ध ब्रिटिश साम्राज्य और बोअर स्टेट्स कहे जाने वाले दो डच भाषी गणतंत्रों के बीच हुआ था. इनमें पहला साउथ अफ्रीकन रिपब्लिक था जिसे ट्रांसवाल रिपल्बिक भी कहा जाता था. दूसरे का नाम ऑरेन्ज फ्री स्टेट था. इस लड़ाई में ब्रिटेन की जीत हुई जिसने 1910 में इन जीते हुए इलाकों को अपने दो अन्य उपनिवेशों के साथ मिलाकर यूनियन ऑफ साउथ अफ्रीका बना दिया. आज का दक्षिण अफ्रीका यही इलाका है.

ट्रांसवाल रिपब्लिक की राजधानी प्रिटोरिया थी और ऑरेन्ज फ्री स्टेट की राजधानी ब्लूमफॉन्टेन. उधर, केप कॉलोनी नाम के जिस उपनिवेश को इनके साथ मिलाया गया था उसकी राजधानी केपटाउन थी. एकीकरण के बाद वजूद में आए नए उपनिवेश में अलग-अलग हिस्सों के बीच अहमियत के लिए खींचतान न हो, इसके लिए तीनों शहरों को राजधानी बनाकर उनमें राज्य व्यवस्था के विभिन्न अंगों का बंटवारा कर दिया गया. एक सदी से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद आज भी दक्षिण अफ्रीका में यही व्यवस्था बरकरार है.

कई राजधानियां बनाने के पीछे यह तर्क भी दिया जाता है कि इससे आर्थिक विकास की असमानता को कम किया जा सकता है. उदाहरण के लिए कुछ समय पहले आंध्र प्रदेश विधानसभा ने एक विधेयक पारित किया जिसमें राज्य की तीन राजधानियां बनाने का प्रावधान है. तेलंगाना के अलग होने के बाद आंध्र प्रदेश को अपनी अलग राजधानी बनानी थी. पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने इसके लिए अमरावती का चयन किया और यहां भव्य स्तर पर निर्माण कार्य शुरू भी कर दिया. लेकिन अमरावती में अब सिर्फ विधानसभा होगी. कार्यपालिका विशाखापत्तनम से चलेगी जबकि कर्नूल को न्यायिक राजधानी बनाया जाएगा. दिलचस्प बात है कि कर्नूल 1953 से 1956 तक आंध्र प्रदेश की राजधानी रह चुका है. इसके बाद ही राजधानी को हैदराबाद ले जाया गया था.

तीन राजधानियां बनाने के फैसले के पीछे राज्य की वाईएसआर कांग्रेस सरकार का तर्क है कि एक ही जगह राजधानी होने से राज्य के दूसरे हिस्से उपेक्षित रह जाते हैं. एक अखबार से बात करते हुए राज्य के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी का कहना था, ‘हम नहीं चाहते कि सारे वित्तीय संसाधन एक ही इलाके के विकास में खर्च हो जाएं और दूसरे इलाके पैसे की कमी के चलते मुश्किल झेलें.’ कर्नूल आंध्र प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में स्थित रायलसीमा में पड़ता है और यह इलाका राज्य में सबसे पिछड़ा हुआ है. उधर, पूर्वी हिस्से में विशाखापत्तनम से सटे श्रीकाकुलम जैसे कई जिलों का भी यही हाल है. वाईएसआर सरकार का दावा है कि इन दोनों जिलों में व्यवस्था के अलग-अलग अंग होने से राज्य का आर्थिक विकास समावेशी होगा.

