राहुल और प्रियंका गांधी

राजनीति | कांग्रेस

क्यों गांधी परिवार को अब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ही नहीं, बल्कि पार्टी भी छोड़ देनी चाहिए

कांग्रेस में गांधी परिवार के शीर्ष पर होने से भाजपा को कई तरह के फायदे होते हैं

रामचंद्र गुहा | 13 दिसंबर 2020 | फोटो : कांग्रेस / फेसबुक

कांग्रेस की समस्या क्या है और क्यों अपने मौजूदा नेतृत्व के साथ पार्टी खुद को भाजपा का प्रभावी और विश्वसनीय विकल्प नहीं बना सकती, यह हिंदुस्तान टाइम्स की एक हालिया खबर का शीर्षक सटीकता से बयां करता है. इसका हिंदी रूपातंरण यह है कि किसानों के आंदोलन और कोविड-19 को देखते हुए सोनिया गांधी इस साल अपना जन्मदिन नहीं मनाएंगी.

इस ऐलान में दंभ का चरम दिखता है. क्या गांधी परिवार कोई राजपरिवार है जो उसने जन्मदिन का एक समारोह रद्द कर दिया तो इससे यह समझा जाए कि वह अपनी प्रजा की तकलीफ समझता है?

अब इन तथ्यों पर एक नजर डालें. भारतीय जनता पार्टी में जो तीन सबसे शक्तिशाली हस्तियां हैं वे हैं नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा. उनमें दूर-दूर तक कोई रिश्तेदारी नहीं है. वे अलग-अलग परिवारों में पैदा हुए और आज भी अलग-अलग घरों में रहते हैं. उनके परिवार में कोई ऐसा नहीं है जो इससे पहले राज्य की या राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रहा हो. पेशेवर लिहाज से देखें तो नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा पूरी तरह से ‘सेल्फ मेड’ हैं. वे जहां भी पहुंचे हैं, अपने प्रयासों से पहुंचे हैं.

उधर, कांग्रेस में जो तीन सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं वे सभी गांधी हैं. सोनिया गांधी और उनकी संतानें राहुल और प्रियंका गांधी. यानी वे एक ही परिवार से हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी का ज्यादातर वक्त एक ही घर में गुजारा है. सभी राजनीति में इसलिए दाखिल हुए कि परिवार के किसी दूसरे सदस्य ने सत्ता संभाली थी और उनसे इस सत्ता का उत्तराधिकारी बनने की उम्मीदें लगाई गई थीं. (मां कांग्रेस में एक पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी के तौर पर शामिल हुईं, बच्चे पार्टी में इसलिए आए क्योंकि उनके माता-पिता पार्टी के अध्यक्ष रहे थे.) पेशेवर लिहाज से देखें तो तीनों के तीनों गांधी उन लोगों के वर्ग में आते हैं जिन्हें कुछ विशेष अधिकार मिलते हैं. वे जिस जगह पर हैं उसके पीछे उनके गांधी नाम का योगदान है.

मोदी, शाह और नड्डा को उनकी राजनीतिक विचारधारा एकजुट करती है, यानी हिंदुत्व. अपनी पार्टी और विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता उनके व्यक्तिगत और पारिवारिक हितों से आगे जाती है. यह उन्हें कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित करती है ताकि वे जीत और इतनी ताकत हासिल कर सकें जिससे सिर्फ हिंदुओं के हितों के लिए चलने वाली एक राज्य व्यवस्था का निर्माण हो सके.

दूसरी तरफ यह समझना मुश्किल है कि गांधी, गांधी और गांधी के राजनीतिक करियर को आपस में जोड़ने वाला साझा वैचारिक धागा क्या है. सोनिया और राहुल एक दिन धर्मनिरपेक्षता का दम भरते हैं और दूसरे दिन खुद को नरम हिंदुत्ववादी दिखाने लगते हैं. कभी वे मुक्त बाजार संबंधी उन सुधारों का श्रेय लेते हैं जो अतीत की कांग्रेस सरकारों ने किए तो कभी वे कारोबारियों पर कटाक्ष करने लगते हैं. प्रियंका गांधी को राजनीति में आए अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है और उन्होंने फिलहाल प्रमुख नीतिगत मुद्दों पर अपने विचार सार्वजनिक नहीं किए हैं. शायद गांधी परिवार को उसका यही साझा विश्वास एकजुट करता है कि उन्हें कांग्रेस पर (और भारत पर भी) शासन करने का दिव्य अधिकार मिला हुआ है.

भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से तीन बुनियादी बातों में अलग है: पहला, वह जिस जगह पर है अपनी मेहनत से है. दूसरा, परिवार के विशेषाधिकार के बजाय उसके पास एक विचारधारा है जो उसे प्रेरित करती है. तीसरा, वह कड़ी मेहनत करता है. इसे एक उदाहरण से ही समझ लें. हाल में बिहार विधानसभा चुनाव के बीच में राहुल गांधी हिमाचल प्रदेश में छुट्टी मनाने चले गए. इस पर कांग्रेस के सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के एक वरिष्ठ नेता का कहना था, ‘यहां चुनाव हो रहा है और राहुल गांधी प्रियंका जी के साथ शिमला में उनके घर पर पिकनिक मना रहे हैं. इस तरह से पार्टी चलती है क्या? आरोप तो लग सकता है कि कांग्रेस पार्टी जिस ढंग से अपना कारोबार चला रही है उससे भारतीय जनता पार्टी को मदद मिल रही है.’ इसके बाद कांग्रेस के और भी पुराने एक सहयोगी और एनसीपी के मुखिया शरद पवार ने भी राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाया.

उधर, बिहार चुनाव में एनडीए की जीत के बाद इसकी छाया में सुस्ताने के बजाय भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तुरंत ही ऐलान कर दिया कि वे उन इलाकों में 100 दिन की यात्रा करेंगे जहां भाजपा को कमजोर माना जाता है. उनका सोचना था कि भले ही केंद्र सहित उत्तर और पश्चिम भारत पार्टी की मुट्ठी में हों लेकिन यह काफी नहीं है और भाजपा को दक्षिण और पूर्व में भी अपना दायरा बढ़ाना होगा. जीत ने जेपी नड्डा को सड़क पर उतरने और पहले से ज्यादा परिश्रम करने के लिए प्रेरित किया. दूसरी तरफ, हार के बाद राहुल गांधी फिर वहीं चले गए जो उनकी पसंदीदा जगह है और जहां उनकी राजनीति का ज्यादातर हिस्सा गुजरता है, यानी ट्विटर पर.

यह लेखक मौजूदा कांग्रेस का जितना बड़ा आलोचक है, उससे कहीं बड़ा आलोचक भाजपा का है. अगर उसकी किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति निष्ठा है भी तो वह महात्मा गांधी की कांग्रेस के प्रति है जिससे छद्म गांधियों वाली मौजूदा कांग्रेस की कोई समानता नहीं है. असली कांग्रेस ने स्वतंत्रता के आंदोलन की अगुवाई की थी और स्वतंत्रता मिलने के बाद उसने एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की बुनियाद रखने में मदद की. नरेंद्र मोदी और अमित शाह जिस हिंदुत्व के प्रतिनिधि हैं उससे इस गणतंत्र के पूरी तरह ध्वस्त होने का खतरा है. उस हिंदुत्व के दुष्परिणाम सिर्फ समाज और राजनीति तक सीमित नहीं रहेंगे. क्योंकि स्वतंत्र संस्थानों को नुकसान पहुंचाने और अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के अलावा मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था को भी ढहा दिया है और दुनिया में भारत की साख भी गिराई है.

फिर भी अपनी तमाम असफलताओं के बावजूद मोदी-शाह की इस सरकार को चुनावों में हराना मुश्किल होगा, कम से कम तब तक जब तक देश की मुख्य विपक्षी पार्टी की कमान गांधी परिवार के पास रहेगी. बात सिर्फ विशेषाधिकार और वैचारिक भ्रम की ही नहीं है, कांग्रेस की कमान संभालने वाला यह परिवार परिश्रम करने में अक्षम है. सोनिया गांधी के साथ पहले ऐसा नहीं था, लेकिन उम्र और स्वास्थ्य के चलते उनकी वह क्षमता जाती रही है. उनकी संतानों में तो यह थी ही नहीं. वे उन राजनीतिक मुद्दों की तलाश में रहते हैं जहां उनकी तस्वीरें सुर्खियां बन सकें. इन तस्वीरों को उनके समर्थकों से सोशल मीडिया पर खूब तारीफें भी मिलती हैं. लेकिन इसके बाद अक्सर वे गायब हो जाते हैं. हाल में जब हाथरस जाते हुए प्रियंका गांधी को पुलिस ने रोक लिया तो उनके प्रशंसक उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में आदित्यनाथ का विकल्प बताने लगे. उसके बाद उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में जब कांग्रेस की दुर्गत हुई तो ऐसी बातें बंद हो गईं.

