ऑक्सीजन

राजनीति | कोविड-19

क्यों ऑक्सीजन का संकट उससे कहीं ज्यादा गंभीर है जितना सरकार मान रही है

अगर समय पर 2000 करोड़ रुपये खर्च किये जाते तो आज देश के अस्पतालों को मौके पर ही, बिना झंझट के डेढ़ हजार टन ऑक्सीजन मिल सकती थी

अरुणाभ सैकिया | 24 अप्रैल 2021 | फोटो: पिक्साबे

दिल्ली के जयपुर गोल्डन अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से 25 मरीजों की मौत की खबर है. इससे पहले 22 अप्रैल को भारत की राजधानी दिल्ली के लगभग सभी बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन खत्म होने के कगार पर पहुंच गई थी. इसके बाद से लगातार यही सुनने को मिल रहा है. और यह स्थिति सिर्फ दिल्ली में नहीं है. पूरे देश से ऑक्सीजन के संकट और इसके चलते मरीजों के परेशान होने की खबरें आ रही हैं. इससे पहले, महाराष्ट्र में ऑक्सीजन लीक हो जाने से 22 मरीजों की मौत हो गई थी.

इस सबके बीच राज्य एक-दूसरे पर ऑक्सीजन ब्लॉक करने का आरोप लगा रहे हैं. बुधवार यानी 21 अप्रैल को देर रात तक दिल्ली हाई कोर्ट में चली एक नाटकीय सुनवाई के दौरान राजधानी के एक बड़े अस्पताल ने गुहार लगाई कि उसके पास सिर्फ दो घंटे की ऑक्सीजन बची है. इसके बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि ऑक्सीजन के टैंकरों को सुरक्षित तरीके से राजधानी पहुंचाने के लिए अर्धसैनिक बलों को तैनात करे.

सवाल उठता है कि भारत में ऑक्सीजन का यह संकट इतना गंभीर कैसे हो गया? ज्यादा नहीं, हफ्ते भर पहले ही केंद्र सरकार दावा कर रही थी कि भारत में रोज चिकित्सा क्षेत्र के लिए जितनी ऑक्सीजन बन रही है उसका 60 फीसदी से भी कम इस्तेमाल हो रहा है. 15 अप्रैल को स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा था, ‘देश में रोज 7127 मीट्रिक टन ऑक्सीजन उत्पादन की क्षमता है. 12 अप्रैल 2021 को देश में मेडिकल सुविधाओं के लिए इस्तेमाल होने वाली ऑक्सीजन का आंकड़ा 3842 मीट्रिक टन था. यानी रोज की कुल उत्पादन क्षमता का 54 फीसदी.’ इतना ही नहीं, मंत्रालय ने यह दावा भी किया था कि 50 हजार मीट्रिक टन से भी ज्यादा ऑक्सीजन का भंडार अलग से रखा हुआ है.

फिर ऐसा क्यों है कि अस्पतालों से लेकर राज्य सरकारें तक सभी हताशा के साथ केंद्र से ऑक्सीजन के लिए गुहार लगा रहे हैं?

पहली बात तो यह है कि इस मामले को मांग और आपूर्ति के बीच के फर्क जैसे सरल तरीके से नहीं समझा जा सकता है. ऑक्सीजन की वास्तविक उपलब्धता का मामला थोड़ा जटिल है. भारत के पास रोज 7127 मीट्रिक टन ऑक्सीजन के उत्पादन की क्षमता है. इसका एक बड़ा हिस्सा उन ‘क्रायोजेनिक एयर सेपेरेटर यूनिट्स’ में बनता है जो ऊंची शुद्धता वाली ऑक्सीजन का उत्पादन करती हैं. इन प्लांट्स के पीछे का विज्ञान सीधा सा है. इसमें साधारण हवा को इस तरह ठंडा किया जाता है कि इसके दो मुख्य घटक, नाइट्रोजन और ऑक्सीजन अलग-अलग हो जाते हैं. हालांकि सारी ऑक्सीजन सिर्फ चिकित्सा क्षेत्र के लिए नहीं होती. इसका एक बड़ा हिस्सा औद्योगिक इकाइयों में इस्तेमाल के लिए अलग कर लिया जाता है.