एक से ज्यादा राजधानियों के पीछे की एक वजह इतिहास से भी जुड़ती है. उदाहरण के लिए नीदरलैंड्स के संविधान में राजधानी का दर्जा एम्स्टर्डम को मिला हुआ है, लेकिन देश की राजधानी हेग को भी माना जाता है क्योंकि संसद, सरकार और न्यायपालिका यहीं से चलती है. दरअसल राजसत्ता से चलते आ रहे नीदरलैंड्स में 18वीं सदी आते-आते दो राजनीतिक धड़े हो गए थे. इनमें एक धड़े को ऑरेंज और दूसरे को रिपब्लिकन कहा जाता था. पहले का विश्वास वंशवादी राजनीति में था और उसका मानना था कि सत्ता पहले से चले आ रहे राजपरिवार के हाथ में ही रहनी चाहिए. दूसरी तरफ रिपब्लिकन थे जिनका विश्वास लोकतंत्र में था. ऑरेंज धड़े का आधार हेग और नीदरलैंड्स के ग्रामीण इलाकों में था जबकि रिपब्लिकन के समर्थक देश के शहरों-कस्बों खासकर एम्स्टर्डम में थे. दोनों गुटों में खूनी राजनीतिक संघर्ष भी चला. 1814 में जब नीदरलैंड्स फ्रांस के कब्जे से आजाद हुआ और नया संविधान बना तो बीच का रास्ता निकालते हुए एम्स्टर्डम को राजधानी का दर्जा दे दिया गया. लेकिन सरकार की गद्दी और न्यायपालिका हेग में ही रही जहां वह पिछली तीन सदियों से थी और दो सदी बाद आज भी है.

16वीं और 17वीं सदी के दौरान जब नीदरलैंड्स ने स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय के खिलाफ बगावत की थी तो 80 साल चले इस संघर्ष में ज्यादातर समय एम्सटर्डम स्पेनी साम्राज्य का वफादार रहा था. फिर 19वीं सदी की शुरुआत में नेपोलियन की अगुवाई वाले फ्रांस ने जब नीदरलैंड्स पर कब्जा किया तो रिपब्लिकन और उनके गढ़ एम्सटर्डम ने इसका स्वागत किया क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे फ्रांस में विकसित लोकतांत्रिक मूल्य उनके यहां भी चले आएंगे. ऐसा ही हुआ भी. हालांकि इससे यह धारणा भी बन गई कि एम्स्टर्डम बाहरी लोगों का साथ देता है और सरकार की गद्दी वहां रखना सुरक्षित नहीं है. तो अपनी लोच ने भले ही एम्स्टर्डम को नीदरलैंड्स का सबसे प्रमुख शहर बनाकर उसे राजधानी का दर्जा भी दे दिया हो, लेकिन असल मायनों में नीदरलैंड्स की राजधानी अब भी हेग ही है.

वैसे एक वक्त था जब भारत की भी दो राजधानियां थीं. 1864 में तत्कालीन वायसराय जॉर्ज लॉरेंस ने आधिकारिक रूप से शिमला को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया था. तब राजधानी कोलकाता थी और ठंडे मौसम से आए अंग्रेजों को इस शहर की गर्मी और उमस बहुत परेशान करती थी. शिमला का मौसम उन्हें रास आता था. साथ ही यह शहर भारत के दूसरे यानी उत्तरी छोर पर भी था इसलिए उन्हें लगता था कि इससे पूरे साम्राज्य पर नियंत्रण रखने में उन्हें सहूलियत होगी. शिमला को राजधानी घोषित किए जाने के बाद यहां वायसराय हाउस से लेकर सचिवालय और सशस्त्र बलों के मुख्यालय तक तमाम इमारतें बनीं. शहर तक रेल संपर्क भी पहुंचाया गया. कहने को तो शिमला ग्रीष्मकालीन राजधानी थी, लेकिन कई बार सरकार अप्रैल की शुरुआत से लेकर नवंबर के आखिर तक यानी सात से आठ महीने यहीं से चलती थी. यानी कि मौसम से मिलने वाली सहूलियत भी दो राजधानियों के पीछे की एक वजह हो सकती है.

तो क्या भारत एक से अधिक राजधानियों वाले मॉडल पर लौट सकता है जैसा कि ममता बनर्जी मांग कर रही हैं? इस सवाल के जवाब पर जाने से पहले यह जान लें कि यह मुद्दा आज का नहीं है. संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी सुझाव दिया था कि भारत की दो राजधानियां होनी चाहिए ताकि उत्तर और दक्षिण के बीच का झगड़ा खत्म किया जा सके. 1955 में प्रकाशित अपनी किताब ‘थॉट्स ऑन लिंगुइस्टिक स्टेट्स‘ में उन्होंने लिखा था, ‘दक्षिण भारत के लोगों के लिए दिल्ली सबसे ज्यादा असुविधाजनक है क्योंकि एक तो यह वहां से बहुत दूर है और दूसरे, यहां पर बहुत ही ज्यादा गर्मी और सर्दी पड़ती है.’