गांधियों की इस पीढ़ी के कांग्रेस की कमान थामने से भाजपा को कैसे फायदा होता है, अब इसके आखिरी कारण पर आते हैं. जब तक जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के वंशज भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी की कमान थामे रहेंगे तब तक सत्ताधारी दल अतीत की कांग्रेस सरकारों की गलतियों की बात करते हुए अपनी मौजूदा नीतियों की आलोचना से ध्यान बंटाता रहेगा. जब मोदी सरकार पर आरोप लगेंगे कि वह प्रेस पर हमले और न्यायपालिका को काबू करने में लगी है तो जवाब आएगा कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल में क्या किया था. चीन के आगे आत्मसमर्पण के आरोपों के जवाब में नेहरू और 1962 की बात की जाएगी. कुल मिलाकर कांग्रेस पार्टी के तीनों शीर्ष नेता अगर गांधी हों तो यह बात नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा के अनुकूल ही जाती है.

भारतीय राजनीति के जो अध्येता मोदी भक्त नहीं हैं उनमें से भी कुछ मानने लगे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अजेय हैं. हालांकि मैं उनकी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता. 1970 के दशक में जब इंदिरा गांधी अपनी सत्ता के चरम पर थीं तो उनके अजेय होने की बात इससे भी ज्यादा जोर-शोर के साथ की जाती थी. इसलिए मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी अजेय हैं. बीते महीने का बिहार चुनाव ही देख लीजिए. धनबल, संगठन, मीडिया और राज्य में अपनी सरकार से मिलने वाली ताकत को देखा जाए तो एनडीए महागठबंधन से कहीं आगे था. इसके बावजूद दोनों की जीत का अंतर बेहद कम रहा.

मौजूदा सत्ता की सबसे कमजोर कड़ी शासन के मोर्चे पर उसकी अक्षमता है. वह राजनीतिक प्रचार और संगठन के मोर्चे पर माहिर है. लेकिन जब बात अर्थव्यवस्था के प्रबंधन की आती है तो वह पूरी तरह से नौसिखिया दिखती है. भले ही नरेंद्र मोदी अब भी देश में लोकप्रिय हों, लेकिन वैश्विक मंच के एक बड़े हिस्से में उन्हें लेकर अविश्वास है. अर्थव्यवस्था तो मौजूदा महामारी के आने से पहले ही मुश्किल में थी और इसके खत्म होने पर वह पहले जैसी अवस्था में आ जाएगी, यह असंभव लगता है, खास कर तब जब आर्थिक नीतियों का खुलापन खत्म हो रहा है और सरकार नियमों को उन उद्योगपतियों के हिसाब से मोड़ रही है जिनके साथ उसकी सांठगांठ मानी जाती है.

कब तक मौजूदा सत्ता तंत्र मुसलमानों को बदनाम कर या फिर गोहत्या और अंतरधार्मिक शादियों को प्रतिबंधित करने वाले कानून लाकर किसानों, कामगारों, कारीगरों, युवाओं और बेरोजगारों का ध्यान भटकाने में कामयाब होता रहेगा? हमारे गणतंत्र का भविष्य शायद इसी सवाल के जवाब पर टिका है. कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व की अक्षमता और उसके परिवारवाद ने निश्चित रूप से सत्ता पर पकड़ मजबूत करने में भाजपा की मदद की है. गांधी परिवार का भारत के मुख्य विपक्षी दल का मुखिया बने रहने से उसके लिए अपनी सरकार की गलतियों और अपराधों से जनता का ध्यान हटाना कहीं ज्यादा आसान हो गया है. अगर कांग्रेस के पास इससे ज्यादा लक्ष्यकेंद्रित और ऊर्जावान नेतृत्व होता, जिसके पास इससे कम विशेषाधिकार होते तो भाजपा के लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं होता.

अगले आम चुनाव में अभी तीन साल हैं. कांग्रेस चाहे तो एक नए नेतृत्व में खुद को तैयार करने और दूसरे विपक्षी दलों के साथ गठबंधन बनाने के लिए यह समय काफी है. अपनी पार्टी और अपने देश का हित देखते हुए गांधी परिवार को अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को ही नहीं बल्कि पूरी पार्टी को ही अलविदा कह देना चाहिए. अगर वे पार्टी में बने रहे तो एक वैकल्पिक सत्ता केंद्र बना रहेगा जो सिर्फ साजिशों और असंतोष के लिए ईंधन देने का काम करेगा.

सोनिया गांधी अपना जन्मदिन मनाती हैं या नहीं इससे देश के भविष्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता. उनका बलिदान यह होना चाहिए कि वे राजनीति से विदा लें और अपनी संतानों को भी अपने साथ ले जाएं. हिंदुत्व से उपजे अधिनायकवाद ने हमारे गणतंत्र का विध्वंस कर दिया है. गांधी परिवार की विदाई से इससे उबरने की हमारी संभावनाएं बढ़ जाएंगी.

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