कोरोना वायरस वैक्सीन

राजनीति | कोविड-19

भारत में कोविड वैक्सीन का सीन इतने अगर-मगर और सवालों से भरा हुआ क्यों है?

वैक्सीन उत्पादन और टीकाकरण अभियानों के मामले में भारत दुनिया में सबसे आगे है, तो फिर कोविड के टीके को लेकर दिक्कत कहां हो रही है?

विकास बहुगुणा | 29 अप्रैल 2021 | फोटो: पिक्साबे

‘डेढ़ सौ रुपये में जब वो केंद्र सरकार को दे रहे हैं तो उसमें भी उनको फायदा हो रहा है. तो अगर डेढ़ सौ रुपये में भी उनको फायदा है, उसमें नुकसान नहीं है तो चार सौ रुपये और छह सौ रुपये में तो बहुत ज्यादा फायदा है.’

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह बात 26 अप्रैल को एक महत्वपूर्ण घोषणा के दौरान कही. घोषणा यह थी कि एक मई से कोविड-19 से बचाव के लिए टीकाकरण कार्यक्रम का जो तीसरा चरण शुरू हो रहा है उसके तहत दिल्ली सरकार 18 साल से ज्यादा की उम्र वाले लोगों को मुफ्त में वैक्सीन देगी. पैसे वाली उनकी बात का संदर्भ कुछ ही दिन पहले आए सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) के बयान से जुड़ा था. इसमें कंपनी ने कहा था कि कोवीशील्ड को अब वह राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों को भी सप्लाई करेगी. कोवीशील्ड कोरोना वायरस से बचाव के लिए एस्ट्रा जेनेका और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा विकसित वैक्सीन है जिसके भारत में उत्पादन का लाइसेंस एसआईआई को मिला हुआ है. कंपनी ने राज्य सरकारों के लिए इसका दाम 400 और निजी अस्पतालों के लिए 600 रु रखा है. अभी तक एसआईआई देश में यह वैक्सीन केंद्र सरकार को ही दे रही थी थी और इसकी कीमत 150 रु रखी गई गई थी.

उधर, देश में ही विकसित कोवैक्सिन का उत्पादन कर रही भारत बायोटेक ने भी ऐलान किया है कि वह राज्य सरकारों को इसे 600 रु प्रति डोज के हिसाब से बेचेगी जबकि निजी अस्पतालों के लिए इसकी कीमत 1200 रु होगी. 24 अप्रैल को जारी एक बयान में कंपनी ने कहा कि उसके उत्पादन का 50 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा केंद्र सरकार को आपूर्ति के लिए रखा गया है जिसे वह 150 रु प्रति डोज के हिसाब से बेच रही है. भारत में अब तक करीब 14 करोड़ लोगों का टीकाकरण हो चुका है और इसमें लगभग नौ फीसदी लोगों को कोवैक्सिन लगाई गई है.

एक मई से देश में टीकाकरण अभियान का तीसरा चरण शुरू हो रहा है. इसके तहत 18 साल से ऊपर के सभी लोगों को भी अब वैक्सीन लगाई जा सकेगी. एसआईआई और भारत बायोटेक के नए ऐलानों का मतलब यह है कि अब दोनों वैक्सीन की कीमतें अलग-अलग संस्थाओं के लिए अलग-अलग होंगी. इसका एक मतलब यह भी है कि भारत में बनने के बावजूद देश की एक बड़ी आबादी के लिए इसकी कीमत दुनिया के किसी भी अन्य देश के मुकाबले अधिक होगी.

एसआईआई और भारत बायोटेक ने जो नई कीमतें तय की हैं उनके हिसाब से वैक्सीन के हर डोज के लिए पांच से 16 डॉलर तक की रकम वसूली जा रही है. उधर, एस्ट्रा जेनेका की कोवीशील्ड को सीधे कंपनी से ही खरीद रहे अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ को यह कहीं कम कीमत पर मिल रही है. प्रति डोज कीमत के हिसाब से देखें तो 27 देशों वाला यूरोपीय संघ वैक्सीन के लिए 2.15 से 3.50 डॉलर चुका रहा है. इस वैक्सीन को वह यूरोप में ही स्थित एस्ट्रा जेनेका की अलग-अलग इकाइयों से ले रहा है. उधर, ब्रिटेन के लिए यह आंकड़ा तीन डॉलर बताया जा रहा है. यहां ध्यान रखना जरूरी है कि ज्यादा उत्पादन लागत के चलते यूरोप में वैक्सीनों के दाम विकासशील देशों में बनने वाली वैक्सीनों के मुकाबले ज्यादा होते हैं. लेकिन कोवीशील्ड के मामले में उल्टा हो रहा है.