डॉ बीआर अंबेडकर की बात का समर्थन करने वाले तर्क देते रहे हैं कि एक से ज्यादा राजधानियां होने से न सिर्फ देश के अलग-अलग हिस्सों का आपसी जुड़ाव और मजबूत होगा बल्कि आर्थिक विकास का भी विकेंद्रीकरण होगा. कई जानकार मानते हैं कि कई राज्यों में दो राजधानियों से मिलती-जुलती व्यवस्था पहले से ही है. मसलन उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और केरल में राजधानी अलग शहर में है और हाई कोर्ट अलग शहर में. महाराष्ट्र का हाईकोर्ट भले ही इसकी राजधानी मुंबई में हो, लेकिन इसकी खंडपीठें नागपुर और औरंगाबाद में भी हैं. साल में एक तय समय के लिए महाराष्ट्र विधानसभा का सत्र नागपुर में भी चलता है और इसी तरह की व्यवस्था हिमाचल प्रदेश (शिमला और धर्मशाला), कर्नाटक (बेंगलुरु और बेलगाम), उत्तराखंड (देहरादून और गैरसेैंण) और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर (जम्मू और श्रीनगर) में भी है. आंध्र प्रदेश इसी सिलसिले को थोड़ा और आगे ले जाते हुए आधिकारिक रूप से तीन शहरों को राजधानी के रूप में विकसित कर रहा है.

इसमें शायद ही दो राय हो कि सरकार के कामों से जुड़ी गतिविधियों के इर्द-गिर्द विकास से जुड़ी दूसरी कवायदें भी पनपने लगती हैं जिनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था में तेजी आती है. यही तर्क देते हुए कई कहते हैं कि चार अलग-अलग राजधानियों से देश के कई हिस्सों को फायदा होगा जो अभी एक ही हिस्से तक सिमट कर रह जाता है. उनके मुताबिक सत्ता तंत्र के ज्यादा केंद्रीकरण का नुकसान यह होता है कि आर्थिक गतिविधियों और नतीजतन विकास का भी केंद्रीकरण होने लगता है जो क्षेत्रीय असंतुलन को जन्म देता है. यह हैरानी की बात नहीं है कि करीब ढाई करोड़ लोगों के बोझ से दिल्ली-एनसीआर का दम फूलने लगा है क्योंकि देश के कोने-कोने से लोग बेहतर अवसरों की चाह में यहां चले आते हैं.

कुछ लोगों को यह रणनीतिक लिहाज से भी जरूरी लगता है कि केंद्रीय सत्ता की सारी गतिविधियां एक ही जगह पर सिमटी न हों. उनका मानना है कि अगर वह जगह दुश्मन के किसी हमले की चपेट में आ जाए तो सारी व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है, इसलिए दक्षिण अफ्रीका की तरह यहां भी सरकार के अलग-अलग अंगों को अलग-अलग राजधानियों में रखने का विकल्प आजमाया जा सकता है. डॉ बीआर अंबेडकर भी यह मानते थे. उन्होंने लिखा था, ‘दिल्ली सुरक्षा के लिहाज से एक संवेदनशील जगह है क्योंकि यह पड़ोसी देशों के बहुत करीब है.’ बीआर अंबेडकर का मानना था कि दूसरी राजधानी हैदराबाद हो सकती है क्योंकि देश के किसी भी हिस्से से वहां आराम से पहुंचा जा सकता है.