18 अप्रैल को केंद्र सरकार ने आदेश दिया कि ऑक्सीजन उत्पादक सिर्फ चिकित्सा क्षेत्र के लिए ही ऑक्सीजन की आपूर्ति करेंगे. हालांकि स्टील प्लांट्स और पेट्रोलियम रिफाइनरीज जैसे उन नौ उद्योगों को इस आदेश से छूट दे दी गई जहां भट्टियों में ऑक्सीजन की लगातार आपूर्ति जरूरी है. नाम गोपनीय रखने की शर्त पर पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव्स सेफ्टी ऑर्गेनाइजेशन के एक अधिकारी बताते हैं कि ये नौ उद्योग रोज करीब ढाई हजार मीट्रिक टन ऑक्सीजन की खपत करते हैं. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत आने वाली यह संस्था देश में ऑक्सीजन के वितरण पर नजर रखती है.

इसके बाद देखा जाए तो स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए हमारे पास करीब 4600 मीट्रिक टन ऑक्सीजन बचती है. हमने इस आंकड़े की पुष्टि के लिए मंत्रालय को एक ईमेल भेजी थी, लेकिन अभी तक इसका कोई जवाब नहीं आया है.

अगर यह आंकड़ा सही है तो जमीनी तस्वीर भयावह है. 12 अप्रैल को जब केंद्र सरकार यह कह रही थी कि चिकित्सा क्षेत्र में भारत की ऑक्सीजन की जरूरत रोजाना 3842 मीट्रिक टन की है तब देश में कोरोना वायरस के करीब 12 लाख 64 हजार सक्रिय मामले थे. अब यह संख्या 25 लाख से ऊपर पहुंच गई है. 21 अप्रैल को केंद्र सरकार के एक अधिकारी ने दिल्ली हाई कोर्ट को बताया था कि अब देश में इतने मरीज हैं कि रोज आठ हजार मीट्रिक टन ऑक्सीजन चाहिए होगी.

तब से स्थिति और बिगड़ी ही है और इसलिए यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि इस समय चिकित्सा क्षेत्र के लिए ऑक्सीजन का जितना कोटा रखा गया है, वह जरूरत का लगभग आधा ही है. मांग और आपूर्ति के इस असंतुलन को दूर करने के लिए अगर 50 हजार मीट्रिक टन के सुरक्षित यानी रिजर्व भंडार को भी काम में ले लिया जाए तो भी माना जा रहा है कि स्थिति करीब दो हफ्ते तक ही संभली रहेगी. वह भी तब जब संक्रमण के मामलों की संख्या बढ़े नहीं.

बीते बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वह औद्योगिक इस्तेमाल के लिए ऑक्सीजन का इस्तेमाल पूरी तरह से रोक दे और इसका सारा कोटा चिकित्सा क्षेत्र के लिए तय कर दे. हालांकि अदालत ने इस सिलसिले में कोई आदेश जारी नहीं किया. इसके एक दिन बाद ही प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बयान जारी कर कहा, ‘निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के इस्पात संयंत्रों, उद्योगों और ऑक्सीजन उत्पादकों के सहयोग और कुछ गैर-जरूरी उद्योगों के लिए आपूर्ति पर प्रतिबंध के जरिये बीते कुछ दिनों में देश में लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन की उपलब्धता में 3300 मीट्रिक टन प्रति दिन की बढ़ोतरी की गई है.’

इसमें आगे कहा गया, ‘इस समय 20 राज्यों से लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन की 6785 मीट्रिक टन प्रति दिन की मांग को देखते हुए भारत सरकार ने 21 अप्रैल से इन राज्यों को 6822 मीट्रिक टन प्रति दिन के हिसाब से आवंटन किया है.’ इस बयान में सभी 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से आ रही कुल मांग से संबंधित कोई आंकड़ा नहीं था.