उधर, ब्राजील के बारे में कहा जा रहा है कि वह एस्ट्रा जेनेका की वैक्सीन के लिए 3.15 डॉलर प्रति डोज का भुगतान कर रहा है. ब्राजील में भी भारत की ही तर्ज पर यानी लाइसेंस्ड मैन्युफैक्चरिंग के जरिये कोवीशील्ड का उत्पादन हो रहा है. वहां यह काम एक सरकारी कंपनी कर रही है. न्यूज एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक बांग्लादेश एसआईआई को ही चार डॉलर प्रति डोज के हिसाब से भुगतान कर रहा है. कीमतों से जुड़ी जो जानकारियां सार्वजनिक हो रही हैं उनके आधार पर बने यूनिसेफ के कोविड वैक्सीन मार्केट डैशबोर्ड के मुताबिक नेपाल और मैक्सिको के लिए भी यह आंकड़ा इतना ही है. इनमें से ज्यादातर देशों में वैक्सीन मुफ्त में ही लगाई जा रही है. यानी भारत अब वैक्सीन के लिए इन सबसे ज्यादा रकम चुकाने जा रहा है. 

बताया जा रहा है कि मोदी सरकार ने एसआईआई के साथ बात करते हुए शुरुआत में कोवीशील्ड की कीमत 150 रु यानी करीब दो डॉलर प्रति डोज तय की थी. जीएसटी मिलाकर यह आंकड़ा करीब 2.02 डॉलर था. हालांकि एसएसआई के मुखिया अदार पूनावाला ने साफ कर दिया था कि यह रियायती दर है जो सिर्फ सरकार के लिए है और वह भी सीमित अवधि के लिए. छह अप्रैल को एनडीटीवी से बात करते हुए उनका कहना था, ‘ये हमने मोदी सरकार के अनुरोध पर किया है.’ उनका यह भी कहना था कि वे ‘प्रॉफिट’ तो कमा रहे हैं, लेकिन मौके की नजाकत और देश की जरूरत को देखते हुए उन्होंने अपने ‘सुपर प्रॉफिट’ का बलिदान कर दिया है जबकि इस पैसे की उन्हें जरूरत है ताकि वे इसे निवेश कर अपनी उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी कर सकें.

लेकिन 21 अप्रैल को सीएनबीसी टीवी-18 के साथ बात करते हुए अदार पूनावाला ने अलग ही बात कही. कीमतों में बढ़ोतरी को लेकर उन्होंने कहा कि यह जरूरी है क्योंकि कंपनी को नुकसान हो रहा है. उनका कहना था, ‘मुझे जो मिलता है उसका 50 फीसदी मुझे रॉयल्टी के तौर पर एस्ट्रा जेनेका को देना पड़ता है और यही वजह है कि 150 रु जैसी कीमत का वास्तव में कोई तुक नहीं बन रहा.’ अदार पूनावाला का यह भी दावा था कि दूसरे देशों के लिए कोवीशील्ड के दाम इसलिए कम हैं क्योंकि इन देशों ने काफी पहले तब इनके लिए पक्का मोलभाव कर लिया था जब किसी को पता नहीं था कि वैक्सीन सफल भी होगी या नहीं.

वजह जो भी हो, विपक्षी पार्टियां और कई राज्यों की सरकारें वैक्सीन के अलग-अलग दामों का विरोध कर रही हैं. इस सिलसिले में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना था, ‘मैं केंद्र को एक चिट्ठी लिखकर कहूंगी कि वो राज्यों और निजी अस्पतालों के लिए कीमत के इस फर्क को लेकर दखल दे. कीमतें अलग-अलग क्यों होनी चाहिए? क्या ये व्यापार करने का वक्त है? नहीं, ये लोगों की जान बचाने का वक्त है.’ तमिलनाडु में विपक्षी दल डीएमके के नेता एमके स्टालिन ने भी कहा कि अलग-अलग कीमतें रखना भेदभाव तो है ही, यह सबके लिए टीकाकरण सुनिश्चित करने के लक्ष्य के भी खिलाफ जाता है.