2019 में हैदराबाद में जमीनों के दाम अचानक बढ़ गए थे. इसकी वजह यह चर्चा थी कि केंद्र सरकार इसे भारत की दूसरी राजधानी बना सकती है. भाजपा की तेलंगाना इकाई के मुखिया के लक्ष्मण ने तब कहा था कि इस प्रस्ताव पर चर्चा की जा सकती है. हालांकि राज्य में सत्ताधारी टीआरएस ने कहा था कि वह हैदराबाद को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के किसी भी प्रस्ताव का विरोध करेगी. इसके बाद भाजपा महासचिव के मुरलीधर राव का बयान आया था कि हैदराबाद तेलंगाना का अभिन्न हिस्सा है और इसे राजधानी बनाने की बात दुर्भावना से भरी कोशिश है. बाद में केंद्र सरकार ने भी कहा कि उसके सामने हैदराबाद को दूसरी राजधानी बनाने का कोई भी प्रस्ताव नहीं आया है.

इससे पहले 2018 में कर्नाटक ने बेंगलुरू को देश की दूसरी राजधानी बनाने की मांग की थी. राज्य की तत्कालीन जेडीएस-कांग्रेस सरकार में मंत्री आरवी देशपांडे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखकर कहा था कि भारत जैसे विशाल देश को एक ही जगह से नहीं संभाला जा सकता है और बेंगलुरू दूसरी राजधानी के लिए सबसे सुयोग्य है. कांग्रेस नेता ने अपनी मांग के पक्ष में बेंगुलुरू के सुहाने मौसम और दिल्ली से इसकी भौगौलिक दूरी जैसे तर्क दिए थे. आरवी देशपांडे का कहना था कि इससे कर्नाटक ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण भारत को फायदा होगा.

हालांकि एक से ज्यादा राजधानी की अवधारणा का विरोध करने वालों के भी अपने तर्क हैं. उनका कहना है कि दूसरी राजधानी बनाने का मतलब है वहां संसद सत्र से लेकर केंद्र सरकार की तमाम दूसरी गतिविधियों के लिए ढांचा विकसित करना जिस पर हजारों करोड़ रु खर्च होंगे. ऐसे लोगों के मुताबिक कोरोना वायरस के चलते सिकुड़ती अर्थव्यवस्था और नतीजतन घटते राजस्व के इस दौर में ऐसा करना समझदारी नहीं होगी. पूर्व आईपीएस अधिकारी अशोक धमीजा दो राजधानियों के विचार को सिर्फ भावनात्मक मसला बताते हुए कहते हैं कि यह अव्यावहारिक है. नागपुर में रह चुके धमीजा लिखते हैं, ‘व्यावहारिक रूप से देखें तो शायद ही इसकी कोई उपयोगिता हो. संबंधित लोगों को इससे काफी असुविधा होती है. शीत सत्र के दौरान एक महीने तक काम लगभग रुक जाता है क्योंकि दफ्तर नागपुर और मुंबई के बीच बंट जाते हैं. इससे न सिर्फ सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की कार्य उत्पादकता घटती है बल्कि पैसे, समय और ऊर्जा की बर्बादी भी होती है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘अधिकारियों की हवाई और रेल यात्रा का खर्च सरकार की जेब से जाता है और कुछ अधिकारी तो हर हफ्ते मुंबई और नागपुर आना-जाना करते हैं और इन कवायदों का कोई फायदा नहीं होता.’

अशोक धमीजा जैसे कई लोग हैं जो मानते हैं कि परिवहन और संचार के सर्वसुलभ साधनों ने उस भौगोलिक दूरी को पाट दिया है जिसका दो राजधानियों की बात करते हुए तर्क दिया जाता है. उनके मुताबिक भारत के किसी भी कोने से दूसरे कोने में अब कुछ ही घंटों में पहुंचा जा सकता है और डिजिटल क्रांति के इस दौर में तो अब कई बार पहुंचने की जरूरत भी नहीं होती क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जैसे तमाम काम भी अब ऑनलाइन होने लगे हैं. अशोक धमीजा लिखते हैं, ‘अगर हमारे दादा-परदादा ने राष्ट्रीय राजधानी के एक कोने में होते हुए भी जिंदगी गुजार दी तो हमारी अगली पीढ़ियों को भी इससे कोई दिक्कत नहीं होगी.’

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