इसके बाद से बड़े कॉरपोरेट समूहों द्वारा इस तरह के ऐलानों की झड़ी लग गई है जिनमें कहा जा रहा है कि उन्होंने अपने औद्योगिक संयंत्रों से ऑक्सीजन को चिकित्सीय उपयोग के लिए डायवर्ट कर दिया है. लेकिन 7127 मीट्रिक टन की देश की रोजाना ऑक्सीजन उत्पादन की पूरी क्षमता भी कोरोना से लड़ने में लगा दी जाए तो भी इसके कम पड़ने की आशंका है क्योंकि मेडिकल ऑक्सीजन की मांग अभी ही आठ हजार मीट्रिक टन प्रति दिन है. ऐसी हालत में 50 हजार मीट्रिक टन का रिजर्व भंडार काम में लाकर दो महीने तक स्थिति संभाली जा सकती है, वह भी तब जब इसका पूरा इस्तेमाल चिकित्सा क्षेत्र के लिए किया जाए और मांग इतनी ही रहे.

लेकिन जिस रफ्तार से कोरोना वायरस संक्रमण के मामले बढ़ते जा रहे हैं उसे देखते हुए मांग का बढ़ना तय है. कई बड़े राज्यों में रीप्रोडक्शन नंबर यानी लोगों की वह औसत संख्या जिसे एक मरीज संक्रमित कर सकता है, दो से ज्यादा है. यही वजह है कि विशेषज्ञों के मुताबिक आने वाले कुछ हफ्तों में कोरोना वायरस संक्रमण के मामलों की सूनामी आ सकती है.

बीती 21 अप्रैल को सरकार ने 50 हजार मीट्रिक टन ऑक्सीजन का बंदोबस्त करने के लिए एक इमरजेंसी इंपोर्ट टेंडर जारी किया. लेकिन अभी यह साफ नहीं है कि यह ऑक्सीजन देश में कब तक आएगी. अभी ऑक्सीजन की मांग कितनी है और यह कितनी बढ़ सकती है और रिजर्व भंडार कब तक चलेगा, यह जानने के लिए स्वास्थ्य और वाणिज्य, दोनों मंत्रालयों को एक ईमेल भेजी गई थी जिसका जवाब अब तक नहीं आया है.

लॉजिस्टिक्स की समस्या

भारत के ऑक्सीजन संकट का संबंध सिर्फ मांग और आपूर्ति की बढ़ती खाई से नहीं है. अगर सरकार देश में बन रही सारी ऑक्सीजन चिकित्सा क्षेत्र को दे दे और कोरोना वायरस के मामले आने वाले हफ्तों में न भी बढ़ें, तो भी देश के सामने ऑक्सीजन को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने और उसे स्टोर करने की बड़ी समस्या है.

ऐसा इसलिए कि ऑक्सीजन उत्पादन के जो संयंत्र हैं उनका वितरण काफी असमान है. सरकार के रिकॉर्ड बताते हैं कि दिल्ली, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे उत्तर और मध्य भारत के जिन राज्यों में कोविड-19 के मामले बहुत ज्यादा हैं वे ऑक्सीजन उत्पादन की क्षमता के मामले में बहुत पीछे हैं. अप्रैल 2020 तक के आधिकारिक आंकड़ों का अध्ययन किया जाए तो ऑक्सीजन उत्पादन में जिन आठ राज्यों की करीब 80 फीसदी हिस्सेदारी है वे हैं महाराष्ट्र, गुजरात, झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल.

अप्रैल 2020 को बीते एक साल हो चुका है और नाम गोपनीय रखने की शर्त पर कुछ अधिकारी बताते हैं कि तब से भारत ने ऑक्सीजन उत्पादन की अपनी क्षमता में करीब 20 फीसदी की बढ़ोतरी की है. यह काफी हद तक मौजूदा संयंत्रों में ही उत्पादन को बढ़ाकर किया गया है. इसके अलावा पश्चिमी भारत में बंद पड़े कुछ संयंत्रों को भी फिर चालू किया गया है.

लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने की भी अपनी चुनौतियां हैं. इसके लिए खास क्रायोजेनिक टैंकर चाहिए जो अभी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं. इसका मतलब यह है कि पूर्वी भारत में स्थित जो स्टील कंपनियां अपने इस्तेमाल के लिए ऑक्सीजन बनाती हैं उन्हें इस गैस को दूसरे राज्यों तक पहुंचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.

इसे ओडिशा के उदाहरण से समझते हैं जो ऑक्सीजन का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले राज्यों की सूची में चौथे स्थान पर है. यहां कोविड-19 के मामले अपेक्षाकृत कम हैं और फिलहाल 12 राज्यों की ऑक्सीजन की मांग इस राज्य से ज्यादा है. ओडिशा में ऑक्सीजन आपूर्ति के नोडल अधिकारी रुआब अली कहते हैं, ‘लेकिन समस्या यह है कि अपनी मांग पूरी करने के बाद बची हुई ऑक्सीजन को बाहर भेजने के लिए हमारे पास पर्याप्त टैंकर नहीं हैं.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘इसलिए अब सरकार नाइट्रोजन और आर्गन जैसी गैसें ले जाने वाले टैंकरों को ऑक्सीजन टैंकरों में कन्वर्ट कर रही है.’

कारोबार जगत के लोग भी इससे सहमति जताते हैं. नाम न छापने की शर्त पर क्रायोजेनिक टैंकरों के एक निर्माणकर्ता कहते हैं, ‘बात ये है कि ऑक्सीजन प्लांट से पेशेंट के मास्क तक पहुंचानी है. आम तौर पर ऑक्सीजन की रोजाना जरूरत तीन से चार सौ मीट्रिक टन तक सीमित रहती है इसलिए हमारा इन्फ्रास्ट्रक्चर भी उसी हिसाब का है. लेकिन अचानक ही डिमांड बहुत ज्यादा हो गई है.’ इन्फ्रास्ट्रक्चर रातों-रात नहीं बन सकता. टैंकर बनाने में एक तय समय लगता ही है.’

स्टोरेज की समस्या

चुनौती लाने-ले जाने की ही नहीं है. ऑक्सीजन के किसी जगह पहुंचने के बाद उसका भंडारण यानी स्टोरेज भी करना होता है. यह काम क्रायोजेनिक वेसेल्स या सिलिंडर के जरिये किया जाता है. मौजूदा हालात में इन दोनों चीजों की भी कमी पड़ती जा रही है क्योंकि उत्पादकों को कहना है कि इतनी ज्यादा मांग के लिए वे तैयार ही नहीं थे.

इस तरह के सिलिंडर्स के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक मुंबई स्थित एवरेस्ट कैंटो सिलिंडर्स के पुनीत खुराना कहते हैं, ‘रोज 10 हजार सिलिंडर्स की डिमांड है, लेकिन हम दो हजार ही बना पा रहे हैं. पिछले साल सरकार ने हमसे बात की थी और अनुमानित जरूरत बताई थी, लेकिन इस बार कोई योजना नहीं बन पाई क्योंकि सब कुछ इतना अचानक हो गया. यही वजह है कि इतनी कमी पड़ गई है.’

दूसरे उत्पादक भी यही बात कहते हैं. यूरो इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के प्रवीण नंदू बताते हैं, ‘सिलिंडर्स का प्रोडक्शन मांग को भांपकर होता है. लेकिन फरवरी-मार्च में हमने प्रोडक्शन कम कर दिया था क्योंकि ऐसा लग रहा था कि कोविड चला गया और कोई मांग भी नहीं थी. इसलिए अब हम इतनी ज्यादा मांग के हिसाब से उत्पादन नहीं बढ़ा पा रहे क्योंकि प्रोडक्शन साइकल लंबा होता है और कच्चा माल जुटाने में वक्त लगता है.’