उधर, कांग्रेस का कहना है कि जब वैक्सीन भारत में ही बन रही है तो इसका दाम अमेरिका और ब्रिटेन से भी ज्यादा होने का कोई तुक नहीं है. एक ट्वीट में पार्टी नेता जयराम रमेश ने कहा, ‘कीमत पर फिर मोलभाव होना चाहिए.’ पार्टी के ही एक अन्य वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम का सुझाव है कि राज्यों को मिलकर इस मोलभाव के लिए एक समिति बनानी चाहिए जो वैक्सीन निर्माताओं से बात करे और एक उचित दाम तय करे. अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार से अपील की है कि अगर जरूरत पड़े तो कई दवाओं और चिकित्सीय उपकरणों की तरह वैक्सीन के दाम की भी एक सीमा तय कर दी जाए और मौजूदा हालात को देखते हुए यह 150 रु ही हो.

इस मुद्दे पर विवाद बढ़ने के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बीते शनिवार यानी 24 अप्रैल को एक ट्वीट किया. इसमें कहा गया कि कोविड-19 की दोनों वैक्सीनों के लिए भारत सरकार का खरीद मूल्य 150 रु प्रति डोज ही है और भारत सरकार जो वैक्सीन खरीद रही है वह राज्यों को मुफ्त में दी जाती रहेगी. इसके अलावा खबर यह भी है कि केंद्र सरकार ने एसआईआई और भारत बायोटेक से वैक्सीन की नई घोषित कीमतों में कमी करने को कहा है. इससे पहले, अदार पूनावाला ने एक बयान जारी कर वैक्सीन के दाम में बढ़ोतरी का बचाव किया था. बयान में कहा गया था, ‘कोविड-19 के इलाज और इसके लिए जरूरी चीजों की तुलना में वैक्सीन की कीमत अभी भी कम है.’

उधर, केंद्र सरकार के आश्वासन के बाद भी राज्यों की चिंता जारी है. जानकारों के मुताबिक इसकी वजह यह है कि केंद्र जिस तादाद में वैक्सीन की खरीद कर रहा है कि उससे राज्यों की कुल जरूरत के एक हिस्से की ही जरूरत पूरी होगी और आखिर में टीकाकरण का बड़ा बोझ उनकी जेब पर ही पड़ना है. अभी तक केंद्र सरकार एसएसआई और भारत बायोटेक से वैक्सीन खरीदकर राज्यों को बांट रही थी, लेकिन एक मई से यह खेप दो हिस्सों में बंट जाएगी. आधा हिस्सा केंद्र को जाएगा और बाकी आधा राज्यों और निजी अस्पतालों को. 

भारत की नई टीकाकरण नीति के मुताबिक केंद्र सरकार से आपूर्ति पाने वाले सभी टीकाकरण केंद्रों पर मुफ्त टीके की सुविधा होगी. ये टीके स्वास्थ्यकर्मियों, अग्रिम मोर्चे पर तैनात कर्मचारियों और 45 साल से ऊपर की उम्र वाले लोगों को लगेंगे. उधर, जो आधा कोटा राज्यों और निजी अस्पतालों के लिए तय किया गया है, उसका इस्तेमाल 18 साल से ऊपर के लोगों के टीकाकरण में किया जाएगा. अब यह राज्य सरकारों पर निर्भर करता है कि वे यह टीका मुफ्त में लगाती हैं कि इसका पैसा लेती हैं. जैसे दिल्ली ने यह काम मुफ्त में करने का ऐलान किया है. निजी अस्पताल 600 या 1200 रु में वैक्सीन लेंगे और इस लागत पर अपना मुनाफा जोड़कर आखिरी कीमत तय करेंगे जिसके लिए फिलहाल कोई नियम या सीमा नहीं है.