अस्पताल लिक्विड ऑक्सीजन को स्टोर करने के लिए क्रायोजेनिक टैंकों का इस्तेमाल करते हैं. इनके उत्पादक भी यही बात दोहराते हैं. क्रायोजेनिक वेसेल बनाने वाली पुणे स्थित कंपनी शेल-एन-ट्यूब के मुंजाल मेहता कहते हैं, ‘हमारी क्षमता सामान्य मांग के हिसाब से होती है. इसलिए अगर यह मांग अचानक दस गुना ज्यादा हो जाए तो हम इसमें कुछ नहीं कर सकते. ऐसी स्थितियों के लिए समाधान यह है कि धीरे-धीरे अस्पताल ही अपना बुनियादी ढांचा बढ़ाएं क्योंकि उत्पादकों के पास वह क्षमता नहीं हो सकती जो दस गुना बढ़ी मांग की पूर्ति कर सके.’

उपायों की उपेक्षा

लेकिन सरकार अस्पतालों के बुनियादी ढांचे में बढ़ोतरी करने में विफल रही जैसा कि स्क्रोन.इन की एक पड़ताल बताती है. अगर बीते एक साल के दौरान युद्ध स्तर पर काम करते हुए अस्पतालों के भीतर ही छोटे ऑक्सीजन प्लांट लगा दिए जाते इस गैस का मौजूदा संकट कुछ हद तक कम किया जा सकता था.

इस कारोबार के जानकार और सरकार के अधिकारी भी कहते हैं कि किसी अस्पताल में प्रेशर स्विंग अब्जॉर्प्शन (पीएसए) ऑक्सीजन जेनरेटर इंस्टाल करने में सिर्फ चार से छह हफ्ते लगते हैं. केंद्र द्वारा 162 ऑक्सीजन प्लांट्स के लिए जारी की गई 201 करोड़ रु की रकम के हिसाब से देखें तो ऐसे हर प्लांट की औसत कीमत सिर्फ सवा करोड़ रु बैठती है. पीएसए प्लांट बनाने वाली तमिलनाडु स्थित एक कंपनी के मुखिया कहते हैं कि देश के पास ऐसे प्लांट बनाने का छह साल का अनुभव है.

लेकिन हमारी पड़ताल बताती है कि पहले तो इसके लिए टेंडर जारी करने में ही केंद्र सरकार ने आठ महीने लगा दिए और इसके छह महीने बाद भी स्थिति यह थी कि जिन 60 अस्पतालों को फोन करके जानकारी ली गई उनमें से सिर्फ पांच में ही ये प्लांट काम कर रहे थे. यह पड़ताल प्रकाशित होने के कुछ घंटे बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने माना कि उसने 162 पीएसए प्लांट्स को मंजूरी दी थी, लेकिन इनमें से अब तक 33 ही जमीन पर उतर पाए हैं.

देखा जाए तो इन 162 प्लांट्स से रोज उपलब्ध ऑक्सीजन की मात्रा में सिर्फ 154 मीट्रिक टन का फर्क पड़ता. लेकिन यह सवाल तो बनता ही है कि यह संख्या 10 गुना बढ़ाने से सरकार को कौन रोक रहा था, वह भी तब जब अस्पतालों में ऑक्सीजन कोविड-19 ही नहीं दूसरी तमाम मेडिकल एमरजेंसीज से निपटने के लिए भी उतनी ही जरूरी होती है. 2000 करोड़ रु के आवंटन से देश को आज 1540 मीट्रिक टन अतिरिक्त ऑक्सीजन मिल रही होती. इससे भी अहम बात यह है कि यह ऑक्सीजन मौके पर ही उपलब्ध होती और इसे लाने-ले जाने या स्टोर करने का झंझट भी नहीं होता. खास कर दिल्ली, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे उन राज्यों के लिए तो यह स्थिति वरदान जैसी होती जो ऑक्सीजन उत्पादन के मामले में बहुत पीछे हैं.


यह रिपोर्ट स्क्रोल.इन पर प्रकाशित हो चुकी है.

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