वैसे वैक्सीन के मोर्चे पर समस्या बस यही नहीं है. कई जानकार मानते हैं कि कोरोना वायरस की तीसरी लहर को रोकने के लिए यह जरूरी है कि देश की 75 फीसदी आबादी का टीकाकरण अगले तीन महीने के भीतर हो जाए. इसके लिए रोज दो करोड़ लोगों को टीका लगना जरूरी है. अभी यह आंकड़ा 40 लाख का है. यही रफ्तार रही तो विश्लेषकों के मुताबिक 75 फीसदी टीकाकरण का काम अगले साल की गर्मियों तक ही निपट पाएगा. और महाराष्ट्र सहित कई राज्य वैक्सीन की कमी की शिकायत कर रहे हैं.

सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है? भारत के पास दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान को चलाने का अनुभव है. वैक्सीन उत्पादन की क्षमता के मामले में वह अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है. यही नहीं, बीते साल के आखिर तक दुनिया भर में जो दर्जन भर वैक्सीन्स ट्रायल्स के अंतिम चरण में थीं उनमें से तीन भारत की झोली में थीं – कोवीशील्ड, कोवैक्सिन और जायकोव-डी. 

जानकारों का मानना है कि यहीं पर भारत के स्वास्थ्य योजनाकार चूक गए. 50 संगठनों के गठबंधन पीपल्स वैक्सीन अलाएंस के मुताबिक दुनिया की आबादी में सिर्फ 14 फीसदी का हिस्सा रखने वाले अमीर देशों ने कोवीशील्ड जैसी उन वैक्सीन्स के करीब 53 फीसदी स्टॉक का एडवांस ऑर्डर दे दिया जिनके कामयाब होने की सबसे ज्यादा संभावना दिख रही थी. उदाहरण के लिए अमेरिकी सरकार ने फाइजर को लगभग दो अरब डॉलर देकर उसकी वैक्सीन के 10 करोड़ डोज की खरीद का करार कर लिया. इसमें यह प्रावधान भी शामिल था कि अगर वैक्सीन कामयाब रही तो 50 करोड़ डोज और खरीदे जाएंगे. आज अमेरिका के पास अपनी करीब 33 करोड़ की आबादी के लिए वैक्सीन के पर्याप्त डोज हैं.

उधर, इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत ने एसआईआई और भारत बायोटेक, दोनों को जो ऑर्डर दिया वह देश की जरूरत के हिसाब से काफी कम था. यह ऑर्डर करीब 11 करोड़ डोज का ही था. जानकारों के मुताबिक कम डोज खरीदने के पीछे सरकार की योजना यह थी कि पहले उस वर्ग का टीकाकरण किया जाएगा जो सबसे ज्यादा जोखिम में है. यानी स्वास्थ्यकर्मियों, कोरोना से जंग के अग्रिम मोर्चे पर तैनात दूसरे कर्मचारियों और 65 साल से ऊपर की उम्र वालों का. लेकिन पर्याप्त जागरूकता न हो पाने से से लोगों में वैक्सीन के प्रति हिचक दिखी. इसका परिणाम यह हुआ कि टीकाकरण अभियान के शुरुआती छह हफ्तों में लक्षित समूह के सिर्फ 40 फीसदी हिस्से को ही वैक्सीन लग सकी. यहां तक खबरें आईं कि वैक्सीन की कई वायल्स बेकार हो गईं.

कई मानते हैं कि कि कोवैक्सिन के मोर्चे पर सरकार ने अलग तरह की सुस्ती दिखाई और वह देश में ही विकसित इस वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाने में नाकामयाब रही. भारत बायोटेक के पास चार प्लांट हैं जो हैदराबाद और बेंगलुरू में हैं. कंपनी इनके जरिये हर महीने एक करोड़ 25 लाख डोज का उत्पादन कर सकती है. लेकिन अभी यह आंकड़ा 40 से 50 लाख ही है. यानी नवंबर से उत्पादन शुरू होने के बाद से इसने अभी तक ज्यादा से ज्यादा तीन करोड़ डोज ही बनाए होंगे. जानकारों के मुताबिक चूंकि कोवैक्सिन को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के साथ मिलकर विकसित किया गया था तो इसके उत्पादन का लाइसेंस देश में वैक्सीन उत्पादक दूसरी कंपनियों को भी दिया जा सकता था. इस तरह कोवैक्सिन का उत्पादन काफी बढ़ाया जा सकता था. लेकिन पता नहीं सरकार ने ऐसा क्यों नहीं किया. उधर, एसएसआई सरकार को एक सीमा से ज्यादा वैक्सीन नहीं दे सकती थी क्योंकि उसने भारत से बाहर से भी एडवांस ऑर्डर ले रखे थे.

जो काम केंद्र सरकार को करना चाहिए था वह रूसी वैक्सीन स्पूतनिक फाइव के निर्माताओं ने किया. इस वैक्सीन की मार्केटिंग कर रही रूस की ही संस्था आरडीआईएफ ने भारत में इसकी मंजूरी मिलते ही छह भारतीय कंपनियों के साथ उत्पादन का करार कर लिया. माना जा रहा है कि कंपनी जल्द ही एक महीने में साढ़े आठ करोड़ डोज बनाने लगेगी. इंडिया टुडे से बातचीत में जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ मालिनी असोला कहती हैं, ‘यही वह पैमाना है जिसके बूते हम व्यापक टीकाकरण कर सकते थे. भारत में हमारे पास हर साल दो अरब डोज उत्पादन की क्षमता है. हमने इस क्षमता का इस्तेमाल क्यों नहीं किया? हमने कोवैक्सिन के उत्पादन के लिए इकाइयों का विस्तार क्यों नहीं किया?’

कई विश्लेषक मानते हैं कि भारत ने विदेशी वैक्सीनों को मंजूरी देने में भी देर की गई. जैसे कोवीशील्ड और कोवैक्सिन को जनवरी में हरी झंडी मिल गई थी. लेकिन इसके बाद स्पूतनिक फाइव को मंजूरी मिलने में तीन और महीने लग गए. माना जाता है कि इस देरी के चलते ही फाइजर ने अपनी वैक्सीन के भारत में इस्तेमाल से जुड़ा अपना आवेदन वापस ले लिया. जानकारों के मुताबिक अगर ऐसा न होता तो देश में टीकाकरण की रफ्तार कहीं ज्यादा होती. अब बीती 16 अप्रैल को ही केंद्र सरकार ने इस सिलसिले में नए दिशानिर्देश जारी किए हैं जिनमें कहा गया है कि विदेशी वैक्सीनों को आवेदन मिलने के तीन दिन के भीतर ही मंजूरी दे दी जाएगी. लेकिन सवाल यह है कि इसके लिए कोरोना वायरस की दूसरी लहर के चरम पर पहुंचने का इंतजार क्यों किया गया!

कई जानकारों को यह भी समझ में नहीं आ रहा कि भारत ने ठीक उसी समय वैक्सीन मैत्री कार्यक्रम क्यों शुरू किया जब देश में टीकाकरण अभियान शुरू ही हुआ था. उनके मुताबिक इस मामले में देश की जरूरत का ठीक से अनुमान नहीं लगाया गया. जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार सुहासिनी हैदर अपने एक लेख में लिखती हैं, ‘दक्षिण एशिया में यानी पड़ोस में वैक्सीन भेजने की बात तो बिल्कुल ठीक है क्योंकि पड़ोस में महामारी का असर भारत पर भी जरूर पड़ेगा. लेकिन आलोचना इस बात की है कि उन देशों को भी वैक्सीन भेजी गई जो बहुत दूर थे, जबकि यह कोटा भारत में इस्तेमाल किया जा सकता था.’ कई दूसरे जानकार भी मानते हैं कि सीरिया या अल्बानिया जैसे देशों में इस समय वैक्सीन भेजने का कोई तुक नहीं था. बीते तीन महीने के दौरान भारत ने 6.6 करोड़ डोज बाहर भेजे जबकि 13 करोड़ यहां इस्तेमाल हुए. सुहासिनी हैदर के मुताबिक जो डोज बाहर गए उनसे देश की एक बड़ी जरूरत पूरी की जा सकती थी. वे लिखती हैं, ‘इसका एक मतलब यह भी है कि अब जब सरकार ने एक मई से 18 साल से ऊपर हर उम्र के शख्स को टीका लगाने की अनुमति दे दी है तो वैक्सीन का निर्यात करने वाले भारत को अब इसका आयात करने की जरूरत पड़ेगी.’

हालांकि इस तरह की आलोचना पर सरकार का अपना तर्क है. तर्क यह है कि अगर हम दूसरों की मदद नहीं करेंगे तो उनसे मदद किस मुंह से मांगेंगे. जैसा कि विदेश मंत्री एस जयशंकर का कहना था, ‘अगर आप कहेंगे कि निर्यात हो ही क्यों रहा है तो कोई और भी कहने लगेगा कि मैं भी भारत को क्यों निर्यात करूं. और ये बहुत छोटी सोच है. इस तरह का तर्क सिर्फ बेहद गैर जिम्मेदार और अगंभीर लोग ही देंगे.’

हालांकि कई मानते हैं कि विदेश मंत्री का यह तर्क भी गले नहीं उतरता. उनके मुताबिक भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है और अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा मरीज भी यहीं हैं. तो इस तरह अगर वह अपने नागरिकों की मदद करता है तो यह भी दुनिया से महामारी का बड़ा बोझ कम करने में उसका अहम योगदान होगा. अमेरिका का ही उदाहरण लें. जब अमेरिकी विदेश विभाग से पूछा गया कि वह वैक्सीन उत्पादन में लगने वाले कच्चे माल और अतिरिक्त वैक्सीन्स के निर्यात के लिए हरी झंडी क्यों नहीं दे रहा तो उसका जवाब था कि अमेरिकियों का टीकाकरण न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया के हित में है. यही अमेरिका अपनी 50 फीसदी से ज्यादा आबादी का टीकाकरण कर चुका है. जानकारों के मुताबिक भारत भी यह तर्क दे सकता था.

भारत वैक्सीनें विकसित करने के लिए फंडिंग के मामले में भी काफी पीछे रहा. अमेरिका ने बीते साल अक्टूबर में संभावित वैक्सीनों के विकास की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए 18 अरब डॉलर का बजट बनाया था. इस अभियान को ऑपरेशन वार्प स्पीड नाम दिया गया था. द यूएस बायोमेडिकल एडवांस्ड रिसर्च एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी ने एस्ट्रा जेनेका को वैक्सीन विकसित करने के लिए एक अरब डॉलर से भी ज्यादा का फंड दिया. इसी तरह ब्रिटिश सरकार ने भी वैक्सीन विकसित करने के लिए करीब 1.7 अरब डॉलर खर्च किए. इसमें 82.6 करोड़ डॉलर की वह रकम भी शामिल है जो वैक्सीन की खोज के साझा वैश्विक अभियान को दी गई. उधर, भारत को देखें तो बीते साल नवंबर में केंद्र ने मिशन कोविड सुरक्षा के लिए 900 करोड़ रु (करीब 12 करोड़ डॉलर) देने का ऐलान किया था जिसका मकसद संभावित वैक्सीनों के विकास की प्रक्रिया में तेजी लाना था.

बहरहाल, ताजा खबर यह है कि एक मई से होने वाले वैक्सीनेशन के तीसरे चरण को लेकर चार राज्यों की सरकारों ने हाथ खड़े कर दिए हैं. केरल, पंजाब, राजस्थान, छतीसगढ़ और झारखंड सरकार का कहना है कि उनके पास वैक्सीन की कमी है और इसलिए इस चरण का उनके लिए कोई मतलब नहीं है. राजस्थान के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा के मुताबिक उन्होंने वैक्सीन खरीदने के लिए एसएसआई से बात की थी. उनके मुताबिक उन्हें बताया गया कि केंद्र सरकार ने वैक्सीन के जो ऑर्डर दिए हैं उन्हें पूरा करने में 15 मई तक का समय लग सकता है और इससे पहले राजस्थान को वैक्सीन नहीं दी जा सकती. झारखंड के स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता ने भी कुछ ऐसी ही बात कही है.

कुल मिलाकर वैक्सीन की यह दुखद कथा जारी है.

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